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कानून के शिक्षकों को लेना चाहिए कानून में प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस-बैरिस्टर(प्रोफेसर) कईखुशरू लाम

बैरिस्टर व वकील कईखुशरू लाम का जन्म बाॅम्बे में और उनकी पढ़ाई कैथेडरल स्कूल में हुई। उन्होंने लंदन यूनिवर्सिटी से इॅक्नामिक्स में अपनी बैचलर आॅफ साइंस की डिग्री की। वहीं मास्टर इन साइंस की डिग्री भी स्टटिस्टिक्स में इसी यूनिवर्सिटी से की थी। लंदन स्कूल आॅफ इॅक्नामिक्स एंड कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में लगभग एक दशक तक मैथमेटिक्स व स्टटिस्टिक्स पढ़ाया। इसके बावजूद मिस्टर लाम हमेशा उन बौद्धिक चुनौतियों में इच्छुक रहे कि मैथमेटिक्ल अनुशासन उनको छात्रों को पढ़ाने व असिस्ट करने में सहायता करते है। परंतु उनको यह भी महसूस हुआ कि शैक्षणिक काम में उनकी भागीदारी असमानता,अन्याय व प्रताड़ना जैसी समस्याओं में को सुलझाने में कोई सहायता नहीं कर पा रही है। इसी प्ररेणा ने उनको वकील बना दिया। लिनकोलन इनन से जब उनको बार में बुलाया गया तो वह एक क्वालिफाईड बैरिस्टर बन गए। प्रोफेसर लाम ने लगभग नौ साल तक बाॅम्बे के एक सरकारी लाॅ कालेज में पार्ट-टाइम लेक्चरार के तौर पर भी काम किया। पूर्व में उन्होने बतौर लेक्चरार जमनालाल बजाज इंस्ट्टियूट आॅफ मैनेजमेंट स्टडीज इन मैथमेटिक्स एंड स्टटिस्टिक्स में भी पढ़ाया था।
लाइव लाॅ--प्रोफेसर लाम,आपने अपनी लाॅ की डिग्री इंग्लैंड से ली है। वहीं इंग्लैंड में बैरिस्टर के तौर आपका नामांकन भी था। किस बात ने आपको भारत में लीगल प्रोफेशन में आने के लिए प्रभावित किया?
प्रोफेसर लाम--मैंने अपनी उम्र के न्यायपूर्ण पड़ाव पर वकील बनने का निर्णय लिया। उस समय मैं तीस के पड़ाव पर था। मैं समुचित रूप से संतुष्ट था,इसलिए पहले मंैने मैथमेटिक्स व स्टटिस्टिक्स स्कूल में पढ़ाया,फिर पाॅलटेक्निकस में और उसके बाद लंदन स्कूल आॅफ इॅक्नामिक्स एंड कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में। मैंने यह काम कई साल तक किया क्योंकि उस समय मुझे पढ़ाना अच्छा लगता था। छात्रों के साथ मेरा व्यक्गित लगाव था। परंतु मुझे अनुभव हुआ कि मेरा यह योगदान असमानता,अन्याय व प्रताड़ना की समस्याओं के लिए कोई योगदान नहीं कर रहा है। इसलिए जब मैं हाईयर एजुकेशन में काम कर रहा था तो मैंने कानून की पढ़ाई करने का निर्णय किया और बैरिस्टर के तौर पर क्वालिफाई किया। बार-एट-लाॅ एक प्रोफेशनल क्वालिफिकेशन है,यह एक यूनिवर्सिटी क्वालिफिकेशन नहीं है।इसलिए मुझे लिनकोलन इनन से बार में बुलाया गया। उस स्टेज पर मुझे महसूस हुआ कि इंग्लैंड की बजाय भारत जैसे देश में अन्याय,असमानता व प्रताड़ना पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। भारतीय मूल का निवासी हूं और बाॅम्बे में ही पालन-पोषण हुआ है। इसलिए मेरी बैरिस्टर की क्वालिफिकेशन लेने के तुरंत बाद मैंने भारत आने का निर्णय ले लिया था। मैं लगभग बीस साल दूर रहा था और मेरी एक बूढ़ी विधवा मां थी,इसलिए मैं उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहता था। मेरे इस निर्णय से मेरी मां को काफी फायदा हुआ और वह बीस साल ज्यादा जी पाई और अपनी उम्र के 97 साल पूरे किए।
लाइव लाॅ--जी.एल.सी मुम्बई में प्रोफेसर के तौर पर आपकी यात्रा कैसी रही है। भारत में कई नेशनल लाॅ स्कूल है,परंतु आपने जी.एल.सी में ही काम करने का फैसला क्यों लिया?
प्रोफेसर लाम--जब मैं 16 से 18 साल की उम्र का था,उस समय मैं सिडेनहम कालेज में पढ़ता था ओर सरकारी लाॅ कालेज,मुम्बई से पढ़ना चाहता था। मैं उस समय सोचता था कि यह एशिया का सबसे पुराना लाॅ कालेज है। इसी कारण इस कालेज की लीगल स्क्लिस का मुझ पर काफी प्रभाव पड़ा था। इतना ही नहीं जब मैंने अपने काॅमर्स के प्रथम वर्ष की परीक्षा दी तो मुझे जी.एल.सी के प्रथम तल के कमरा नंबर 11 में सीट मिली थी। उस समय मैंने अपनी परीक्षा फस्र्ट क्लास से पास की थी। जबकि उस समय किसी को परीक्षा में फस्र्ट क्लास इतनी आसानी से नहीं मिलती थी। इसलिए जब मैं इंग्लैंड से वापिस आया तो मैंने जी.एल.सी में अॅप्लाई करने का निर्णय किया। मैंने अॅप्लाई भी किया,परंतु मुझे इस कालेज में लेक्चर देने का मौका उसके 19 साल बाद मिला। उस समय मैं कालेज की प्रिंसीपल अडवाणी से मिला था और उसने कहा था कि आप बैरिस्टर हो सकते है,परंतु हम इसको भारत में मान्यता नहीं देते है। आप वकील की किस्म के नहीं है। ऐसे में कैसे आपको पढ़ाने का मौका दिया जाए। इसके 19 साल बाद कालेज के कार्यकारी प्रिंसीपल डाक्टर वागहुले की तरफ से एक पिछले मानसून के दौरान टेलिफोन काॅल मेरे पास आई कि आप इंटरव्यू के लिए आ सकते है। उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि मैं उनके यहां पढ़ाना शुरू कर दूं। मैंने पूछा कब से? तो उन्होंने जबाब दिया कि कुछ घंटे में ही। तो मैने पूछा कि आप मुझसे क्या पढ़ाना पसंद करेंगे? तो उन्होंने कहा कि संवैधानिक लाॅ। इस तरह मैं यहां आ गया और मुझे इस पर कोई अफसोस नहीं है। इस कालेज के काॅरिडोर में आते-जाते समय मुझे बहुत खुशी महसूस होती है। मैं आपको एक मजेदार कहानी बताना चाहता हूं। जब से मैं बैरिस्टर बना हूं,मैने अपनी सानंद नहीं ली थी। इसलिए मैं आई.एल.एस लाॅ कालेज,पूने गया और वहां से एल.एल.बी की डिग्री की। मेरे प्रोफेशनल वर्क की वजह से मुझे लेक्चर लेने की जरूरत नहीं पड़ी। इसलिए जब मुझे सानंद मिली तो मैं साठ साल से ज्यादा का हो चुका था। इसलिए मेरी जज बनने की पहली अभिलाषा पूरी नहीं हो पाई क्योंकि मुझे मेरी सानंद इतनी लेट मिली थी।
लाइव लाॅ--कालेजों में उपस्थिति के लिए प्रैक्टिकली कोई दिशा-निर्देश नहीं है। ऐसे में आपके द्वारा प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस से सीखना कैसा रहा?
प्रोफेसर लाम--मेरा मानना है कि लाॅ एक ऐसा विषय है,जिसमें निश्चित तौर पर मूलभूत ज्ञान के साथ-साथ प्रैक्टिकल अनुभव होना भी जरूरी है। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि लीगल अकेडमिक,जो पीएचडी आदि करके टीचर का काम कर रहे हैं,उनको पार्ट-टाइम लाॅ में प्रैक्टिकल एक्सपीरियेंस लेना चाहिए। कई बार लेक्चर की तैयारी करते समय कई ऐसी परिस्थितियां आई,जिनमें मैैंने महसूस किया कि जब तक आपको प्रैक्टिकल ज्ञान नहीं है तो आप उन लेक्चर को ठीक से नहीं तैयार कर पाओगे। इसलिए मैं पूरी तरह छुट्टियों के दौरान छात्रों को इंटर्न करवाने के पक्ष में हूं। इतना ही नहीं सेमेस्टर के दौरान भी कालेज का समय ऐसा होना चाहिए कि छात्र इंटर्न कर पाए। जिस व्यक्ति को थ्योरी का पूरा ज्ञान है,उनको भी प्रैक्टिकल वल्र्ड में परेशानी महसूस करनी पड़ती है। जो छात्र सिर्फ आॅफिस में जाते है,वह ड्राफिटंग में अच्छे हो सकते है,परंतु हो सकता है उनको यह ना पता हो कि असल में प्रिंसीपल क्या है। इसलिए जी.एल.सी से छात्रों की होने वाली नियुक्ति अच्छी है,परंतु अन्य कालेजों के मुकाबले बहुत अच्छी नहीं है। जी.एल.सी में छात्रों की कम उपस्थिति मेरे लिए कए मैक्रो मुद्दा है क्योंकि यह अकेले छात्रों के कम इच्छाशक्ति पर आधारित नहीं है।
लाइव लाॅ--सर,आपकी मुम्बई में एक प्राइवेट लाॅ फर्म है,जो मेडिकल अनजस्टिस,एनीमल वेल्फेयर एंड गिरफतार और कैदियों के अधिकारों के मामलों को देखती है। क्या इस तरह की अपरंपरागत प्रैक्टिस एक आकर्षक काम है। कृप्या इसके बारे में और ज्यादा बताएं।
प्रोफेसर लाम--अफकोस कुछ सोसिको-लीगत मुद्दे है,जिनको मैंने हैंडल किया है। शुरूआत में मैंने क्रिमनल लाॅ व मैट्रिमोनियल लाॅ में प्रैक्टिस शुरू की थी। बाद में बिना किसी अफसोस के मैंने प्राॅपर्टी लाॅ में प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। परंतु फिर से मैंने फोकस लोगों की सेवा पर लगा दिया।मुझे यह कहने में कोई शर्म महसूस नहीं होती है कि मैंने अपनी जिदंगी में बहुत कम पैसा कमाया है और किसी तरह अपनी जीविका चला रहा हूं। मैंने एक साधारण जीवन जिया है। मेरे पास एक छोटी कार है। एक साधारण सा मोबाइल है। नो काॅफी-नो टेबल बुक व न ही कोई कार रेडियो। सबसे मजेदार बात ये है कि जब मैं लोगों को बताता हूं कि मैं एक वकील हूं तो वह पहली बात यह पूछते है कि आप किस कोर्ट में काम करते हो। उस समय मेरा जवाब होता है कि मैं कोर्ट के साथ नहीं बल्कि लोगों के साथ काम करता हूं। इसलिए जहां उनको जरूरत होती है मैं चला जाता हूं चाहे वह सेशन कोर्ट हो, दंडाधिकारी कोर्ट हो,सिटी सिविल कोर्ट हो,स्माल काॅज कोर्ट हो या जिला कोर्ट। जहां तक मेरी प्रैक्टिस की बात है तो यह बड़ी हो या छोटी,यह एक वन मैन शो है। वर्ली में मेरा एक आॅफिस था,परंतु बाद में मैने देखा काफी वकील घर से काम करते है। इसलिए मैने भी घर से काम शुरू कर दिया। मैं आपको अपने वैवाहिक मामलों के बारे में कुछ बताना चाहता हूं। वैवाहिक मामलों को सुलझवाना एक बहुत ही भावनात्मक काम है। कई महिलाएं अपनी समस्याओं को बताते समय फूट-फूट कर रोना शुरू कर देती है। मैं ऐसे दंपत्तियों को मिलवाने के लिए हर संभव प्रयास करता हूं बजाय कि उनको यह कहूं कि मेरे पास पांच लाख रूपए जमा करा दीजिए और अपने तलाक का केस शुरू कर दे। मैं कुछ दंपत्तियों को साथ रहने के लिए मनाने की कोशिश करता हूं और उनको बताता हूं कि तलाकशुदा लोग किस तरह अकेला महसूस करते है और जरूरी नहीं है कि दूसरी शादी भी अच्छी ही निकले। मैं ऐसे दंपत्तियों को कानून को उनके झगड़े में कम से कम शामिल करने की सलाह देता हूं। साथ ही बताता हूं कि जब भी कोई महिला बीच-बचाव के लिए पुलिस को बुलाती है तो वह अपनी शादीशुदा जिंदगी को कई साल पीछे धकेल देती है। कई बार मैं बच्चों से भी मिलता हूं और मुझसे कहते है कि उनके माता-पिता को एक साथ रहने के लिए मना लिया जाए।
जहां तक आपराधिक कानून की बात है तो इस मामले में भी मेरा दृष्टिकोण अलग है क्योंकि मैं आर्थिक अपराध के मामलों को नहीं देखता हूं। आपराधिक मामलों में मेरे लिए यह ही सबसे महत्वूपर्ण नहीं है कि आरोपी को सजा मिले,बल्कि यह बात भी सुनिश्चित हो सके कि पुलिस व जेल कर्मी ऐसे अपराधी या आरोपी के साथ कानून के अनुसार व्यवहार करें। अपराधियों के साथ अवैध बर्ताव जारी है। बल्कि यह एक कायदा बन गया है कि जैसे ही कोई आरोपी गिरफतार होने के बाद पुलिस स्टेशन पहुंचता है,तो पहले पुलिस उसकी पिटाई करती है। मैंने इस दिशा में काफी काम किया है,परंतु अभी भी यह एक बड़ी समस्या है। काफी सारे वकील इन बातों की परवाह भी नहीं करते है। मैंने पुलिस अधिकारियों से कहा कि जब भी कोई व्यक्ति कोई अपराध करता है,चाहे वह किसी भी तरह का हो,अगर उस पर पुलिस हाथ उठाती है या उसकी पिटाई करती है तो यह कानून के खिलाफ है। पुलिस ऐसा करके उस अपराधी से भी बड़ा अपराध कर रही है,परंतु उनको यह समझ नहीं आता है। इतना ही नहीं मैं यह भी देखने की कोशिश करता हूं कि क्या कोई ऐसा वाजिब वजह या परिस्थिति है,जिस कारण आरोपी ने वह अपराध किया है। मैं पूरी कोशिश करता हूं कि आरोपी कानून के साथ सहयोग करे। कई बार आरोपी के पक्ष में कोई वाजिब वजह या परिस्थिति होती है तो उसे सुझाव भी देता हूं कि वह अपना अपराध स्वीकार कर लें। अगर ऐसा नहीं है और किसी आरोपी ने कोई कड़ा अपराध किया है तो मेरी कोशिश होती है कि उसे कानून के अनुसार ही सजा मिले। अपराध तब तक होते रहेंगे,जब तक कानून को ठीक से लागू नहीं किया जाएगा और निचले तबके या गरीब को गलत तरीके से दबाया जाता रहेगा। इस तरह मैं गिरफतार लोगों व कैदियों के लिए काम करता हूं।
जहां तक जानवरों के कल्याण का मामला है तो मैं ब्लू क्रास के बारे में बताना चाहूंगा,जो एक बहुत तेज राइडर था। जो अपना घोड़ा रखता था,परंतु जब एक घोड़ा सेवाओं के लिहाज से बूढ़ा हो जाता था तो उसे मार देता था और नया ले आता था। हमें आशा है कि उसे हाॅर्स रेसिंग अॅथारिटी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे जो रेस में दौड़ने वाले घोड़ों को कोड़े मारने व उनकी ब्रांडिंग करने की अनुमति देती है। हम लोगों के खिलाफ भी केस करवाते है जो अपने कुतों या बिलियों से बुरा व्यवहार करते है और जानवरों पर गलत एक्सेरिमेंट करते है। मेडिकल वेल्फेयर में हमारा जिज्ञासा काफी महत्वपूर्ण है। जब कोई व्यक्ति अस्पताल में जाता है तो उसके पास लगभग अपने कोई अधिकार नहीं रहते है। हम यहां तीन मामलों का जिक्र करना चाहेंगे। एक व्यक्ति की सुनने की शक्ति बिल्कुल सही थी,परंतु उसने अपने सुनने की शक्ति जीवनभर के लिए खो दी क्योंकि उसे ऐसी कड़ी दवाई दे दी गई,जिसके काफी सारे साइड इफेक्ट थे। हम इस दिशा में काम कर रहे है ताकि अस्पताल अपनी जिम्मेदारी से बचे बिना लोगों का ठीक से इलाज कर सके। एल.एल.बी की डिग्री में ’मेडिसन एंड दाॅ लाॅ’ भी एक विकल्प है।
लाइव लाॅ--वर्ष 2008 में आपने सेशन कोर्ट को एक पत्र लिखकर अजमल कसाब की तरफ से पेश होने ही बात कही थी,जो 26/11 मुम्बई टेरर अटैक का मुख्य आरोपी था। किस वजह से आपने इतना बोल्ड स्टेप लिया?
प्रोफेसर लाम--संयोगवश वर्ष 2008 का साल शुरू होने के कुछ दिन बाद ही मैंने जी.एल.सी में लेक्चर देना शुरू किया था। वहीं साल पूरा होने के कुछ दिन पहले ही मैंने कसाब की तरफ से पेश होने के लिए अप्लाई किया था। जब 26/11 का हमला हुआ था,उस दिन इस घटना के बारे में मुझे रात को करीब दस बजे पता चला था। मैंने इस घटना को टीवी पर नहीं देखा। इस घटना के शुरूआत के कुछ सप्ताह तक मैंने कभी इस केस में अपने आप को शामिल करने का नहीं सोचा था। न ही मैने नरीमन हाउस की उस घटना के बारे में सुना जिसमें जेविस निवासियों को मार दिया गया था। तीस तारीख को रविवार की रात मैं अपनी कार से कोलाबा काजवे गया और उस सड़क पर गया,जहां यह इमारत बनी हुई थी। दिसम्बर के माह में मैने अखबार में पढ़ा कि एक या दो व्यक्ति जो कसाब की तरफ से पेश होना चाहते थे,उन्होंने अपने नाम वापिस ले लिए,ऐसा उन्होंने शिवसेना या अन्य के दबाव में किया था। 13 दिसम्बर को शनिवार के दिन मैं कार्यकारी प्रिंसीपल डाक्टर वागहुले से स्टाॅफ रूम में मिला और आधे-अधूरे दिल से उनको बताया कि अन्य वकीलों ने कसाब का केस लड़ने से इंकार कर दिया है। इसलिए मैं कसाब की तरफ से पेश होना चाहता हूं। जिस पर डाक्टर वागहुले ने कहा कि निश्चित तौर पर यह एक अच्छा विचार है। तुम क्यों नहीं कर सकते हो? उसके बाद वह मुझे सेशन कोर्ट लेकर गए और मुझे बताया कि इसके लिए मुझे कहां अर्जी दायर करनी है। सोमवार को मैने इसके लिए अप्लाई भी कर दिया। मैं इस मामले में डाक्टर वागहुले का दो बातों के लिए धन्यवाद करना चाहता हूं। उन्होंने मुझे जी.एल.सी में पढ़ाने का मौका दिया और वर्ष 2008 के अंत में मुझे हाई-प्रोफाइल केस में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। जहां तक बात है कि क्यूं मैने कसाब की तरफ से पेश होने का निर्णय लिया,तो यह फंडामेंटल लीगत मैक्सिम है कि हर आरोपी को मामले की सुनवाई करवाने का अधिकार है। वहीं मैं हमेशा कहता भी हूं,नो डिफेंस,नो ट्रायल,नो कंवीक्शन,नो संटेंस। हालांकि इस आरोपी को रंगे-हाथ पकड़ा गया था,इसलिए कुछ लोग अपनी भावनाओं में बहकर कह रहे थे कि उसे ट्रायल का मौका न दिया और सीधे सजा दी जाए। परंतु एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं हो सकता है। ऐसे आरोपी को भी कई कारणों से अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाना जरूरी है।
पहली बात तो यह है कि बेशक उसे रंगे-हाथों पकड़ा गया था,परंतु उसके आरोप को साबित करने का अधिकार कोर्ट के पास है और दूसरा उसके पक्ष में भी कुछ तथ्य हो सकते थे। इस घटना में शामिल आठ या नौ आतंकियों में कुछ मारे गए और कुछ भाग निकले। ऐसे में यह भी हो सकता है कि कसाब पर दबाव ड़ालकर उसे ऐसा करने के लिए कहा गया हो। उसे या उसके परिजनों को मारने की धमकी दी गई हो। इसलिए उसका पक्ष रखने के लिए एक बचाव पक्ष का वकील होना जरूरी था। वहीं अगर उसके बाद भी आरोपी को दोषी करार दे दिया जाता है तो उसका वकील उसके जीवन से जुड़े पुराने कुछ ऐसे तथ्य पेश कर सकता है,जिनको जज सजा सुनाते समय ध्यान में रख पाए। अंत में जैसी आशा थी कसाब को फांसी की सजा दी गई। उसके बाद भी मेरी कोशिश यह थी कि पुलिस व जेल वार्डन उसके साथ बुरा व्यवहार न करे। उसे उचित खाना व अन्य जरूरी वस्तुएं दी जाए। साथ ही अगर उसके परिजन उससे मिलना चाहे तो उसे उनके साथ मिलवाया जाए।
लाइव लाॅ--इस तरह के बोल्ड स्टप लेने के बाद आने वाली समस्याओं पर कैसे आप काबू पाते है। किस तरह की समस्याएं आपके सामने आई है?
प्रोफेसर लाम--सेशन कोर्ट के समक्ष जब मैने कसाब की तरफ से पेश होने के लिए अर्जी दायर की थी और टाईम्स आॅफ इंडिया को इसकी एक काॅपी दी थी,ठीक उसके एक दिन बाद मेरी खबर पेज नंबर दो पर छापी गई। जिसमें मेरी योजना व इच्छा के बारे में बताया गया। इस खबर के छपने के बाद कई चैनल पर मेरा इंटरव्यू चलाया गया। उसी दिन व अगले दिन मेरा घर लुटा हुआ सा हो गया। घर की घंटी बजती रही। मैने अपनी घरेलू नौकरानी से कहा कि वह बिना पहचान के किसी के लिए भी दरवाजा न खोले। जब उसने पूछताछ की तो उसे बताया कि एक टेलिग्राम आया है। इस कारण उसने दरवाजा खोल दिया और वह लोग मेरे घर में घुस गए। उन्होंने मेरे घर में काफी तोड़-फोड़ कर दी। उसके बाद मैने पुलिस को सूचित किया और उन्होने रिपोर्ट करने में काफी देर लगा दी। इस घटना के बाद मुझे छह सप्ताह तक पुलिस सुरक्षा दी गई। सौभाग्यवश जी.एल.सी स्टॅाफ व प्रिंसीपल से मुझे बहुत सहयोग मिला। कई अप्पर क्लास के लोग बहुत गुस्से में थे। कई बार मुझ पर हमले की कोशिश की गई और मैने यह सब झेला।
लाइव लाॅ--क्या आप कभी अजमल कसाब से मिले?
प्रोफेसर लाम--लगभग आधा दर्जन बार मैं कसाब से विशेष तौर पर लगाई गई सेशन कोर्ट,आर्थर रोड़ जेल में मिला। यह मुलाकातें अप्रैल 2009 से मई 2010,जिस दिन उसे फांसी दी गई थी,के बीच की अवधि में हुई थी।वह पूरी तरह पराजित एक नवयुवक,अकेला नजर आता था,जिसे देखभाल की जरूरत थी। सुनवाई के दौरान मैने कई बार उससे बातचीत की। मैं उससे हिंदू व उर्दू में बात करता था। इस दौरान उसे मिलने वाले खाने के बारे में बात की। उसने बताया कि इसी तरह का शाकाहारी खाना पाकिस्तान में भी मिलता है। वइ औसत तौर पर एक हिंदू जैसा लगता था। उसने बताया कि दोनों देशों के लोग एक जैसे है।
मार्च 2009 के आसपास श्रीमती अंजलि वागहमारे को उसका वकील नियुक्त किया गया। मुम्बई मिरर की एक रिपोर्ट के अनुसार इस महिला वकील ने 26/11 के हमले में लगे एक गवाह की तरफ से मुआवजे के लिए सिविल सूट भी दायर किया हुआ था। इस कारण एक विरोधाभास बन गया और सेशन कोर्ट में एक अर्जी दायर कर कहा गया कि अगर वागहमरे को कसाब की तरफ से पेश होना है तो उसे अपने आप को उस सिविल सूट से हटा लेना होगा। मेरी इस अर्जी पर विचार किया और जज ने निर्णय लिया कि श्रीमती वागहमरे कसाब की तरफ से पेश नही होगी। इसी दौरान मुझे उस वकील ने अपने साथ जोड़ लिया,जो इस मामले के तीसरे आरोपी साबुद्दीन की तरफ से पेश होता था। इस आरोपी पर उकसाने का आरोप था। मुझे कोर्ट में जाने के लिए पुलिस की तरफ से एक विशेष कार्ड मिला। इसी आरोपी ने मुझे बताया कि उसको कस्टडी में रखने वाले कर्मचारी समय-समय पर उसके हाथ माचिस की तिली से जला देते है।
लाइव लाॅ--प्रोफेसर लाम,क्या आप हमें उसे पत्र का विवरण बता सकते हैं जो कसाब को लिखा था?
प्रोफेसर लाम--मैने कसाब को दो पत्र लिखे थे,परंतु मुझे नहीं लगता कि उसे कोई पत्र मिला है। मैने यह पत्र एडीशनल कमीश्नर आॅफ पुलिस राकेश मारिया के जरिए भेजे थे। कसाब को अंग्रेजी नहीं आती थी,इसलिए मुझे कोई मिल गया,जिसने इन पत्रों का उर्दू में अनुवाद कर दिया। जिसके बाद उसके पास भिजवा दिए। मैने इन पत्र में लिखा था कि वह अपनी मर्जी का वकील चुन सकता है। अगर वह चाहे तो मैं उसकी तरफ से पेश हो सकता हूं। इतना ही नहीं उसे यह भी बताया कि वह चाहे तो अपने लिए पाकिस्तानी वकील भी चुन सकता है। मैने यह भी कहा था कि मैं उससे बात करके उसके पक्ष में कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य खोज सकता हूं। इतना ही नहीं अगर उसे सजा भी दे दी जाए तो भी न तो पुलिस कस्टडी में न ही जेल में उसके साथ बुरा व्यवहार किया जा सकता है। साथ ही मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उसके साथ ऐसा कभी न हो।
मैने उसे योगा व मेडिटेशन सीखने की भी सलाह दी और कहा कि वह जेल में उपलब्ध किताबें पढ़े और शाकाहारी खाने का लुप्त उठाए।
मैने यह भी सलाह दी कि अच्छे समय में वह इस बंटवारे के बारे में भी बात करे कि किस तरह यह बंटवारा गलत था। जनवरी माह के अंत में मेरे द्वारा लिखा गया एक पत्र मिरर के पहले पेज पर छपा था।
लाइव लाॅ--क्या पुलिस विभाग का रवैया सहयोग वाला था?
प्रोफेसर लाम--जो पुलिसकर्मी मेरी सुरक्षा में लगे थे वह फस्ट क्लास अधिकारी थे। हम उनको खाना,चाय-काॅफी व नारियल पानी देते थे। मैं उनको उनके लिए व उनके परिवार के लिए खरीददारी में भी मदद करता था। मिडल रैंक के अधिकारियों को आश्चर्य होता था कि मैं मैथ पढ़ाने जैसी अन्य तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं हू। वरिष्ठ अधिकारी इस बात से निराश थे कि मैने अपने इंटरव्यू में यह बात कही कि पुलिस अधिकारी व जज आदि को आॅल इंडिया बेस पर नियुक्त किया जाना चाहिए। अन्यथा महाराष्ट्र पुलिस व राजनीतिज्ञों में सांठ-गांठ बन जाती है। इससे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर गलत प्रभाव पड़ता है।
लाइव लाॅ--प्रोफेसर लाम,क्या आपने कभी ऐसा सुना कि कसाब की तरफ से पेश होने वाले अन्य किसी वकील या नियुक्त किए व्यक्ति को भी इस तरह की धमकी मिली हो?
प्रोफेसर लाम--इन वकीलों ने बताया था कि उनको काफी धमकी मिली,इसलिए उन्होने उसका केस छोड़ दिया। मैं अकेला था,जिसने त्यागपत्र नहीं दिया। जहां तक नियुक्त किए गए व्यक्ति की बात है तो एक मुस्लिम व्यक्ति थे मिस्टर काजी,वह एक उपयुक्त व्यक्ति था,परंतु जज ने उसे यह कहते हुए हटा दिया कि वह जज के साथ सहयोग नहीं कर रहा है। दूसरा वकील ऐसा था कि वह बस अपनी काम कर रहा था,उसने कोई मुद्दा या दलील नहीं दी। उसने इस तरह की कोई दलील नहीं दी कि कसाब पर किसी का दबाव भी हो सकता है,इसलिए उसने लोगो पर गोली चलाई।
लाइव लाॅ--क्या आपको लगता है कि कसाब के साथ न्याय किया गया था क्योंकि इस तरह की भ्रांति व बयान आए थे,जिनमें आरोप लगाया गया था कि अफजल गुरू को फांसी देना भारतीय लोकतंत्र पर दाग है?
प्रोफेसर लाम--अफजल गुरू पर षड्यंत्र रचने का आरोप था। इस तरह की परिस्थिति में यह असंभव नहीं है कि फांसी की सजा उसके लिए कड़ी सजा थी। जहां तक अफजल गुरू को फांसी देने की बात को भारतीय लोकतंत्र पर दाग किसी अन्य कारण से बताया जा रहा है। उसके मामले में चाहिए था कि उसे फांसी की सजा तब दी जाती,जब वह उम्रकैद की सजा के बराबर दिन जेल में बिता लेता। परंतु ऐसा नहीं किया गया। वहीं कोर्ट द्वारा अफजल को उसके परिजनों से न मिलने देना भी अमानवीय था। मैं व्यक्तिगत तौर पर फांसी की सजा के खिलाफ हूं। हमने क्रिमनल लाॅ में पढ़ा है कि सजा के पांच कार्य होते है-दंड,रोकथाम,निवारण,मुआवजा व सुधार। मैं सुधार में विश्वास करता हूं। अगर तुम्हारे विश्व की सभी सुख-सुविधाओं का मजा लेने का मौका है,परंतु तुमको छह महीने तक किसी फाइव-स्टार होटल के एक कमरे में रख दिया जाए,तो क्या तुम खुश रह पाओगे। यह अपने आप में एक बड़ी सजा हो जाएगी। अगर किसी मामले में किसी की आजादी छीन ली जाती है तो वह अपने आप में एक सजा है। इसी बीच क्यों नहीं आदमी व औरतों को धर्म के बारे में शिक्षित किया जाता है या ऐसा रास्ता खोजा जाए कि उनको शिक्षा दी जाए। उनको जेल में ही किसी खेल गतिविधि में शामिल किया जाए। उनको योगा व मेडिटेशन सीखाया जाए। हालांकि भारतीय कानून में फांसी की सजा का प्रावधान है। कसाब के मामले में परिस्थितियों के हिसाब से यह सजा दी गई है। उसके बावजूद उसके पास कई अधिकार थे,परंतु वह उनका उपयोग नहीं कर पाया। अगर उसकी इच्छा होती तो उसे पाकिस्तानी वकील नियुक्त करने की अनुमति मिलनी चाहिए थी। इतना ही नहीं किसी पाकिस्तानी वकील को भारतीय कोर्ट में पेश होने की अनुमति देने के लिए विशेष प्रावधान बनाए जा सकते थे। उसे मरने से पहले अपने किसी सगे-संबंधी से मिलने का चांस दिया जाना चाहिए था। पाकिस्तानी हाईकमीशन भी उसके वेल्फेयर के लिए कदम नहीं उठाए। जबकि फाॅरेन मिशन की यह ड्यूटी होती है कि वह विदेश की जमीन पर अपने नागरिकों के कल्याण के लिए काम करें,भले ही उसने कुछ भी अपराध किया हो। मैं समझ सकता हूं कि पाकिस्तानी हाईकमीशन की किसी भी गतिविधि को गलत लिया जाता और समझा जाता कि वह एक आतंकी की मदद कर रहे है। इस बात का भी कोई रिकार्ड नहीं है कि किसी वेल्फेयर वर्कर या सोशल बाॅडी ने कभी उससे मिलने की कोशिश की हो ताकि यह पता लग सके कि उसके साथ कानून के अनुसार व्यवहार किया जा रहा है या नहीं।
लाइव लाॅ--जब 26/11 जैसी आतंकी घटनाएं होती है तो आम जनता का गुस्सा फूट जाता है,जिससे न्यायपालिका पर काफी दबाव बनता है ताकि वह आरोपी के खिलाफ फैसला करें। आप क्या सोचते है कि जब इस तरह देशहित का कोई ऐसा मुद्दा आता है तो जज भी पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते है या इस तरह की घटनाओं में ऐसा करना संभव है?
प्रोफेसर लाम--मुझे लगता है कि आतंकी केसों के अलावा भी जज पक्षपातपूर्ण काम करते है। जहां भी संभव हो पुलिस व जज स्वभाविक तौर पर सजा देने वाले होते है। बहुत कम जज ऐसे हैं जो आरोपी की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखते है। परंतु ऐसा करने वाले काफी कम है। जब कोई जज कोर्ट में आता है तो सभी खड़े होते है। यह अपरंपरागत लगेगा,अगर मैं यह कहूं कि यह एक अलग ही तरीका है। वह कोर्ट में अपनी सेवाएं देने आता है,आदेश नहीं। यह फिर से सुलझ सकता है अगर हम अपने केसों की सुनवाई को जूरी में बदल दे,जो वर्ष 1959 में ही खत्म हो चुकी है।
लाइव लाॅ--सर,एक क्रिमनल वकील व एक लाॅ प्रोफेसर,जो अपनी लाॅ फर्म चलाता है,के तौर पर आपको कानून के सभी अंधेरों या दूसरे पहलुओं को अनुभव हो चुका होगा। इसलिए अपने अनुभव के बारे में हमें बताए। सबसे मजेदार क्या था और सबसे चुनौतीपूर्ण क्या?
प्रोफेसर लाम--मुझे लगता है कि सभी पहलू काफी मजेदार व चुनौतीपूर्ण है,परंतु बतौर शिक्षक मैंने ज्यादा इंज्वाय किया क्योंकि इस प्रोफेशन ने मुझे मौका दिया कि कानून में शामिल लाॅजिक व पब्लिक पाॅलिसी महत्व दे सकूं और छात्रों को कानून व न्याय के तत्वों के संबंध में प्रोत्साहित कर सकूं। हर साल जब मैं लेक्चर तैयार करता हूं तो मुझे मौका मिलता है कि मैं अच्छा कानूनी शैक्षणिक व एक अच्छा शिक्षक बन सकूं। जहां तक प्रैक्टिस की बात है तो उसकी एक पहलू काफी मजेदार है और दूसरा हत्तोसाहित करने वाला। कानून के मामले में जब आप जीवन के हर पहलू (जैसे उद्योग,रेस्टोरेंट,परिवहन,बीमा, अपराध व शादी आदि ) से डील करते हो तो आप बहुत सारे लोगों से मिलते हो और काफी परिस्थितियों का सामना करते हो। आपको अपने मुविक्कलों,उनकी समस्याओं,अन्य वकीलों को जानने का मौका मिलता है,जो काफी अच्छा लगता है। लीगल सिस्टम में फैला भ्रष्टाचार,जिसमें वकील अपने मुविक्कलों का शोषण करते है,आपको काफी हत्तोसाहित करता है। जहां तक जी.एल.सी की बात है तो हम छात्रों के अनुपस्थित रहने की बात करते है या मुझे कहते हुए दुख हो रहा है कि लेक्चरार भी अनुपस्थित रहते है। यह दोनों बाते इतनी बड़ी नहीं है,जितनी बड़ी बात है कि जज भी अनुपस्थित रहते है और मामलों में तारीखें लगा दी जाती है। उदाहरण के तौर पर एक छोटे मामलों की सुनवाई करने वाली कोर्ट को देखे,दोपहर को ढ़ाई बजे से साढ़े पांच बजे तक एक वकील के पास छह मामले हो सकते है,परंतु जज कोर्ट में ना बैठे। ऐसे में क्यों नहीं उसकी जगह दूसरा जज बैठाया जाना चाहिए। ऐसे में अपने मामलों की सुनवाई के लिए आया वकील क्या करें। उस दिन वह अपने मुविक्कल के लिए कुछ काम नहीं कर पाएगा। ऐसे में उसे अपने मुविक्कल के पास बिल नहीं भेेजना चाहिए। जबकि उसने अपने मुविक्कल के लिए तीन घंटे का समय निकाला था। इसलिए वह अपनी फीस का बिल भेज देता है,जबकि असल में उसने उस दिन कोई काम नहीं किया। मुविक्कल हो यह पता ही नहीं चलता है कि आज उसके वकील ने उसके लिए कुछ नहीं किया। यह प्रैक्टिस का एक दूसरा निराशाजनक पहलू है। कई सारे ऐसे मामले भी होते है,जहां वकील जज पर दबाव ड़ालकर केस में तारीख लगवा देते है।
लाइव लाॅ--देश के छात्रों व अन्य वकीलों का आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
प्रोफेसर लाम--छात्रों के लिए मेरा संदेश यह है कि वह अपने पूरे जीवन के लिए प्रोफेशनल लाॅयर बनना चाहते हो या ना चाहते हो,उनको अपनी प्रैक्टिस के पहले पांच साल किसी साॅलिसिटर फर्म या वकील के साथ लगाने चाहिए। उसके बाद वह यह निर्णय कर सकते है कि उनको फर्म में नाॅन-प्रैक्टिसिंग लाॅयर बनना है या उससे बाहर चले जाना है और एक एक्ज्यूक्टिव बनना है या फिर अपना बिजनेस शुरू करना है। उस समय वह ऐसा करने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाएंगे क्योंकि लाॅ प्रैक्टिकल तौर पर जीवन के हर पहलू जैसे रेस्टोरेंट,फैक्टरी,शादी व अपराध आदि से डील करता है।
दूसरा छात्रों को अपनी छुट्टियों के दौरान फुल-टाइम इंटरर्नशीप और अपनी कक्षाओं के दौरान पार्ट-टाइम इंटर्नशीप करनी चाहिए। अपनी ग्रेजुएशन करने व बार की परीक्षा पास करने के बाद उनको आर्टिकल्ड क्लर्क के तौर पर नामांकन करवाना चाहिए ताकि साॅलिसीटर बन जाए और लाॅ सोसायटी की परीक्षा पास कर ले।
अगर वह प्रोफेशनल साॅलिसीटर नहीं बनना चाहते है तो भी उनको इस कोर्स का पालन करना चाहिए ताकि उनको अनुभव मिल सके। यह अनुभव काफी महत्वपूर्ण है और वह उनको लाखों छात्रों से अलग बना देगा,जो साॅलिसीटर के तौर पर क्वालिफाई नहीं करते है। पांच पेपरों की परीक्षा का एक सैट होता है,जिसमें हर वह पहलू कवर होता है,जिसकी उनको जानने की जरूरत है। भारत में लाॅ की अकेली इसी परीक्षा का ऐसा सैट है,जो सचमुच अच्छे स्तर का है। कोई इस बात पर विश्वास नहीं करेगा कि वर्ष 1960 में एक समय ऐसा था,जब इस परीक्षा को पास करने की दर जीरो थी।
जहां तक साथी वकीलों (हंसते हुए)को सलाह देने की बात है तो मैने अपने जीवन में बहुत कम पैसा कमाया है और एक साधारण जीवन जिया है। कुछ वकील ऐसे है जो प्रतिदिन एक लाख रूपए कमाते है बल्कि प्रति घंटे के भी लाख रूपए कमाते है। मैं चाहता हूं कि वह बताए कि वह अपने बोझिल स्रोत के साथ क्या करते है। मुझे लगता है कि वह यहां खुश होंगे और बाद में भी,अगर वह अपना समय न्याय व विचारों की आजादी को प्रमोट करने में लगाए। साथ ही संविधान में समय-समय पर संशोधन करे ताकि अपने उद्देश्य के लिए काम कर सके। साथ ही किसी ऐसी अवैध पाॅवर पर रोक लगा सके,जो कार्यकारी अन्याय करके ले लेते है।