उर्दू भारतीय भाषा है, किसी धर्म से जुड़ी हुई नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने उर्दू साइनबोर्ड को दी मंजूरी
Amir Ahmad
16 April 2025 12:13 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को महाराष्ट्र की नगरपालिका परिषद द्वारा साइनबोर्ड पर उर्दू के उपयोग को सही ठहराते हुए कहा कि उर्दू और मराठी को संविधान के तहत समान दर्जा प्राप्त है और यह दावा कि केवल मराठी का ही उपयोग किया जाना चाहिए, यह अस्वीकार्य है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने पूर्व पार्षद वर्षाताई संजय बगड़े द्वारा दाखिल याचिका खारिज की, जिसमें पाटूर नगरपालिका परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू के उपयोग को चुनौती दी गई थी।
गौरतलब है कि कोर्ट ने अफसोस जताया कि भारतीय मूल की होने के बावजूद उर्दू को मुसलमानों से जोड़ा गया, जो सच्चाई से दूर है।
कोर्ट ने इस विभाजन के लिए औपनिवेशिक शक्तियों को जिम्मेदार ठहराया, जिन्होंने हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों से जोड़ दिया। यही नहीं कोर्ट ने यह भी कहा कि औपनिवेशिक शक्तियों ने हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में बांटकर भाषाई एकता को तोड़ने का भी काम किया है।
कोर्ट ने कहा,
“यह अवसर उर्दू के उत्थान और पतन पर विस्तृत चर्चा का नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि हिंदी और उर्दू का जो मेल था वह दोनों पक्षों के शुद्धतावादियों की वजह से टूट गया और एक को संस्कृतनिष्ठ तो दूसरी को फ़ारसीनिष्ठ बना दिया गया। यह विभाजन औपनिवेशिक सत्ता द्वारा धर्म के आधार पर भाषाओं को बांटने का षड्यंत्र था।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उर्दू भी हिंदी और मराठी की तरह एक हिंद-आर्य भाषा है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई। यह विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के लोगों के बीच संवाद की जरूरत से उत्पन्न हुई और शताब्दियों तक विकसित होकर समृद्ध साहित्यिक भाषा बनी।
बगड़े की यह दलील थी कि महाराष्ट्र लोक प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 के तहत उर्दू का प्रयोग वैध नहीं है, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया।
कोर्ट ने कहा कि इस अधिनियम में उर्दू के उपयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं है और याचिका भाषा और कानून की गलत समझ पर आधारित थी।
कोर्ट ने यह भी ध्यान दिलाया कि पाटूर नगर परिषद 1956 से उर्दू का प्रयोग कर रही है और यह क्षेत्रीय जनता द्वारा व्यापक रूप से समझी जाती है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह याचिका एक पार्षद द्वारा दाखिल की गई, जबकि कानून के अनुसार आपत्ति केवल नगर परिषद के मुख्य अधिकारी द्वारा ही दर्ज कराई जा सकती है।
फैसले में कोर्ट ने कहा,
“भाषा लोगों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है जो विविध मान्यताओं और दृष्टिकोणों के बीच सेतु का कार्य करती है। यह किसी प्रकार का धार्मिक या राजनीतिक विवाद नहीं होना चाहिए। यदि नगर परिषद क्षेत्र में रहने वाले लोग उर्दू समझते हैं तो आधिकारिक भाषा मराठी के साथ उर्दू का भी उपयोग साइनबोर्ड पर किया जा सकता है।”
कोर्ट ने इस तर्क को भी खारिज किया कि उर्दू कोई विदेशी या धार्मिक भाषा है। कोर्ट ने जोर दिया कि भाषा धर्म नहीं होती, बल्कि यह समुदाय, क्षेत्र और संस्कृति से जुड़ी होती है।
कोर्ट ने इसके आगे कहा,
“हमें यह समझ स्पष्ट करनी चाहिए कि भाषा धर्म नहीं होती। यह किसी धर्म की प्रतिनिधि नहीं होती, बल्कि यह लोगों, समुदायों और संस्कृतियों की धरोहर होती है। उर्दू इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जो भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदुस्तानी संस्कृति की सबसे बेहतरीन मिसाल है।”
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि भारतीय न्याय व्यवस्था में उर्दू का व्यापक प्रभाव है – जैसे अदालत, हलफनामा, पेशी आदि शब्दों का इस्तेमाल दैनिक न्यायिक भाषा में होता है।
अंत में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मराठी के साथ उर्दू का उपयोग किसी भी संवैधानिक या वैधानिक प्रावधान का उल्लंघन नहीं है और भाषाई विविधता के प्रति खुले और ईमानदार दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया।
कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा,
“हमें अपनी गलतफहमियों और पूर्वाग्रहों को ईमानदारी से परखना होगा। हमारी विविधता ही हमारी ताकत है। चलिए उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करें।”