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एफआईआर की कॉपी देर से मजिस्ट्रेट को भेजने की वजह से सुनवाई पर असर नहीं पड़ेगा : सुप्रीम कोर्ट [आर्डर पढ़े]

LiveLaw News Network
20 Sep 2018 3:02 PM GMT
एफआईआर की कॉपी देर से मजिस्ट्रेट को भेजने की वजह से सुनवाई पर असर नहीं पड़ेगा : सुप्रीम कोर्ट [आर्डर पढ़े]
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अगर रिपोर्ट किसी वजह या गलती से विलंब से भेजा जाता है तो इसके कारण सुनवाई पर प्रभावित नहीं होगा”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मजिस्ट्रेट को एफआईआर की कॉपी भेजने में होने वाली देरी की वजह से मामले की सुनवाई प्रभावित नहीं होनी चाहिए और इस तरह का निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि इस आधार पर आरोपी को दोषमुक्त किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति विनीत शरण की पीठ ने जफ़ेल बिस्वास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुनवाई के दौरान यह कहा। याचिकाकर्ता-आरोपी के वकील पिजूष रॉय ने एफआईआर देरी से भेजने के मामले को सीआरपीसी की धारा 157 का उल्लंघन माना।

यह अपील हत्या के एक मामले से संबन्धित है जिसमें हाईकोर्ट ने छह आरोपियों को अपराध का दोषी मानते हुए सजा सुनाई है।

इस संदर्भ में राजस्थान राज्य बनाम दाऊद खान  मामले में आए फैसले का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा, “मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजने का काम जांच अधिकारी का है...पर इस कोर्ट का मानना है कि अगर रिपोर्ट भेजने में किसी गलती की वजह से देरी होती है तो, मामले की सुनवाई पर इसका असर नहीं पड़ना चाहिए...”

कोर्ट ने आगे कहा, “अगर एफआईआर दर्ज करने के समय और तिथि को लेकर सवाल उठाया जाता है, तो उस स्थिति में रिपोर्ट ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। पर रिपोर्ट भेजने में महज देरी का यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि सुनवाई की प्रक्रिया बाधित हो गई है या आरोपी को इस आधार पर बरी किया जा सकता है”।

पीठ ने हाईकोर्ट के इस मत का भी समर्थन किया कि एफआईआर सही है कि गलत और निचली अदालत द्वारा आरोपी को दंडित करना सही है कि नहीं, यह पता करने के लिए सम्पूर्ण साक्ष्य की जांच करनी चाहिए।

कोर्ट ने कहा कि एफआईआर की प्रति भेजने में विलंब के पीछे कोई दुर्भावना है यह आरोपी को सिद्ध करना है। कोर्ट ने कहा,“जहां तक कि वर्तमान मामले की बात है, यह गौर करना पर्याप्त है कि सभी अपीलकर्ताओं का नाम एफआईआर में है, इसलिए रिपोर्ट में तीन नामों को जोड़ना कहीं से भी अपीलकर्ताओं के प्रति दुर्भावना को प्रदर्शित नहीं करता”।

मन्तव्य के अभाव के बारे में कोर्ट ने कहा, “मंतव्य हमेशा ही उस व्यक्ति के दिमाग में होता है जो घटना को अंजाम देता है। मंतव्य का दिखाई नहीं पड़ना और उसको साबित नहीं कर पाने की स्थिति में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए कोर्ट द्वारा उपलब्ध साक्ष्यों की गहराई से जांच की जरूरत होती है।  जब किसी घटना को साबित करने के लिए निश्चित प्रमाण हैं, और प्रत्यक्षदर्शी आरोपी की भूमिका को साबित कर रहा है, तो उस स्थिति में अभियोजन पक्ष का मंतव्य को साबित नहीं कर पाना कोई मायने नहीं रखता”।

 

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