अभियोजन निदेशकों की नियुक्ति: पात्रता मानदंड बढ़ाने वाले बिहार नियम रद्द करने के हाईकोर्ट के खिलाफ याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया
Shahadat
25 Sept 2024 10:13 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में बिहार अभियोजन मैनुअल, 2003 के नियम 5 को अमान्य करार देने के पटना हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली विशेष अनुमति याचिका पर नोटिस जारी किया। यह नियम बिहार अभियोजन सेवा के लिए पात्रता और अनुभव मानदंड से संबंधित है।
अभियोक्ताओं के एक संघ (बिहार अभियान सेवा संघ) द्वारा दायर याचिका जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ के समक्ष थी, जिसने इसे 22 नवंबर, 2024 को आगे की सुनवाई के लिए निर्धारित किया।
विशेष अनुमति याचिका दायर करने में देरी के लिए माफ़ी मांगने वाली याचिका पर बिहार राज्य को भी नोटिस जारी किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
संक्षेप में कहा जाए तो यह मामला CrPC की धारा 25(ए) (एक केंद्रीय कानून) और बिहार अभियोजन मैनुअल (एक राज्य कानून) के नियम 5 के बीच स्पष्ट टकराव से संबंधित है, जो दोनों ही अभियोजन निदेशालय में नियुक्ति के लिए पात्रता मानदंड से संबंधित हैं।
2006 में CrPC में धारा 25(ए) को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया, जो राज्य सरकारों को अभियोजन निदेशक और उप निदेशकों की नियुक्ति करने के लिए अधिकृत करता है। इस प्रावधान के अनुसार, कोई व्यक्ति इस पद के लिए तभी पात्र होगा, जब उसके पास वकील के रूप में कम से कम 10 वर्ष का अनुभव हो। इसके अलावा, नियुक्ति संबंधित हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति से की जाएगी।
दस साल बाद बिहार राज्य ने नियमावली में संशोधन किया, जिसके तहत नियम 5 को प्रतिस्थापित किया गया। नए नियम 5 के तहत बिहार अभियोजन सेवा में न्यूनतम आयु और अनुभव योग्यता 10 वर्ष निर्धारित की गई - जो धारा 25(ए), CrPC (यानी वकील के रूप में 10 वर्ष का अनुभव) में निर्धारित मानक से अलग है।
हाईकोर्ट के समक्ष कार्यवाही
इसी के विरोध में सुशील कुमार चौधरी नामक व्यक्ति ने 2019 में पटना हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने तर्क दिया कि नया नियम 5 धारा 25(ए) CrPC के प्रतिकूल है। उनका कहना था कि धारा 25ए केंद्रीय कानून का हिस्सा होने के नाते वकील के रूप में 10 वर्ष के अनुभव के रूप में न्यूनतम पात्रता आवश्यकता निर्धारित करती है, जिसे किसी भी राज्य कानून द्वारा किसी भी तरह से कमजोर नहीं किया जा सकता।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि संशोधन ने ऐसी सेवा में शामिल होने के अवसर को केवल ऐसे व्यक्तियों तक सीमित कर दिया, जिन्होंने बिहार राज्य की अभियोजन सेवा में सेवा की है और अनुभव प्राप्त किया है। उन्होंने कहा कि यह उसी क्षेत्र में राज्य विधान की संवैधानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, जिसमें केंद्रीय विधान संचालित होता है।
जहां तक संशोधन के बाद भर्ती प्रक्रिया शुरू होने की बात है, याचिकाकर्ता ने दलील दी कि इस प्रक्रिया को कानून की नजर में अमान्य घोषित किया जाना चाहिए, क्योंकि मैनुअल में उम्र और अनुभव का निर्धारण नियम बनाने वाले प्राधिकारी की क्षमता से परे है।
दूसरी ओर, बिहार राज्य ने बताया कि याचिकाकर्ता ने वर्ष 2017 में नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी होने के बाद नियम 5 की संवैधानिकता को चुनौती देने का विकल्प चुना था। यह भी रेखांकित किया गया कि अभियोजन निदेशक और उप निदेशकों के पद के लिए नियुक्तियां रिट याचिकाओं के बैच में न्यायालय की एकल पीठ के आदेशों के अनुसरण में की गई थीं।
यद्यपि यह स्वीकार किया गया कि राज्य विधान में भिन्न योग्यता और अनुभव का प्रावधान धारा 25(ए) CrPC के तहत आवश्यकताओं के विपरीत है, राज्य ने प्रस्तुत किया कि लगभग 500 व्यक्तियों (जो कार्यरत थे) की नियुक्तियों को रद्द करना उचित नहीं होगा। हालांकि, भविष्य के लिए मैनुअल के संशोधित नियम 5 को सुरक्षित रखने पर कोई जोर नहीं दिया गया।
पक्षों की सुनवाई के बाद पटना हाईकोर्ट ने माना कि मैनुअल के नियम 5(2)(II) में संशोधन संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरा। हालांकि, 6 साल की सेवा और याचिकाकर्ता द्वारा न्यायालय का दरवाजा खटखटाने में हुई देरी को देखते हुए पहले से की गई नियुक्तियों को बाधित न करने का निर्णय लिया गया।
इसके अलावा, हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि राज्य नियम 5 को धारा 25(ए) CrPC के अनुरूप लाने के लिए तत्काल संशोधित करे और भविष्य में कोई भी नियुक्ति प्रक्रिया धारा 25(ए) के तहत आवश्यकताओं का पालन करेगी।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मामला
हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता-बिहार अभियान सेवा संघ ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इसने तर्क दिया कि बिहार सरकार ने अभियोजन सेवा के कुशल प्रशासन के लिए आवश्यक उच्च योग्यता निर्धारित करने में अपनी विधायी क्षमता का प्रयोग किया।
याचिकाकर्ता का मामला यह है कि राज्य सरकार, राज्य सेवा में अधिकारियों को नियुक्त करने की अपनी शक्ति के आवश्यक सहायक के रूप में भर्ती या सेवा की शर्तों के लिए योग्यता निर्धारित करने की हकदार है। इसके अलावा, "राज्य नियोक्ता के रूप में पात्रता की शर्त के रूप में योग्यता निर्धारित करने का हकदार है। ऐसे नुस्खे न्यायिक पुनर्विचार के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, यदि उनका नियुक्ति से उचित संबंध है।"
याचिकाकर्ता का तर्क है कि योग्यता और सेवा की अन्य शर्तों के निर्धारण से संबंधित प्रश्न नीति के क्षेत्र से संबंधित हैं। राज्य के अनन्य विवेक और अधिकार क्षेत्र में हैं।
यह भी इंगित करता है कि धारा 25ए CrPC के तहत अतिरिक्त पात्रता शर्तों को निर्धारित करने के राज्य के अधिकार के संबंध में हाईकोर्ट द्वारा परस्पर विरोधी निर्णय हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्पष्ट और आधिकारिक घोषणा आवश्यक है।
वेस्ट यू.पी. शुगर मिल्स एसोसिएशन बनाम यू.पी. राज्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने आगे दावा किया कि हाईकोर्ट ने विरोध के लिए ट्रिपल टेस्ट लागू करने में गलती की।
इस निर्णय के अनुसार, "किसी भी प्रकार की असहमति उत्पन्न होने से पहले, निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिए:
1. केंद्रीय अधिनियम और राज्य अधिनियम के बीच स्पष्ट और प्रत्यक्ष असंगति हो।
2. ऐसी असंगति पूर्णतः असंगत हो।
3. दोनों अधिनियमों के प्रावधानों के बीच असंगति ऐसी प्रकृति की हो कि दोनों अधिनियम एक दूसरे से सीधे टकराएं और ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि एक का पालन करना दूसरे की अवज्ञा किए बिना असंभव हो जाए।"
केस टाइटल: बिहार अभियान सेवा संघ बनाम बिहार राज्य, डायरी नंबर 41238/2024