कथित घटना के 34 साल बाद एफआईआर दर्ज करने पर सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार का मामला रद्द किया

Shahadat

15 Jan 2024 6:01 AM GMT

  • कथित घटना के 34 साल बाद एफआईआर दर्ज करने पर सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार का मामला रद्द किया

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में नाबालिग से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही यह कहते हुए रद्द कर दी कि एफआईआर 34 साल के अंतराल के बाद दर्ज की गई। वह भी केवल इस बयान पर कि अपराध के समय पीड़िता नाबालिग थी।

    कोर्ट ने कहा,

    “हमने पाया कि 34 साल बाद मामला दर्ज करना और वह भी इस बयान के आधार पर कि अपराध के समय पीड़िता नाबालिग थी, कार्यवाही रद्द करने का आधार हो सकता है।

    जस्टिस बीआर गवई और संदीप मेहता की खंडपीठ ने कहा,

    एफआईआर में इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि अभियोजक 34 साल की लंबी अवधि तक चुप क्यों था।

    फैसले पर पहुंचने में बेंच ने आगे विचार किया कि अभियोजक और अपीलकर्ता के बीच रिश्ते से पैदा हुए बेटे को अपीलकर्ता ने अपने बेटे के रूप में माना और नकद धन सहित सभी सुविधाएं उसे दी गई थीं।

    अदालत ने कहा,

    इससे पता चलता है कि संबंध सहमति से बने थे।

    यह मामला 2016 में पीड़िता द्वारा दी गई शिकायत से संबंधित था, जिसमें आरोप लगाया गया कि जब वह 15 वर्ष की थी तो अपीलकर्ता ने उसके साथ बलात्कार किया था और 1983 में रिश्ते से बेटे का जन्म हुआ था।

    जांच पूरी होने के बाद फाइनल रिपोर्ट दायर की गई, जिसमें जांच अधिकारी ने उल्लेख किया कि अपीलकर्ता को अभियोजक के बेटे का जैविक पिता पाया गया। यह भी उल्लेख किया गया कि अपीलकर्ता ने अपने बेटे को नकद धन और अन्य सुविधाएं दी थीं। हालांकि, उसकी संपत्ति के लालच के कारण अभियोजक और उसके बेटे ने 34 साल बाद एफआईआर दर्ज की।

    संबंधित मजिस्ट्रेट ने फाइनल रिपोर्ट खारिज कर दी और निर्देश दिया कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संज्ञान लिया जाए। व्यथित होकर अपीलकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट का रुख किया, लेकिन राहत से इनकार कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दलील दी कि एफआईआर उन्हें ब्लैकमेल करने के लिए दर्ज की गई और यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

    रिकॉर्ड देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि अभियोजक के बेटे द्वारा दिए गए बयान में यह स्वीकार किया गया कि अपीलकर्ता उसे नकद धन और अन्य सुविधाएं प्रदान कर रहा था।

    यह माना गया कि मजिस्ट्रेट जांच अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं था। हालांकि, इसे अस्वीकार करने के कारण बताए जाने चाहिए।

    कोर्ट ने कहा,

    “मजिस्ट्रेट आईओ के निष्कर्ष से असहमत हैं तो उनसे कम से कम यह उम्मीद की जाती है कि वह कारण बताएं कि वह ऐसी रिपोर्ट से असहमत क्यों हैं। प्रस्तुत निगेटिव रिपोर्ट के बावजूद आईओ द्वारा संज्ञान लेना क्यों आवश्यक समझते हैं।"

    हरियाणा राज्य और अन्य बनाम भजन लाल और अन्य का हवाला देते हुए बेंच ने आगे कहा कि हालांकि आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की शक्ति का प्रयोग संयम से किया जाना चाहिए, वर्तमान मामला श्रेणी 5 (स्वाभाविक रूप से असंभव आरोप) और 7 (दुर्भावना की उपस्थिति) के फैसले के अंतर्गत आता है। इसमें कहा गया कि जांच अधिकारी का यह निष्कर्ष कि एफआईआर केवल अपीलकर्ता की संपत्ति के लालच में दर्ज की गई, गलत नहीं कहा जा सकता।

    इस निष्कर्ष पर पहुंचकर कि कार्यवाही जारी रखने से कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा और कुछ नहीं होगा, हाईकोर्ट और मजिस्ट्रेट के आदेश रद्द कर दिए गए।

    अपीयरेंस: एडवोकेट इबाद मुश्ताक (अपीलकर्ता के लिए); एडवोकेट दीक्षा राय (राज्य के लिए); एडवोकेट एस जननी (अभियोजन पक्ष/वास्तविक शिकायतकर्ता के लिए)

    केस टाइटल: सुरेश गरोडिया बनाम असम राज्य और अन्य, आपराधिक अपील संख्या 185/2024

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