आरोपों में नफरत भरी हुई है, एक दशक पहले ही शादी पूरी तरह टूट चुकी है: उड़ीसा हाईकोर्ट ने जोड़े को तलाक की अनुमति दी

Amir Ahmad

19 March 2025 7:50 AM

  • आरोपों में नफरत भरी हुई है, एक दशक पहले ही शादी पूरी तरह टूट चुकी है: उड़ीसा हाईकोर्ट ने जोड़े को तलाक की अनुमति दी

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-b) के तहत परित्याग के आधार पर जोड़े को तलाक की अनुमति दी। साथ ही यह भी कहा कि पिछले एक दशक से भी अधिक समय से यह जोड़ा एक-दूसरे के खिलाफ नफरत भरे आरोप लगा रहा है और शादी पूरी तरह टूट चुकी है।

    पति-पत्नी के बीच गंभीर वैवाहिक मतभेदों को उजागर करते हुए जस्टिस बिभु प्रसाद राउत्रे और जस्टिस चित्तरंजन दाश की खंडपीठ ने कहा,

    “पिछले 12 वर्षों के दौरान किसी भी पक्ष द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इसलिए उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे के खिलाफ घृणा से भरे आरोपों के साथ हम पाते हैं कि पिछले एक दशक से विवाह पूरी तरह से टूट चुका है। इसलिए हम हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) (आईबी) के तहत परित्याग के आधार पर विवाह को भंग करके तलाक की डिक्री देना उचित समझते हैं।”

    मामला

    दोनों पक्षों के बीच विवाह 03 मार्च 2013 को हुआ था। विवाह के कुछ महीनों के भीतर ही दंपत्ति के बीच कड़वाहट शुरू हो गई और वे आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे। यह भी आरोप लगाया गया कि विवाह कभी संपन्न नहीं हुआ। माना जाता है कि पति-पत्नी 21 दिसंबर 2013 से अलग-अलग रह रहे थे। पत्नी ने पति और अन्य ससुराल वालों के खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज कराया था।

    पति ने तलाक के लिए जज, फैमिली कोर्ट, ढेंकनाल के समक्ष याचिका दायर की। हालांकि 29 नवंबर, 2017 के फैसले में कोर्ट ने तलाक देने से इनकार कर दिया। फैसले से असंतुष्ट पति ने हाईकोर्ट के समक्ष यह वैवाहिक अपील दायर की।

    कोर्ट की टिप्पणियां

    कोर्ट ने अधिनियम की धारा 13(1)(i-b) की जांच की, जिसमें प्रावधान है कि पति या पत्नी द्वारा प्रस्तुत याचिका पर इस आधार पर तलाक के आदेश द्वारा कोई भी विवाह भंग किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष ने याचिका प्रस्तुत करने से ठीक पहले कम से कम दो साल की निरंतर अवधि के लिए याचिकाकर्ता को छोड़ दिया।

    उन्होंने के. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए. दीपा (2013) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों का भी उल्लेख किया, जिसमें निम्न प्रकार से कहा गया था -

    विवाह का अपूरणीय रूप से टूटना हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक का आधार नहीं है। लेकिन, जहां पति या पत्नी या दोनों के कृत्यों द्वारा उत्पन्न कड़वाहट के कारण विवाह की मरम्मत नहीं की जा सकती, वहां न्यायालयों ने हमेशा विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने को वैवाहिक बंधन को तोड़ने की आवश्यकता वाली अन्य परिस्थितियों के बीच बहुत ही महत्वपूर्ण परिस्थिति के रूप में लिया है। एक विवाह जो सभी उद्देश्यों के लिए समाप्त हो चुका है, उसे न्यायालय के फैसले से पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है, यदि पक्षकार इच्छुक नहीं हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विवाह में मानवीय भावनाएं और भावनाएं शामिल होती हैं। यदि वे सूख जाती हैं तो न्यायालय के आदेश द्वारा बनाए गए कृत्रिम पुनर्मिलन के कारण उनके फिर से जीवित होने की शायद ही कोई संभावना होती है।”

    वैधानिक प्रावधान के साथ-साथ उपरोक्त मिसाल को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने इस तथ्य को ध्यान में रखा कि पत्नी ने 2013 से पति को छोड़ दिया है। उसके बाद दोनों कभी साथ नहीं रहे। न्यायालय ने आगे कहा कि पिछले 12 वर्षों के दौरान, दोनों में से किसी ने भी विवाद को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया।

    इसके अलावा, न्यायालय ने एक-दूसरे के खिलाफ घृणा से भरे आरोप-प्रत्यारोप लगाने में पक्षों के लगातार आचरण पर भी विचार किया, जो विवाह के अपूरणीय विघटन का संकेत देता है।

    इसलिए न्यायालय ने युगल को विवाह के बंधन से मुक्त करना उचित समझा, जहां वैवाहिक संबंध अब मौजूद नहीं हैं। तदनुसार, न्यायालय ने अधिनियम की धारा 13(1)(i-b) के तहत पत्नी के परित्याग के आधार पर पति के पक्ष में तलाक दे दिया।

    हालांकि पत्नी की ओर से पेश सीनियर वकील ने 30 लाख रुपये के स्थायी गुजारा भत्ते का दावा किया, लेकिन अपीलकर्ता-पति के वकील ने इसका कड़ा विरोध किया। इस प्रकार, पति की आय, दोनों पक्षों के जीवन स्तर और पत्नी की वित्तीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता के रूप में 18 लाख रुपये की राशि प्रदान की।

    केस टाइटल: बीआरपी बनाम एसपी

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