धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला : पीठ के किस जज ने क्या कहा [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
7 Sept 2018 1:35 PM IST
वृहस्पतिवार को सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस मामले में पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के जजों के विचार इस तरह से थे -
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और एएम खानविलकर
इन दोनों ही न्यायाधीशों ने मानवाधिकार और संवैधानिक गारंटी के बीच संबंध को रेखांकित करने के लिए नालसा (एनएएलएसए) के फैसले पर भरोसा किया। पहचान की महत्ता पर जिस तरह से नालसा मामले में प्रकाश डाला गया है उससे वह मानवाधिकार और गरिमापूर्ण जीवन और स्वतन्त्रता के अधिकार को भी जोड़ता है। इसी भावना को दुहराते हुए हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि पहचान की परिकल्पना जो की संविधानसम्मत है, को सिर्फ उसकी अनुस्थिति (orientation) के सन्दर्भ में ही नहीं देखा जा सकता है क्योंकि ऐसी स्थिति में किसी की व्यक्तिगत पसंद को परे रखा जा सकता है। पहचान की इस परिकल्पना के केंद्र में है स्व-निर्धारण जो कि किसी व्यक्ति की खुद की योग्यता को समझना है।
सुरेश कौशल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया था और आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिकता को जायज ठहराया था। इस तरह के विचारों को अब जगह नहीं है।
संवैधानिक नैतिकता अपने में जिन गुणों को समेटे हुए है उसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है बहुलवाद और समावेशी समाज का संवर्धन। संवैधानिक नैतिकता न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों से उम्मीद करता है कि वह समाज में विविधता को संरक्षित करेगा और कम जनसंख्या वाले छोटे समूहों के अधिकारों और उसकी स्वतन्त्रता पर बहुसंख्यकों को डाका नहीं डालने देगा। सामाजिक नैतिकता की वेदी पर संवैधानिक नैतिकता की बलि नहीं दी जा सकती है। सिर्फ संवैधानिक नैतिकता को ही क़ानून के राज में जगह मिल सकती है। सामाजिक नैतिकता की आड़ में किसी एक व्यक्ति के भी मौलिक अधिकार के हनन की इजाजत नहीं दी जा सकती है क्योंकि संवैधानिक नैतिकता का आधार ही समाज में विविधता की स्वीकारोक्ति है।
गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। संवैधानिक अदालत को अवश्य ही हर व्यक्ति के गरिमा के उसके अधिकार को संरक्षित करना चाहिए क्योंकि गरिमा का अधिकार अगर नहीं है तो और कोई भी अधिकार अर्थहीन हो जाता है। विज्ञान इस बात को सामने रखा है कि कोई व्यक्ति किसके प्रति आकर्षित होगा इस पर उस व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं है। किसी के लैंगिक अनुस्थिति के आधार पर अगर उसके साथ कोई भेदभाव होता है तो यह उसके मौलिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन है।
मौलिक अधिकार सिर्फ बहुसंख्यकों का ही नहीं होता।
पुत्तुस्वामी मामले में निजता पर फैसले के बाद मौलिक अधिकार एक बहुत ही ऊंचे दर्जे पर चला गया है। सुरेश कौशल मामले में जो फैसला दिया गया है वह गलत है क्योंकि संविधान के निर्माताओं की यह कभी मंशा नहीं रही होगी कि मौलिक अधिकारों का लाभ सिर्फ जनसंख्या के उसी हिस्से को मिले जो बहुसंख्यक है।
धारा 377 अनुच्छेद 14 और 19 के सन्दर्भ में
आईपीसी की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन करता है। इस धारा को अनुच्छेद 14 और 19के आलोक में परखना चाहिए। एलजीबीटी समुदाय के साथ होने वाला भेदभाव अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। आईपीसी की धारा 377 आज जिस रूप में है, इसकी वजह से सहमति से सहवास भी अपराध हो गया है।
अनुच्छेद 19(1)(a) : धारा 377 के तहत सार्वजनिक शिष्टता और नैतिकता के लिए अनर्गल प्रतिबंध इस समुदाय पर लगाया जाता है और एक सीमा के बाद नैतिकता को बड़ा नहीं किया जा सकता और एलजीबीटी समुदाय के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए यह पर्याप्त आधार नहीं हो सकता है। इस तरह धारा 377 वर्तमान रूप में अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करता है।
सुरेश कौशल मामले में दिए गए फैसले को उपरोक्त सन्दर्भ में अनुकूल नहीं होने के कारण इसे निरस्त किया जाता है।
न्यायमूर्ति नरीमन
समलैंगिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है। इस समूह के लोगों को क़ानून के तहत सामान संरक्षण पाने और समाज में मानवोचित गरिमा के साथ व्यवहार किये जाने का अधिकार है। समलैंगिक के बीच यौन संबंधों को आपराधिक बनाने वाली धारा 377 असंवैधानिक है।
हमारी राय में भारत संघ को इस फैसले को आम लोगों में समय-समय पर प्रचारित करने के लिए सार्वजनिक मीडिया का सहारा लेना चाहिए जिनमें टीवी, रेडियो, प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया शामिल है। संघ इस तरह के लोगों के बारे में कलंक को अंततः समाप्त करने के लिए कार्यक्रम चलाएगा।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़
- वयस्कों के बीच सहमति से होने वाले यौन संबंधों को अपराध बताने वाली धारा 377 असंवैधानिक है।
- एलजीबीटी समुदाय को वही सारे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं जो अन्य नागरिकों को उपलब्ध हैं।
- अपनी यौन इच्छा की पूरी के लिए कौन किसका पार्टनर होता है और इस आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं हो सकता।
- एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों को बिना भेदभाव के एक नागरिक के सभी अधिकार प्राप्त होंगे और उन्हें क़ानून का सामान संरक्षण प्राप्त होगा।
- कौशल मामले में दिया गया फैसला निरस्त किया जाता है।
न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा
- 18 साल से ऊपर के लोगों में सहमति से यौन सम्बन्ध स्थापित करने को आपराधिक करार देने वाले धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, और 21 का उल्लंघन करता है। यह सहमति अवश्य ही मुक्त और स्वैच्छिक प्रकृति का होना चाहिए और इसमें कोई जोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए।
- धारा 377 पर इस फैसले के कारण किसी ऐसे मुक़दमे को दुबारा नहीं खोला जाएगा जिसमें अभियोजन पूरा हो चुका है पर अगर कोई मामला सुनवाई, अपील या समीक्षा के स्तर पर है तो उस सन्दर्भ में इस पर भरोसा किया जा सकता है।
- किसी वयस्क, नाबालिग और पशु के साथ होने वाली असहमतिपूर्ण यौन संबंधों पर धारा 377 प्रभावी रहेगा।
- सुरेश कौशल और अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन मामले में आए फैसले को निरस्त किया जाता है।