केरल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट्स एक्ट को चुनौती देने वाली निजी अस्पतालों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का नोटिस, अंतरिम संरक्षण प्रदान

Amir Ahmad

16 Dec 2025 4:20 PM IST

  • केरल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट्स एक्ट को चुनौती देने वाली निजी अस्पतालों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का नोटिस, अंतरिम संरक्षण प्रदान

    सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार 16 दिसंबर को केरल प्राइवेट हॉस्पिटल्स एसोसिएशन द्वारा दायर याचिका पर नोटिस जारी किया, जिसमें केरल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट्स (रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन) एक्ट 2018 और उसके तहत बनाए गए नियमों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई।

    सुप्रीम कोर्ट ने अगली सुनवाई तक याचिकाकर्ताओं के खिलाफ किसी भी प्रकार की दमनात्मक कार्रवाई न करने का निर्देश देते हुए अंतरिम संरक्षण भी प्रदान किया।

    यह मामला जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ के समक्ष आया।

    याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने अधिवक्ता-ऑन-रिकॉर्ड जुल्फिकार अली पी.एस. के साथ अदालत के समक्ष दलीलें पेश कीं।

    उन्होंने स्पष्ट किया कि निजी अस्पताल जीवनरक्षक उपचार देने के दायित्व का विरोध नहीं कर रहे हैं और न ही इस बात से असहमति है कि आपात स्थिति में पैसे या दस्तावेजों के अभाव में इलाज से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि उन्होंने कहा कि एक्ट के कई प्रावधान अस्पष्ट अव्यावहारिक और मनमाने प्रवर्तन के लिए खुले हुए हैं।

    याचिका में विशेष रूप से एक्ट की धारा 39 को चुनौती दी गई, जिसके तहत प्रत्येक क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट को अपनी सभी सेवाओं की 'फीस दर' और पैकेज दर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना अनिवार्य है।

    याचिकाकर्ताओं का कहना है कि कानून में फीस दर 'पैकेज दर' और यहां तक कि सेवा के प्रकार जैसी महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियों को परिभाषित ही नहीं किया गया। ऐसे में अस्पतालों और क्लीनिकों को मनमाने ढंग से कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।

    उनका तर्क है कि चिकित्सा उपचार स्वभाव से ही रोगी-विशेष पर निर्भर और गतिशील होता है, जिससे पहले से सभी सेवाओं की विस्तृत कीमतें तय करना व्यावसायिक रूप से दमनकारी और संरचनात्मक रूप से असंभव है।

    याचिका के माध्यम से केरल हाईकोर्ट के उस फैसले को भी चुनौती दी गई है जिसमें एक्ट को बरकरार रखते हुए निजी अस्पतालों को कई अतिरिक्त निर्देश दिए गए।

    हाईकोर्ट ने कहा था कि अस्पताल अग्रिम भुगतान या दस्तावेजों के अभाव में जीवनरक्षक उपचार से इनकार नहीं कर सकते और प्रत्येक क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट को 30 दिनों के भीतर एक्ट के अनुपालन का शपथपत्र दाखिल करना होगा, जिसके बाद ऑडिट और समय-समय पर निरीक्षण किया जाएगा। गैर-अनुपालन की स्थिति में नियामक कार्रवाई की चेतावनी भी दी गई।

    सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह भी बताया गया कि एक्ट के तहत अस्थायी पंजीकरण की अवधि समाप्त हो चुकी है। अब अस्पतालों को धारा 19 के तहत स्थायी पंजीकरण के लिए आवेदन करना होगा, जिसके लिए सभी प्रावधानों का अनुपालन आवश्यक है।

    इस पृष्ठभूमि में याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए अंतरिम संरक्षण को जारी रखने का अनुरोध किया।

    अदालत ने इस मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से भी सहयोग मांगा। वहीं एक मानवाधिकार संगठन की ओर से पेश अधिवक्ता सिद्धार्थ गुप्ता ने अंतरिम राहत का विरोध करते हुए दलील दी कि पिछले लगभग सात वर्षों से याचिकाकर्ताओं के कारण कानून का प्रभावी क्रियान्वयन बाधित हो रहा है और एक्ट के संचालन पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए।

    सभी पक्षों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी करते हुए मामले की अगली सुनवाई 3 फरवरी 2026 के लिए तय की। अदालत ने यह दर्ज किया कि इसी प्रकार का अंतरिम संरक्षण केरल हाईकोर्ट द्वारा भी दिया गया था।

    पीठ ने निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता संघों के सदस्य धारा 19 के तहत स्थायी पंजीकरण की प्रक्रिया जारी रखेंगे और इस दौरान उनके खिलाफ कोई दमनात्मक कदम नहीं उठाया जाएगा। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह अंतरिम आदेश 3 फरवरी तक सीमित रहेगा।

    याचिका में एक्ट की धारा 16, 39 और 47 को भी चुनौती दी गई है। धारा 47 के तहत सभी क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट्स को जीवनरक्षक उपचार देने और आपात स्थिति में मरीजों के सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा गया।

    याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह प्रावधान सभी संस्थानों पर समान रूप से लागू होता है, चाहे वह एक बड़े तृतीयक अस्पताल हों या एकल डॉक्टर द्वारा संचालित छोटा क्लिनिक, जिससे यह अनुचित और असमान हो जाता है।

    उनका आरोप है कि हाईकोर्ट ने संवैधानिक जांच करने के बजाय कार्यकारी अधिसूचनाओं के माध्यम से कानून में एक प्रकार की स्तरीय व्यवस्था पढ़ दी।

    इसके अतिरिक्त, याचिका में निजता के अधिकार से जुड़ी चिंताओं को भी उठाया गया है। नियमों के तहत डॉक्टरों, नर्सों और अन्य कर्मचारियों के विस्तृत व्यक्तिगत विवरण, योग्यता और पंजीकरण संख्या को सरकारी पोर्टलों पर अपलोड करने और नियमित रूप से अपडेट करने की अनिवार्यता पर आपत्ति जताई गई।

    याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस तरह का डेटा संग्रह स्पष्ट वैधानिक आधार के बिना है और यह पुट्टास्वामी फैसले में मान्यता प्राप्त सूचनात्मक निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है, साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मक गोपनीयता को भी प्रभावित करता है।

    इस आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल निजी अस्पतालों को राहत दी है, लेकिन साथ ही यह स्पष्ट किया है कि कानून के तहत पंजीकरण की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए।

    अब इस महत्वपूर्ण संवैधानिक चुनौती पर अंतिम फैसला फरवरी 2026 में होने वाली सुनवाई में तय होगा।

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