हादिया मामले में सुनवाई : वकीलों और जजों के बीच हुई तीखी बहस

LiveLaw News Network

8 March 2018 3:56 PM GMT

  • हादिया मामले में सुनवाई : वकीलों और जजों के बीच हुई तीखी बहस

    हम चीजों को सरल बनाएं...लड़की हाई कोर्ट में हाजिर हुई और कहा कि उसे जबरदस्ती बंद नहीं किया गया है। हाई कोर्ट को तो इस शादी में टांग भी नहीं अड़ाना चाहिए था”, मुख्य न्यायाधीश ने कहा।

    वृहस्पतिवार को हादिया मामले की सुनवाई एक बार फिर शुरू हुई और वरिष्ठ वकील कपिल सिबल ने हादिया और उसके पति की पैरवी की। मुद्दा यह था कि क्या हाई कोर्ट स्वतः संज्ञान लेते हुए किसी शादी को अवैध ठहरा सकता है? औद दूसरा, यह एक स्थापित कानूनी स्थिति है कि कोई तीसरा पक्ष आपसी सहमति से शादी करने वाले दो वयस्कों के मामले को लेकर कोर्ट में अर्जी नहीं दे सकता।

    सिबल ने अपनी दलील में कहा, “अनुच्छेद 21 के तहत लोगों को अपना साथी चुनने का अधिकार प्राप्त है...अगर दोनों वयस्क राजी हों तो शादी की स्थिति पर इन दोनों के अलावा कोई तीसरा पक्ष प्रश्न नहीं उठा सकता और इस बारे में स्थापित नियम के अनुसार कोई एफआईआर या निजी शिकायत भी दर्ज नहीं की जा सकती...किसी व्यक्ति की मानसिक क्षमता पर प्रश्न उठाना उसकी निजता और गरिमा जैसे मौलिक अधिकार का हनन है...इस मामले में महिला की मानसिक क्षमता केरल हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इसके साथ हुए संवाद से पहले ही स्थापित हो चुकी है”।

    इसके बाद उन्होंने जेरी डगलस बनाम सोनी डगलस [(2018) 1 SCC 197], मामले का हवाला दिया जिसमें कोर्ट ने कहा कि कोर्ट सुपर अभिभावक की भूमिका में नहीं आ सकता...

    एडवोकेट श्याम दीवान ने हादिया के पिता की पैरवी की। उन्होंने कहा, “...अनुच्छेद 226 के तहत उचित मामले में किसी शादी को अवैध करार देना हाई कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में है”।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “अगर यह ऐसा मामला है जहाँ शादी वर या वधू किसी एक पक्ष की गरीबी और निरक्षरता की पृष्ठभूमि में आयोजित हुई है, तो कोर्ट का हस्तक्षेप न्यायोचित होगा। पर जब दो वयस्क अपनी मर्जी से शादी करने का निर्णय करते हैं तो क्या कोर्ट के लिए इस शादी के सही होने या गलत होने के विवाद में पड़ना चाहिए?”

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “क्या हम लोक क़ानून और राज्य को इस मामले में दखल देने की अनुमति दे सकते हैं”?

    दीवान ने कहा, “यह पहले से ही हो रहा है”।

    मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “जब बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में एक बार यह स्थापित हो जाता है कि गैर कानूनी ढंग से बंदी बनाकर रखने का कोई मामला नहीं है तो मामला ख़त्म हो जाता है”।

    दीवान ने कहा, “शायद नहीं ...मौजूदा मामले में सहमति से दो वयस्कों की बीच शादी की परिकल्पना का प्रयोग क़ानून को धता बताने और हाई कोर्ट को अपने अधिकार के प्रयोग से रोकने के लिए किया जा रहा है ताकि मानव तस्करी को अंजाम दिया जा सके...इस पूरे प्रकरण को एक सुनियोजित तरीके से एक मशीनरी द्वारा आयोजित किया जा रहा है”।

    उनको बीच में रोकते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “आपको मैं दो टूक बता दूं कि हम इस दलील से प्रभावित नहीं हैं...हमने लड़की से बात की है...कोर्ट सहानुभूति के इस जूनून में शामिल नहीं हो सकता...”

     “पर इस तरह के विशिष्ट मामलों में, हाई कोर्ट को पूरा अधिकार है ...”, दीवान ने कहा।

     “शादी और समीपता की जहाँ तक बात है, हम वेडनेसबरी के तर्कसंगतता के सिद्धांत को लागू नहीं कर सकते”, चंद्रचूड़ ने कहा।

    मुख्य न्यायाधीश इसके बाद एनआईए की पैरवी कर रहे एएसजी मनिंदर सिंह से मुखातिब हुए और पूछा, “क्या आपने किसी स्त्री या पुरुष के खिलाफ किसी अपराध की तहकीकात की है”?

    जोरदार तरीके से यह कहते हुए कि जांच की परिधि में वैवाहिक स्थिति को नहीं लाया जा सकता, मुख्य न्यायाधीश ने कहा,  “X” को “Y” से तलाक मिल जाता है। एक साल बाद दोनों अपना मतभेद सुलझा लेते हैं और फिर शादी कर लेते हैं। अब कोर्ट इसमें क्या कर सकता है?”

    एसजी ने कहा, “लेकिन यह जरूरी है कि सहमति प्रत्यक्ष और स्वतंत्र होनी चाहिए।”

    मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “हम सहमति के न्यूरोलॉजिकल पक्ष में नहीं जा सकते। अनुच्छेद 226 का प्रयोजन एक अधिकार को जीवित रखना है न कि उसका गला दबाना। हम इस चरम स्थिति की कल्पना करें कि शादी किसी अपराध को अंजाम देने का एक आवरण है। तो उस स्थिति में आप अपराधकर्मी को गिरफ्तार करेंगे पर यह जांच नहीं करेंगे कि शादी छद्मावरण है या नहीं।”

    एएसजी ने तुनकते हुए कहा, “कृपया आप जांच रिपोर्ट को देखें। 19 दिसंबर 2016 को यह लड़की शादीशुदा नहीं थी जब इसको सैनाबा की देखरेख में सुपुर्द किया गया था ...शादी सिर्फ एक चाल है ... यह हाई कोर्ट के सम्मुख ऑन रिकॉर्ड है”.

    पीठ ने वयस्क के मामले में “कस्टडी” शब्द के प्रयोग पर आश्चर्य व्यक्त किया।

     “हम चीजों को सरल बनाएं...लड़की हाई कोर्ट में हाजिर हुई और कहा कि उसे जबरदस्ती बंद नहीं किया गया है। हाई कोर्ट को तो इस शादी में टांग भी नहीं अड़ाना चाहिए था”, मुख्य न्यायाधीश ने कहा।

     “अगर वह अविवाहित होती और कोर्ट में यह कहती कि वह अपने माँ-बाप के पास वापस नहीं जाना चाहती है तब अदालत क्या करती? ...मान लीजिए कि A ने B से शादी की है और इनमें से एक को विदेश भेजा जाना है, तो सरकार यात्रा पर प्रतिबन्ध लगा सकती है पर शादी को अवैध नहीं ठहराया जा सकता”, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा।

    “यद्यपि जो तस्वीर पेश की गई है वह यह है कि हादिया शफिन जहाँ के संपर्क में खुद ही आई। पर इस तरह के कई ऐसे मामल हुए हैं जिसमें प्रतिवादी नंबर 7 और 8 (क्रमशः सथ्यसरिनी एजुकेशन एंड चैरिटेबल ट्रस्ट एवं सैनाबा) इसमें शामिल रहे हैं और लड़कियों ने अपने घर जाने से मना कर दिया और तब उनकी शादी कराई गई...”, एएसजी ने कहा।

    इस पर सिबल ने कहा, “जांच तो सिर्फ आरोप है”।

    एएसजी ने कहा, “जांच कोर्ट के आदेश के अनुरूप हुआ है। एफआईआर दर्ज हुआ...जांच पहले केरल की राज्य पुलिस ने की और उसके बाद इसको एनआईए को सौंप दिया गया ...में माननीय से आग्रह करता हूँ कि वे जांच की रिपोर्ट आने तक प्रतीक्षा करें”।

    सिबल ने कहा, “केरल राज्य पुलिस की रिपोर्ट में कोई अपराध नहीं ठहरा ...पर अब एनआईए कुछ अलग बोल रहा है।”

    दीवान ने कहा, “...शादी प्यार का परिणाम नहीं है बल्कि यह वेबसाइट ‘वे टू निकाह’ के माध्यम से आयोजित हुआ। 19 दिसंबर 2016 को हाई कोर्ट को बताया गया कि उसकी शिक्षा पूरी करने के लिए उचित इंतजाम किया जाए और 21 दिसंबर 2016 को शफिन जहाँ ने कोर्ट में बताया कि 19 दिसंबर को हादिया की शादी उसके साथ हो गई। उसके फेसबुक पेज पर भी शादी की योजना की कोई जानकारी नहीं थी...”

    इसके बाद दीवान ने यह बताया कि कैसे हादिया को देश के बाहर सीरिया ले जाने की कोशिश हुई। न्यामूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि यह बात हादिया के पिता ने जानबूझकर लीक की थी...दीवान ने स्पष्ट किया कि अपने पिता के साथ एक बातचीत में हादिया ने सीरिया जाने की इच्छा जताई थी।

    फिर दीवान ने कहा कि 2015 में हादिया को कोई फजल मुस्तफा और उसकी पत्नी शेरिन शहाणा यमन ले जाना चाहती थी। हादिया को वह अपनी दूसरी पत्नी के रूप में ले जाना चाहता था। एनआईए अभी तक इस दंपति से पूछताछ नहीं कर पाई है।

    दीवान ने कहा, “ये सारी बातें इस बात के लिए काफी है कि अनुच्छेद 226 के तहत कार्रवाई की जाए ...क्या कोई संवैधानिक अदालत इस तरह की परिस्थिति में मूक दर्शक बना रह सकता है?

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