आरोपी को संदेह का लाभ देने से पहले पीडित की दुर्दशा को देखें अदालतें ,समाज में गहरी जडे जमा चुकी लैंगिक भेदभाव की भावना को उखाडना जरूरी : सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
12 Aug 2017 3:04 PM IST
एसिड अटैक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि अदालतों को आरोपी को संदेह का लाभ देने वक्त पीडितों की दुर्दशा को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक केस मे आरोपी के बरी करने के फैसले को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि सिर्फ सख्त कानून और सजा के प्रावधान से शायद कुछ नहीं होगा, समाज में गहरी जडे जमा चुकी लैंगिक भेदभाव की भावना को उखाडना जरूरी है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट एसिड अटैक की शिकार होकर अपनी जान गंवा बैठी महिला के भाई की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। याचिका में कोलकाता हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें आरोपियों को हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया था। जबकि ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में एक आरोपी को हत्या का दोषी करार देकर फांसी की सजा सुनाई थी।
गौरतलब है कि वारदात से पहले महिला ने एक आरोपी के खिलाफ रेप का मुकदमा दर्ज कराया था। इसी पर महिला को सबक सिखाने के लिए आरोपी घर में घुसे और एसिड फेंककर उसकी हत्या कर दी। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने रेप के मामले में आरोपी को बरी कर दिया था।
मामला हाईकोर्ट पहुंचा और हाईकोर्ट ने तकनीकी और जांच व कानूनी कारवाई में देरी को आधार बनाते हुए आरोपियों को बरी कर दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा है कि हाईकोर्ट मे मामूली चूक पर ध्यान देते हुए आरोपियों को बरी कर दिया जबकि सच्चाई ये है कि एेसा कोई केस नहीं मिलेगा जिसकी जांच पूरी तरह दोषरहित हो और उसमें कोई खामी ना हो। कोर्ट का काम जांच में कमियां निकालना नहीं बल्कि सच्चाई को सामने लाना है। कोर्ट ने कहा कि ये मामला पुलिस, डाक्टर और सिस्टम का पीडित के प्रति असंवेदनशीलता का एक उदाहरण है। हाईकोर्ट ने भी इस मामले में सामान्य रुख ही अपनाया जबकि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को मौत की सजा सुनाई थी। मौत की सजा एक गंभीर मामला है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की मौत की सजा को आजीवन कैद में तब्दील कर दिया। कोर्ट ने मान लिया कि ये उसका पहला अपराध था और वो समाज के लिए खतरा भी नहीं है।
सहमति से दिए गए फैसले में जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत ने आदेश में कहा है कि न्याय प्रशासन को समाज की रक्षा करनी होती है और ये उस पीडित को नजरअंदाज नहीं कर सकता जो अपनी जान गंवा बैठी है और कोर्ट के सामने रो भी नहीं सकती। अगर आरोपी द्वारा उठाए गए सभी संदेहों को स्वीकार लिया गया तो ये न्याय प्रक्रिया के रास्ते को ही बदल देगा। अगर न्याय प्रणाली के सिद्धांत में दिए गए सबूतों के संदेह के सुनहरे धागे को इस मामले में इतना लचकदार बनाया गया तो ये न्याय के लिए कूबड और हर मामले में बीमारी साबित होगा।
वहीं बेंच में शामिल जस्टिस एन वी रमना ने लिखा कि इस केस में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम मृतकों को शिकार होने से नहीं बचा पाया। 2013 में कानून में संशोधन होने के बावजूद एसिड अटैक के मामलों में बढोतरी हुई है।
यहां तक कि कोर्ट वक्त वक्त पर एसिड से जुडे पदार्थों की खुले बाजार में बिक्री पर रोक के आदेश जारी करता है ताकि इस सामाजिक बुराई को खत्म किया जा सके। हमें ये भी स्वीकार करना होगा कि सिर्फ सख्त कानून और सजा के प्रावधान से शायद कुछ नहीं होगा, समाज में गहरी जडे जमा चुके लैंगिक भेदभाव की भावना को खत्म किया जाना जरूरी है।
जस्टिस रमना ने इस मामले में उस डाक्टर को भी आडे हाथों लिया है जिसने पीडिता का मौत से पूर्व बयान नहीं लिया। फैसले में लिखा गया है कि कि डाक्टर का ये आचरण पेशे का अनादर है। अापराधिक मामलों में डाक्टरों का अहम भूमिका होती है और वो एेसे में पेशे को बनाए रखने के लिए हालात के आधार पर निर्णय लेने व मृत्युपूर्व बयान दर्ज करने के लिए बाध्य हैं। डाक्टर तो ये बयान दर्ज करने चाहिए थे क्योंकि ये अभियाजन की सफलता के लिए महत्वपूर्ण थे। ये प्रैक्टिस इंडियन मेडिकल काउंसिल रेगुलेशन एक्ट 2002 का भी हिस्सा हैं। वैसे भी मौते से पहले दिए गए बयान इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 32 के तहत काफी अहम होते हैं।