सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के हिरासत में यातना मामले में सजा निलंबित करने की संजीव भट्ट की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा
Amir Ahmad
28 Feb 2025 2:56 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (28 फरवरी) को गुजरात के निष्कासित IPS अधिकारी संजीव भट्ट द्वारा दायर आवेदन पर फैसला सुरक्षित रखा, जिसमें 1990 के हिरासत में मौत के मामले में उन्हें दी गई आजीवन कारावास की सजा निलंबित करने की मांग की गई।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने भट्ट द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका में दायर आवेदन पर सुनवाई की, जिसमें गुजरात हाईकोर्ट के जनवरी 2024 के फैसले को चुनौती दी गई, जिसमें दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ उनकी अपील खारिज कर दी गई।
संजीव भट्ट की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि वह पांच साल से अधिक समय से हिरासत में हैं।
सिब्बल ने तर्क दिया कि भट्ट को दोषी ठहराने के लिए कोई सबूत नहीं है और मेडिकल साक्ष्य से पता चलता है कि पीड़ित प्रभुदास माधवजी वैष्णानी की मृत्यु पहले से मौजूद मेडिकल स्थितियों के कारण हुई थी।
उन्होंने दावा किया कि किसी भी शारीरिक यातना का कोई चिकित्सा साक्ष्य नहीं है। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि पीड़ित की हिरासत से रिहाई के लगभग बीस दिन बाद मौत हुई।
सिब्बल ने कहा कि हालांकि पीड़ित ने रिहाई के तुरंत बाद अपने परिवार के डॉक्टर से मुलाकात की थी लेकिन उसने पुलिस की यातना की कोई शिकायत नहीं की।
सिब्बल ने कहा,
"अगर इस तरह के मुकदमे होंगे तो देश कहां जाएगा? मैं सिर्फ जमानत की मांग कर रहा हूं।"
गुजरात राज्य के लिए सीनियर एडवोकेट मनिंदर सिंह ने याचिकाकर्ता की दलीलों का खंडन किया और कहा कि मेडिकल साक्ष्य से पता चलता है कि पीड़ित की मौत गुर्दे की विफलता के कारण हुई जो पुलिस द्वारा रात भर उसे जबरदस्ती उठक-बैठक और रेंगने के लिए मजबूर करने के कारण हुई। इस बात के स्पष्ट सबूत हैं कि यातना के कारण गुर्दे की समस्या हुई।
सिंह ने यह भी बताया कि भट्ट एक व्यक्ति को फंसाने के लिए ड्रग्स रखने से संबंधित अन्य मामले में 20 साल की सजा काट रहा है। सिंह ने तर्क दिया कि रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य और दोषी के अन्य आपराधिक इतिहास को देखते हुए सजा को निलंबित करने के लिए कोई उचित परिस्थिति नहीं है।
खंडपीठ को यह भी बताया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भट्ट की सजा निलंबित करने की याचिका खारिज की, जबकि उनकी अपील गुजरात हाईकोर्ट में लंबित थी।
इंफॉर्मेंट (मृतक के भाई) के वकील वंशजा शुक्ला ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यह एक ऐसा मामला था, जिसमें घटना के लगभग तीस साल बाद न्याय दिया गया और अदालतों को पीड़ितों के अधिकारों के बारे में भी ध्यान रखना चाहिए।
यह घटना नवंबर 1990 में प्रभुदास माधवजी वैष्णानी नामक व्यक्ति की मौत से संबंधित है, जो कथित तौर पर हिरासत में यातना के कारण हुई थी। उस समय भट्ट जामनगर के सहायक पुलिस अधीक्षक थे जिन्होंने अन्य अधिकारियों के साथ मिलकर भारत बंद के दौरान दंगा करने के आरोप में वैष्णानी सहित लगभग 133 लोगों को हिरासत में लिया था। वैष्णानी को नौ दिनों तक हिरासत में रखा गया। जमानत पर रिहा होने के दस दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।
मेडिकल रिकॉर्ड के अनुसार मौत का कारण गुर्दे की विफलता थी। उनकी मृत्यु के बाद हिरासत में यातना के आरोपों पर भट्ट और कुछ अन्य अधिकारियों के खिलाफ FIR दर्ज की गई थी। मामले का संज्ञान मजिस्ट्रेट ने 1995 में लिया था।
गुजरात हाईकोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के कारण 2011 तक मुकदमा स्थगित रहा। बाद में रोक हटा दी गई और मुकदमा शुरू हुआ। जून, 2019 में राज्य के जामनगर जिले की एक सत्र अदालत ने भट्ट और एक पुलिस कांस्टेबल (प्रवीनसिंह जाला) को आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाने की सजा) और 506 (1) (आपराधिक धमकी के अपराध के लिए सजा) के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
उनके अलावा पुलिस कांस्टेबल प्रवीणसिंह जडेजा, अनोपसिंह जेठवा और केशुभा डोलुभा जडेजा और पुलिस उपनिरीक्षक शैलेश पंड्या और दीपककुमार भगवानदास शाह को भी हिरासत में यातना देने का दोषी पाया गया और उन्हें आईपीसी की धारा 323 और 506 (1) के तहत दोषी ठहराया गया। अपनी सजा को चुनौती देते हुए जाला, भट्ट, शाह और पंड्या ने 2019 में हाईकोर्ट का रुख किया।
उनकी आपराधिक अपील खारिज करते हुए जस्टिस आशुतोष शास्त्री और जस्टिस संदीप एन. भट्ट की खंडपीठ ने कहा कि जामनगर न्यायालय द्वारा दिया गया तर्क सही था और इसलिए सजा के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं था।
टाइटल: संजीव कुमार राजेंद्रभाई भट्ट बनाम गुजरात राज्य और अन्य | एसएलपी (सीआरएल) संख्या 11736/2024