लंबे समय तक मुकदमेबाजी के कारण कागज़ों पर ही बची शादी को बनाए रखना उचित नहीं : सुप्रीम कोर्ट
Amir Ahmad
16 Dec 2025 4:15 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार 15 दिसंबर को महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि ऐसी शादी को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है, जो केवल कागज़ों पर अस्तित्व में हो और वर्षों से चली आ रही मुकदमेबाजी के कारण वास्तविक रूप से समाप्त हो चुकी हो।
इसके साथ ही कोर्ट ने 24 वर्षों से अलग रह रहे एक दंपति की शादी को भंग करते हुए कहा कि लंबे समय तक अलगाव और एक-दूसरे को स्वीकार न करने की जिद, दोनों पक्षों के लिए क्रूरता के समान है और यह विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने का स्पष्ट उदाहरण है।
जस्टिस मनमोहन और जस्टिस जॉयमलया बागची की पीठ ने पति की अपील स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित तलाक के आदेश को बहाल कर दिया।
अदालत ने कहा कि लंबे समय तक लंबित वैवाहिक मुकदमे न केवल पक्षकारों के लिए बल्कि समाज के लिए भी किसी लाभ के नहीं होते और ऐसे मामलों में विवाह संबंध को बनाए रखना केवल कागज़ी औपचारिकता बनकर रह जाता है।
मामले के तथ्य बताते हैं कि पति और पत्नी का विवाह वर्ष 2000 में हुआ था लेकिन महज एक वर्ष के भीतर नवंबर 2001 में दोनों अलग हो गए।
इसके बाद से वे पिछले लगभग 24 वर्षों से अलग रह रहे हैं और इस विवाह से कोई संतान भी नहीं है। पति ने पहली बार 2003 में तलाक की याचिका दायर की थी जिसे समय से पहले मानते हुए खारिज कर दिया गया।
इसके बाद 2007 में दायर दूसरी याचिका को ट्रायल कोर्ट ने परित्याग के आधार पर स्वीकार कर लिया। हालांकि, गुवाहाटी हाईकोर्ट ने 2011 में इस फैसले को पलटते हुए कहा कि पत्नी के पास वैवाहिक घर छोड़ने का उचित कारण था और पति अपने ही दोष का लाभ उठाने का प्रयास कर रहा है। इसके खिलाफ पति ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब दंपति इतने लंबे समय से अलग रह रहे हों तब यह तय करना अप्रासंगिक हो जाता है कि गलती किसकी थी।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि लंबे समय तक अलगाव स्वयं में दोनों पक्षों के लिए क्रूरता है। ऐसे मामलों में संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय करने की शक्ति का उपयोग करते हुए विवाह को समाप्त किया जा सकता है।
जस्टिस मनमोहन द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया कि दोनों पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन को लेकर दृष्टिकोण पूरी तरह अलग थे और उन्होंने लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बैठाने से इनकार किया। यह व्यवहार ही परस्पर क्रूरता के दायरे में आता है।
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि वैवाहिक मामलों में न तो समाज और न ही अदालत को यह तय करने का अधिकार है कि किसका दृष्टिकोण सही है। महत्वपूर्ण यह है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ रह पाने में असमर्थ हैं।
अदालत ने अपने फैसले में राकेश रमन बनाम कविता (2023) सहित कई पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि लंबे समय तक बिना किसी सुलह की संभावना के अलग रहना दोनों पक्षों के प्रति क्रूरता है।
साथ ही संविधान पीठ के निर्णय शिल्पा सैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) का उल्लेख करते हुए कहा गया कि अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्ति वैधानिक तलाक कानूनों में निहित दोष सिद्धांत से बाधित नहीं होती।
इसके अतिरिक्त न्यायालय ने कुमारी रेखा बनाम शंभू सरन पासवान (2025) के फैसले का भी संदर्भ दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि विवाह का अपूरणीय विघटन हो चुका हो, तो वैधानिक आधारों की अनुपलब्धता भी सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 के तहत हस्तक्षेप करने से नहीं रोकती।

