दहेज मुस्लिम शादियों में भी फैल चुका है, महर की सुरक्षा को कर रहा खोखला: सुप्रीम कोर्ट
Amir Ahmad
16 Dec 2025 12:55 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रथा को समाज की एक गंभीर बुराई बताते हुए इसके खिलाफ व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अदालत ने इस दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसमें एक पति और उसकी मां को बरी कर दिया गया, जबकि ट्रायल कोर्ट ने उन्हें दहेज की मांग पूरी न होने पर 20 वर्षीय महिला को जिंदा जलाने का दोषी ठहराया था।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन.के. सिंह की पीठ द्वारा दिए गए इस फैसले में जस्टिस करोल ने दहेज प्रथा के ऐतिहासिक और सामाजिक विकास का विस्तार से विश्लेषण किया।
उन्होंने कहा कि दहेज की शुरुआत विवाह के समय बेटी को स्वेच्छा से दिए जाने वाले उपहार के रूप में हुई थी ताकि उसकी आर्थिक सुरक्षा और स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके लेकिन समय के साथ यह एक संस्थागत और बाध्यकारी सामाजिक प्रथा में बदल गई।
फैसले में कहा गया कि दहेज का गहरा संबंध हाइपरगैमी यानी सामाजिक या आर्थिक रूप से ऊंचे परिवार में विवाह करने की प्रवृत्ति से है। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में वंश और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए बेटियों का विवाह ऊंचे दर्जे वाले परिवारों में किया जाने लगा जिसके साथ दहेज की मांग जुड़ती चली गई।
यह चलन पहले उच्च जातियों और संपन्न वर्गों में मजबूत हुआ और बाद में व्यापक सामाजिक परंपरा बन गया।
जस्टिस करोल ने कहा कि आज के समय में दहेज पूरी तरह से महिला के कल्याण से कट चुका है और इसे 'ग्रूम प्राइस थ्योरी' के रूप में देखा जाने लगा है, जहां दहेज की राशि दूल्हे की शिक्षा, आय, सामाजिक हैसियत और नौकरी से तय होती है।
इसका नतीजा यह हुआ कि महिलाओं के प्रति एक व्यवस्थित भेदभाव पैदा हुआ जिसमें उनकी अपनी पहचान और मूल्य को कमतर आंका जाने लगा।
अदालत ने यह भी महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभावों के कारण दहेज की कुप्रथा मुस्लिम समुदाय में भी प्रवेश कर चुकी है। इस्लाम में दहेज निषिद्ध है और विवाह के समय दूल्हे द्वारा दी जाने वाली 'मेहर' को महिला का पूर्ण अधिकार माना गया है। मेहर का उद्देश्य महिला को आर्थिक सुरक्षा देना है, जिसे पति या उसके परिवार द्वारा छीना नहीं जा सकता।
हालांकि कोर्ट ने कहा कि सामाजिक दबाव और विवाह बाजार की प्रतिस्पर्धा के कारण मुस्लिम शादियों में भी दहेज का चलन बढ़ा है। अब स्थिति यह है कि मेहर केवल नाममात्र की रह गई, जबकि वास्तविक आर्थिक लेन-देन दुल्हन के परिवार से दूल्हे के परिवार की ओर हो रहा है। इससे मेहर की मूल भावना और उसकी सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह कमजोर हो गई।
फैसले में कहा गया कि जहां दहेज मेहर पर हावी हो जाता है वहां महिलाएं एक महत्वपूर्ण आर्थिक सुरक्षा और सौदेबाजी की शक्ति खो देती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें अधिक आर्थिक असुरक्षा, उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और यहां तक कि दहेज मृत्यु जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि यह समस्या किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी समुदायों में फैली हुई है।
सुप्रीम कोर्ट ने अंत में कहा कि दहेज का उन्मूलन केवल कानूनी नहीं बल्कि एक अत्यावश्यक संवैधानिक और सामाजिक आवश्यकता है। समाज और संस्थानों को मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने होंगे, ताकि महिलाओं की गरिमा, सुरक्षा और समानता सुनिश्चित की जा सके।

