'न्यायिक अधिकारियों की गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने की जरूरत': सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना मामले में वकील की सजा बरकरार रखी

Shahadat

31 Jan 2024 6:06 AM GMT

  • न्यायिक अधिकारियों की गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने की जरूरत: सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना मामले में वकील की सजा बरकरार रखी

    सुप्रीम कोर्ट ने 17 साल पुराने आपराधिक अवमानना मामले में वकील को दोषी ठहराते हुए दोहराया कि माफी अवमाननापूर्ण कृत्यों के लिए पश्चाताप का सबूत होनी चाहिए। इसका उपयोग 'दोषियों को उनके अपराध से मुक्त करने के लिए' हथियार के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, ईमानदारी की कमी और पश्चाताप का सबूत न देने वाली माफी को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    जस्टिस विक्रमनाथ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ वकील गुलशन बाजवा की अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट (19 अक्टूबर 2006) ने आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया था। बाजवा ने अन्य बातों के अलावा जजों के खिलाफ अनुचित और लापरवाह आरोप लगाए। इसके अलावा, वह लगातार हाईकोर्ट के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहे। वहीं, बिना किसी लाभ के अपीलकर्ता की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए कई तरीके अपनाए गए।

    जस्टिस स्वतंत्र कुमार और जस्टिस जी.एस. सिस्तानी की हाईकोर्ट की खंडपीठ ने ऐसे कई उदाहरणों की ओर इशारा किया, जहां विभिन्न कार्यवाहियों में अपीलकर्ता के आचरण की जांच की गई। उन सभी मामलों में अपीलकर्ता की अवमानना का घिनौना कृत्य दर्ज किया गया।

    न्यायालय ने माना कि कृत्य जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण हैं और लंबे समय से जारी हैं। इसके अलावा, हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की माफी को भी यह कहते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि यह न तो ईमानदार है, न ही संतोषजनक और देर से मांगी गई माफी है।

    अपीलकर्ता को आपराधिक अवमानना का दोषी पाते हुए हाईकोर्ट ने उसे तीन महीने के साधारण कारावास और 2000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। इस प्रकार, वर्तमान अपील दायर की गई।

    गौरतलब है कि 16 अप्रैल 2007 को आपराधिक अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का अंतरिम आदेश दिया। हालांकि, इस अपील में एक दर्जन से अधिक अवसरों पर न्यायालय ने कहा कि सूचीबद्ध मामले या तो अपीलकर्ता के अनुरोध पर या उसकी अनुपस्थिति के कारण स्थगित कर दिए गए। इसे देखते हुए कोर्ट ने अंतरिम आदेश रद्द कर दिया।

    प्रस्तुतियां देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से सहमति व्यक्त की।

    कोर्ट ने कहा,

    "न्यायिक अधिकारियों की गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने और उन्हें प्रेरित, अपमानजनक और निराधार आरोपों से बचाने की आवश्यकता पर हम हाईकोर्ट के फैसले से पूरी तरह सहमत हैं।"

    यह भी देखा गया कि अपीलकर्ता द्वारा दी गई माफ़ी वास्तविक नहीं थी। केवल दिखावटी सेवा थी। इसके अलावा, यह राय दी गई कि अपीलकर्ता का आचरण कानून की व्यवस्था को कमजोर करने जैसा है।

    कहा गया,

    “हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता के व्यवहार में एख पैटर्न देखा, जो बेंच उनसे सहमत नहीं होती, उसके साथ दुर्व्यवहार करना उनकी आदत रही है। दुर्व्यवहार मामले की सुनवाई कर रहे जजों पर आक्षेप लगाने और धमकी देने की हद तक चला जाता है।''

    इस उपरोक्त प्रक्षेपण के मद्देनजर, न्यायालय ने आक्षेपित निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार किया। हालांकि, अपीलकर्ता की कुछ मेडिकल बीमारियों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने सजा तीन महीने के कारावास से अदालत उठने तक संशोधित कर दिया।

    केस टाइटल: गुलशन बाजवा बनाम रजिस्ट्रार, हाईकोर्ट या दिल्ली, डायरी नंबर- 2115 - 2007

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