जब सरकार पूरी तरह से ’रूल आॅफ लाॅ’ को नकार देती है तो आखिरी विकल्प मुकदमेबाजी का ही बचता है-नमिता वाही, (भारत में लैंड ऐक्वजिशन लिटिगेशन पर लिखी रिपोर्ट की मुख्य लेखक)
LiveLaw News Network
31 May 2017 7:37 PM IST
दो व तीन मार्च को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में लैंड राईट,लैंड एक्विजिशन व भारत में हो रहे विकास पर एक कांफ्रेंस का आयोजन किया गया था। इस कांफ्रेंस में सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च लैंड राईट इनिशिएटिव और सेंटर आॅन लाॅ एंड सोशल ट्रांसफोरमेशन,नार्वे कुल बीस डेलिगेट्स को एक साथ लाए थे,जिन्होंने सिविल सोसायटी के क्रास-सेक्शन व पाॅलिसी बनाने में शामिल सिविल सर्वेंट को प्रतिनिधित्व किया था।
इस कांफ्रेंस के तहत लैंड राईट,लैंड एक्विजिशन व भारत में हो रहे विकास पर दो दिन तक मंथन किया गया। इस कांफ्रेंस में एक्टिविस्ट,स्काॅलर व स्टेकहोल्डर ने पूरे मंथन व वाद-विवाद में भाग लिया,जिसके बाद स्पीकर ने विस्तृत प्रजेंटेशन पेश की।
कांफ्रेंस के पैनल डिस्कशन में जिन स्पीकर ने भाग लिया,उनमें जाने-माने स्काॅलर वाल्टर फर्नाडिस,एक्टिविस्ट कांची कोहली,सिविल सर्वेंट के.पी कृष्णनन (सेक्रेटरी,मिनिस्ट्री आॅफ स्कियल डेवलपमेंट एंड एंट्रीप्योरनशिप,भारत सरकार, जो पूर्व में मिनिस्ट्री आॅफ रूरल डेलवपमेंट के डिपार्टमेंट आॅफ लैंड रिसोर्स विभाग में एडीशनल सेक्रेटरी थे),उषा रामानाथन,गोपाल शंकरनारायनन व नंदिनी सुंदर आदि शामिल थे।
नमिता वाही, (डायरेक्टर,लैंड राईट इन्सिएटिव एट दाॅ सी.पी.आर और आर्टिटेक्ट आॅफ दाॅ कांफ्रेंस इनिशटिव ) ने कांफ्रेंस के पैनल की थीम व कांफ्रेंस में रिलीज की गई भारत में लैंड एक्विजिशन की रिपोर्टःरिव्यू आॅफ सुप्रीम कोर्ट केस (1950-2016) से संबंधित कुछ विशेष सवालों के जवाब लाइव लाॅ को दिए।
लाइव लाॅ--शुरूआत में,कांफ्रेंस में लैंड एक्विजिशन पर जारी की रिपोर्ट के महत्व के बारे में हमें बताएं?
नमिता वाही--’लैंड एक्विजिशन इन इंडिया’ पर सी.पी.आर लैंड राईट इनिशटिव रिपोर्ट एक व्यवस्थित व विस्तारपूर्ण रिपोर्ट है,जिसमें जमीन अधिग्रहण के उन सभी मामलों की स्टडी शामिल है,जिनमें फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। यह केस सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1950 से 2016 के बीच निपटाए थे। सुप्रीम कोर्ट ने जब से काम शुरू किया है,तब से वह इस तरह के मामले सुन रही है। सुप्रीम कोर्ट पूरे देश की कोर्ट से आए मामलों को सुन रही है। इसलिए स्टडी में डाटाबेस से 1269 केस को शामिल किया गया। इन केस में सभी तरह के केस शामिल किए गए है,जिनमें क्षेत्रीय व मामलों के अलग-अलग नेचर को भी ध्यान में रखा गया है। यह रिपोर्ट इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई दशकों से जमीन पर सामाजिक,राजनीतिक व कानूनी विवाद चलता रहा है। जमीन अधिग्रहण में उचित मुआवजा मिले व पारदर्शिता का अधिकार बना रहे,इसके लिए लैंड एक्विजिशन,रीहेबिलेटेशन व रीसेटल्मेंट एक्ट 2013 को लागू किया गया था ताकि जमीन को लेकर चल रहे विवादों व लाॅ कमीशन द्वारा 1958 में अपनी रिपोर्ट में नोट की गई समस्याओं को सुलझाया जा सकें।
हालांकि इस एक्ट के लागू होने के एक साल के भीतर ही सरकार ने इस कानून को उलटने का प्रयास करती नजर आई। पहले इसके लिए ओर्डिनेंस लाए गए और फिर राज्य स्तर पर कानून में संशोधन कर दिया गया। अभी भी एल.ए.आर.आर एक्ट 2013 के प्रावधानों का व्यवस्थित ढंग से आंकलन बाकी है। वहीं नई पाॅलिसी व वर्ष 2014 से सरकार द्वारा शुरू किए गए कानूनी इनिशिएटिव भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। यह रिपोर्ट इन गैप को भरने का एक प्रयास है।
लाइव लाॅ--कांफ्रेंस में आए स्टेकहोल्डर के विचारों में कड़ा मतभेद था, विशेषतौर पर जमीन अधिग्रहण के मामलों में आने वाली समस्याओं से निपटने के लिए मुकद्मों को एक टूल की तरह प्रयोग करने के मामले में। कांफ्रेंस में भाग लेने वाली गणमान्य मुकदमेबाजी को लेकर बहुत ज्यादा आशावान नहीं थे। आपने पैनल में अपने विचार किस तरह प्रकट किए?
नमिता वाही--अपने दावों को सुलझाने के लिए मुकद्मा दायर करने वालों के लिए कुछ पूर्व निर्धारित शर्ते है। पहली पूर्व शर्त यह है कि आपकी कोर्ट तक पहुंच होनी चाहिए,जिसमें कोर्ट तक आने-जाने की दूरी व केस लड़ने की फीस शामिल है। इसी कारण हमने अपनी रिपोर्ट में पाया कि आधे केस केस दिल्ली से आते है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में स्थित है। उसके बाद हरियाणा,पंजाब व उत्तर प्रदेश का नंबर आता है क्योंकि यह सभी दिल्ली के बार्डर पर स्थित राज्य है। अगर हम कोर्ट में आने वाले मामलों को जिला स्तर पर देखे तो आधे से ज्यादा केस बीस जिलों से आए,जो सभी अर्बन है। इनमें से कुछ तो राज्यों की राजधानी है,जबकि बाकी कमर्शियल सेंटर है। इसलिए मुकदमा उन लोगों के लिए अच्छा विकल्प नहीं है जो किसी भी कारण से कोर्ट नहीं पहुंच सकते हैं,चाहे वह दूरी हो या वित्तिय समस्या। यह समस्या ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में ज्यादा है।सभी स्टेकहोल्डर सर्वसम्मति से इस निर्णय पर सहमत थे कि इस तरह के इलाकों में मुकद्मों के लिए लोगों की पहुंच सीमित है।
परंतु इस रिपोर्ट के उस तथ्य पर भी कुछ स्टेकहोल्डर सहमत थे कि कि सरकार-कार्यकारी व राज्य विधान,दोनों ही रूल आॅल लाॅ का पालन ठीक से नहीं कर रहे है। जिस कारण जनसंख्या के वंचित व दरिद्र तबके को इन मुकद्मों से भी कोई राहत नहीं मिलती है।
लाइव लाॅ--भारत के अनुसूचित इलाकों में पाॅलिटिकल इकोनमी आॅफ लैंड राईट पर की गई विस्तृत स्टडी में आपने गुजरात,आंध्र प्रदेश,छत्तीसगढ़ व मेघालय को सैंपल के तौर पर लिया। इस स्टडी के क्या परिणाम आए और क्या सुझाव दिए गए?
नमिता वाही--हमने अनुसूचित इलाकों के मामले में अपनी रिसर्च एक केंद्रीय सवाल का जवाब देने की कोशिश की है-संवैधानिक व कानूनी प्रावधान जमीन पर ट्राईबल के अधिकारों की रक्षा करते हैं,फिर भी वह क्यों जनसंख्या का दरिद्र व कमजोर तबका बन गए है। जब हमने इस सवाल का जवाब खोजना शुरू किया तो हमने पाया कि इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमारे पास मूलभूत सूचनाएं उपलब्ध नहीं है। हमें यह नहीं पता था कि भारत के कितने भगौलिक क्षेत्र में ट्राईबल लोग रहते है या भारत की जमीन का कितना प्रतिशत ट्राईबल है। न ही यह पता था कि अलग-अलग राज्यों के जिलों में ट्राईबल जनसंख्या का प्रतिशत कितना है और नोन- ट्राईबल का कितना।
जनसंख्या के आकड़ों से इस मूल सूचना को निकालने के लिए हमें कई महीने लग गए। अब मैं आपको बता सकती हूूं कि भारत 10.5 प्रतिशत इलाका ट्राईबल के लिए है। हमें यह भी पता है कि अनुसूचित इलाकों का अधिक्तर हिस्सा ट्राईबल इलाका है। अनुसूचित जिलों की जनसंख्या का तीस प्रतिशत से कम जनसंख्या ट्राईबल है। जबकि इन इलाकों में लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या नोन- ट्राईबल है। अनुसूचित इलाकों को राजनीतिक प्रशासन समझने के लिए हमने महसूस कि राज्यपाल का कार्यालय अपनी वह भूमिका नहीं निभा रहा है,जो उसे इन इलाकों के लिए निभानी चाहिए।
अनुसूचित इलाकों पर राज्यपाल द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को पाने के लिए हमें कई महीने का समय लगा। इस रिपोर्ट में राज्यपाल से आशा की जाती है कि वह अनुसूूूचित इलाकों की चुनौतियों व उनसे निपटने के लिए बनाए गए कार्यक्रम व कदमों की आउटलाइन तैयार करें।
सूचना के अधिकार के तहत हम राज्यपाल की कुछ सालों की रिपोर्ट की सूचना पा सकें। जिनको हमने अब सी.पीआर लैंड राईट इनिशटिव की वेबसाईट पर आम जनता के लिए उपलब्ध करा दिया है।
हमारी रिसर्च में यह भी पाया गया है कि डेवलपमेंट,रिप्रजेंटेशन व राईट टू लैंड की व्याख्या के मामले में अनुसूचित ट्राईब ने सोसायटी की मुख्य धारा के विरोध में एक खाई खोद रखी है।
इतना ही नहीं राज्यों ने संविधान के पांचवी व छठी अनुसूची के तहत ट्राईबल के अधिकारों की रक्षा की मांग की थी और इन अनुसूची के लिए जो कानून बनाया गया था,उसके समांतर काूनन बनाकर विस्थापित कर दिया गया और लैंड ऐक्वजिशन,माइनिंग व फाॅरेस्ट लाॅ एक विरोधी कानून बना दिया गया है।
अंतिम तौर पर यह कानून इसलिए भी फेल हो गए क्योंकि इनको लागू करने के लिए पर्याप्त फंड उपलब्ध नहीं कराए गए। या फिर प्रशासन ने इनको भ्रमित तरीके से लागू कर दिया।
लाइव लाॅ-- संविधान की पांचवी व छठी अनुसूची के संबंध में इन चारों राज्यों में किस तरह की चुनौतियां अपनी स्टडी में पाई गई है?
नमिता वाही--हर राज्य में विस्थापन के कारणों संबंध में अलग-अलग तरह की चुनौतियां पाई गई है। अगर अन्य तीन राज्यों से तुलना करें तो गुजरात राज्य में अनुसूचित इलाकों में डैम का निर्माण विस्थापन का मुख्य कारण बना है। वहीं हर राज्य में किसी एक ट्राईब को ज्यादा समावेश करने या कम समावेश करना भी एक समस्या रहा है। वहीं हर राज्यों के अनुसूचित ट्राईब में भी असमानता है। इतना ही नहीं हर राज्य का प्रशासन भी अलग-अलग है। कुछ राज्यों में विभाग ट्राईब के प्रति ज्यादा प्रतिकूल है,जबकि दूसरों में ऐसी स्थिति कम है।