IPC धारा 498A: सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की बेंच के फैसले में तीन जजों की बेंच ने संशोधन किया, गिरफ्तारी का अधिकार फिर पुलिस को [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
14 Sept 2018 2:29 PM IST
दहेज प्रताड़ना को लेकर IPC की धारा 498A के प्रावधानों में बदलाव के 27 जुलाई 2017 के दो जजों की पीठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने संशोधन किया है।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने उस गाइडलाइन को हटा दिया है जिसमें स्थानीय परिवार कल्याण समितियों की रिपोर्ट से पहले गिरफ्तारी पर रोक लगाई गई थी। इसके साथ ही पीठ ने गिरफ्तारी के अधिकार को फिर से पुलिस को दे दिया है लेकिन साफ कहा है कि पुलिस को इस अधिकार का इस्तेमाल करने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।
शुक्रवार को दिए इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर राज्य के डीजीपी मामले की जांच से जुड़े पुलिस अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण और जागरुकता अभियान चलाएं।
पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों की जांच के लिए सिविल सोसाइटी की कमेटी को इजाजत नहीं दी जा सकती। कोर्ट इस तरह की गाइडलाइन नहीं बना सकता क्योंकि ये विधायिका का काम है।
हालांकि पीठ ने इस मामले में संतुलन बनाने की बात कहते हुए कहा है कि पति व अन्य के हितों के सरंक्षण के लिए अदालत को उन्हें जमानत या अग्रिम जमानत देने का अधिकार है। ऐसे मामलों में पति या उनके पक्ष की अर्जी मिलते ही अदालत को तुरंत सुनवाई करनी चाहिए। यदि दोनों पक्ष समझौते के लिए तैयार हैं तो वो संबंधित हाईकोर्ट जा सकते हैं।
गौरतलब है कि दहेज का विवाह पर " बुरा प्रभाव" पड़ता है, ये कहते हुए 23 अप्रैल को भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने यह तय करने के लिए सहमति व्यक्त की थी कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के जुलाई 2017 के आदेश, जो आरोपी लोगों की तत्काल गिरफ्तारी पर प्रतिबंध लगाता है और उसी दिन उन्हें जमानत देने की इजाजत देता है, इससे विरोधी दहेज उत्पीड़न कानून हल्का हुआ है ?
न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति यूयू ललित की बेंच के 27 जुलाई 2017 के आदेश को चुनौती देने के वाली दायर याचिकाओं पर मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन जजों की बेंच ने फैसला फैसला सुरक्षित रख लिया था।
दिशानिर्देशों की एक श्रृंखला में न्यायमूर्ति गोयल के बेंच ने कहा था कि सामाजिक कार्यकर्ताओं, गृहणियों, सेवानिवृत व्यक्तियों, आदि से जुड़ी स्थानीय कानूनी सेवा प्राधिकरण द्वारा स्थापित स्थानीय परिवार कल्याण समितियों की रिपोर्ट आने तक शिकायत पर कोई गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। 27 जुलाई के आदेश में कहा गया था कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में आपराधिक कार्यवाही का निपटारा किया जा सकता है और आरोपी को जमानत मिल सकती है। दहेज के सामान की वसूली भी जमानत देने के लिए एक निवारक नहीं होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय का प्रशासन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की असाधारण शक्तियों का आह्वान करके ये आदेश पारित किया गया था।
इस दौरान केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पी एस नरसिम्हा द्वारा कहा गया था कि ये आदेश "व्यावहारिक" नहीं था। उन्होंने कहा कि राज्यों ने केंद्र को वापस लिखा था कि परिवार कल्याण समितियों की स्थापना और उनकी निगरानी "लागू करने योग्य" नहीं हैं।
याचिकाकर्ता के लिए पेश वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि अदालत को केवल तभी दिशानिर्देश देना चाहिए जब कानून में खामी हो। "आईपीसी की धारा 498A (दहेज उत्पीड़न) लिंग न्याय और अधिकारों की रक्षा करती है। महिलाओं पर किसी भी प्रकार का क्रूर उपचार नहीं होना चाहिए ... लेकिन पति की स्वतंत्रता भी एक कारक है ... क्या दोनों को जुड़ाव या सुलझाया जा सकता है?" मुख्य न्यायाधीश ने जोर दिया।
एक याचिकाकर्ता के लिए पेश वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा ने कहा था कि अपराध की जांच पुलिस का काम है, न कि गैर-कानूनी व्यक्तियों से बनी परिवार कल्याण समिति का। इससे पहले मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने कहा था कि 27 जुलाई के आदेश ने धारा 498A के उद्देश्य को यातना में रहने वाली विवाहित महिला के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक प्रभावी कानून के रूप में हटा दिया था। मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने कहा, "निर्णय (27 जुलाई) विधायी डोमेन में प्रवेश कर रहा है ... हम इस विचार से सहमत नहीं हैं क्योंकि यह महिला के अधिकारों को प्रभावित करने के लिए उत्तरदायी है।"
यह नोट किया जाना चाहिए कि एनजीओ की ओर से याचिका पर सुनवाई करते मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने 13 अक्टूबर 2017 को राजेश शर्मा के फैसले के संदर्भ में कहा था, "हम इस मामले में पारित फैसले के साथ समझौते में नहीं हैं। हम कानून नहीं लिख सकते हम केवल कानून की व्याख्या कर सकते हैं।