राज्य तीन दशकों तक सेवा देने वाले कर्मचारी को पेंशन लाभ से वंचित करके अपने स्वयं के गलत काम का लाभ नहीं उठा सकता: उत्तराखंड हाइकोर्ट

Amir Ahmad

4 April 2024 11:01 AM GMT

  • राज्य तीन दशकों तक सेवा देने वाले कर्मचारी को पेंशन लाभ से वंचित करके अपने स्वयं के गलत काम का लाभ नहीं उठा सकता: उत्तराखंड हाइकोर्ट

    उत्तराखंड हाइकोर्ट चीफ जस्टिस रितु बाहरी और जस्टिस राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने उत्तराखंड राज्य और अन्य बनाम प्रकाश चंद्र हरबोला और अन्य के मामले में विशेष अपील का फैसला करते हुए कहा कि राज्य को लगभग तीन दशकों तक निरंतर सेवा देने वाले कर्मचारी को पेंशन लाभ से वंचित करके अपने स्वयं के गलत काम का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कल्याणकारी राज्य के रूप में, राज्य को ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए।

    मामले की पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता (प्रतिवादी) को वर्ष 1982 में नगर पालिका द्वाराहाट जिला अल्मोड़ा में लिपिक के पद पर नियुक्त किया गया। लिपिक का पद सृजित न होने के कारण कुछ समय बाद याचिकाकर्ता की सेवाएं समाप्त हो गईं। याचिकाकर्ता ने अपनी सेवा में पुनः बहाली के लिए अधिकारियों से संपर्क किया और तत्पश्चात शासनादेश द्वारा याचिकाकर्ता को नवसृजित लिपिक के पद पर नियुक्त करने के निर्देश जारी किए गए।

    इसके अनुपालन में जिला मजिस्ट्रेट चमोली ने याचिकाकर्ता को नियमित एवं मौलिक आधार पर अधिसूचित क्षेत्र समिति कर्णप्रयाग में लिपिक के पद पर नियुक्त किया। बाद में राज्य सरकार ने पिछले सचिव के ट्रांसफर के कारण याचिकाकर्ता को सचिव के पद पर नियुक्त किया। वर्ष 1994 के संशोधन अधिनियम के आधार पर नगर पालिका अधिनियम में सचिव के पद का नामकरण अधिशासी अधिकारी किया गया।

    वर्ष 2000 में राज्य के विभाजन के पश्चात याचिकाकर्ता को कार्यकारी अधिकारी के रूप में उत्तराखंड राज्य में आवंटित किया गया। वर्ष 2006 में प्रतिवादी नंबर 1 ने ट्रांसफर आदेश पारित किया तथा याचिकाकर्ता को क्लर्क के मूल पद पर वापस कर दिया।

    इससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने रिट याचिका प्रस्तुत की, जिसे स्वीकार कर लिया गया तथा प्रतिवादी नंबर 1 के आदेश को निरस्त कर दिया गया। साथ ही याचिकाकर्ता को सभी परिणामी लाभों के साथ अधिशासी अधिकारी के पद पर बहाल करने का निर्देश दिया गया।

    याचिकाकर्ता को सेवानिवृत्ति के पश्चात कोई सेवानिवृत्ति बकाया नहीं दिए जाने पर उसने अन्य रिट याचिका प्रस्तुत की, जिसमें प्रतिवादियों को निर्देश दिया गया कि वे सेवानिवृत्ति की तिथि से पेंशन तथा ग्रेच्युटी, ब्याज सहित, संपूर्ण पेंशन बकाया सहित प्रदान करें।

    साथ ही प्रतिवादियों को निर्देश दिया गया कि वे याचिकाकर्ता के अभ्यावेदन पर तर्कपूर्ण आदेश द्वारा निर्णय लें लेकिन प्रतिवादियों द्वारा याचिकाकर्ता का अभ्यावेदन अस्वीकार कर दिया गया। इससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता द्वारा अन्य रिट याचिका प्रस्तुत की गई। सिंगल जज ने मामले के सभी पहलुओं, जिसमें उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय का नियम 31 भी शामिल है, पर विचार करने के पश्चात रिट याचिका स्वीकार कर ली।

    नगर क्षेत्र और अधिसूचित क्षेत्र समितियां (केंद्रीकृत) सेवा नियम, 1976 (1976 नियम) के तहत दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सचिव के रूप में प्रारंभिक तदर्थ नियुक्ति की तिथि से याचिकाकर्ता को सेवा लाभ से वंचित करना किसी तर्क पर आधारित नहीं है। इसलिए याचिकाकर्ता को सभी पेंशन लाभ प्रदान किए जाने चाहिए। इससे व्यथित होकर राज्य (अपीलकर्ता) ने सिंगल जज द्वारा पारित विवादित आदेशों को चुनौती देते हुए उक्त विशेष अपील दायर की।

    न्यायालय के निष्कर्ष

    न्यायालय ने पाया कि सिंगल जज द्वारा दिए गए निर्णय में कोई अवैधता और दुर्बलता नहीं है। न्यायालय ने गुजरात राज्य और अन्य बनाम तलसीभाई धनजीभाई पटेल के मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्य को अपने स्वयं के गलत काम का लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि लगभग 30 वर्षों की निरंतर सेवा करने वाले कर्मचारी को पेंशन लाभ से वंचित करना अनुचित है। कल्याणकारी राज्य के रूप में राज्य को ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए।

    न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य द्वारा बिना किसी आधार के तथा अभिलेखों को देखे बिना ही उक्त अपील प्रस्तुत की गई। इसलिए न्यायालय ने माना कि इस प्रकार की अपील दायर करना पूरी तरह से विधि प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इसलिए राज्य सरकार पर 50,000/ रुपए का जुर्माना लगाया गया, जिसे प्रतिवादी को एक माह के भीतर अदा करना होगा।

    उपर्युक्त टिप्पणियों के साथ विशेष अपील खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल- उत्तराखंड राज्य एवं अन्य बनाम प्रकाश चंद्र हरबोला एवं अन्य

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