कॉलेजियम की कार्यवाही पर उठे सवाल, न्यायिक स्वतंत्रता बचाने के दावे पर संदेह

LiveLaw Network

28 Aug 2025 9:40 PM IST

  • कॉलेजियम की कार्यवाही पर उठे सवाल, न्यायिक स्वतंत्रता बचाने के दावे पर संदेह

    हाल की घटनाएँ दिखाती हैं कि चीफ़ जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाला सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम गौरवपूर्ण स्थिति में नहीं है। जस्टिस विपुल पंचोली को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत करने के प्रस्ताव पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं, खासकर तब जब खबरों के अनुसार जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने इस प्रस्ताव पर असहमति जताई।

    रिपोर्टों के मुताबिक, जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि जस्टिस पंचोली की नियुक्ति “न्याय के लिए हानिकारक” होगी। सीनियरिटी के हिसाब से देखें तो जस्टिस पंचोली अक्टूबर 2031 से मई 2033 तक भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की लाइन में हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि जब जस्टिस पंचोली अखिल भारतीय सीनियरिटी सूची में 57वें स्थान पर हैं, तो उन्हें क्यों प्राथमिकता दी गई, जबकि सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही गुजरात हाईकोर्ट से दो जज मौजूद हैं। साथ ही, यह भी कहा गया कि 2023 में उनका गुजरात से पटना हाईकोर्ट में ट्रांसफर सामान्य नहीं था और इस पर चर्चा होनी चाहिए।

    लेकिन कॉलेजियम के आधिकारिक बयान में जस्टिस नागरत्ना की असहमति का कोई ज़िक्र नहीं था; उनकी असहमति प्रकाशित भी नहीं की गई, जबकि उन्होंने इसकी मांग की थी। ये सारी जानकारी केवल मीडिया रिपोर्टों के ज़रिए सामने आई है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज भी नहीं किया है। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अभय एस. ओका ने भी कहा कि जस्टिस नागरत्ना की असहमति को सार्वजनिक किया जाना चाहिए।

    पहले कॉलेजियम किसी भी उम्मीदवार को चुनने के पीछे कुछ न कुछ कारण ज़रूर बताता था। चाहे वे कारण अपर्याप्त हों या अस्पष्ट, लेकिन कम से कम यह स्वीकारोक्ति होती थी कि न्यायपालिका जनता के प्रति जवाबदेह है। जैसे – जब जस्टिस पी.के. मिश्रा को सीनियरिटी को नज़रअंदाज़ कर प्रमोट किया गया, तो कॉलेजियम ने छत्तीसगढ़ राज्य के प्रतिनिधित्व और उनकी ईमानदारी का हवाला दिया। जब जस्टिस जॉयमाल्या बागची की सिफारिश की गई, तो कहा गया कि 2013 से अब तक कोलकाता हाईकोर्ट से कोई सीजेआई नहीं हुआ है, इसलिए उन्हें लाइन में रखा जा रहा है।

    लेकिन अब कॉलेजियम ने वजह बताने की यह परंपरा ही छोड़ दी है। अब केवल नाम घोषित कर दिए जाते हैं, बिना किसी स्पष्टीकरण के। यह रवैया, पूरे सम्मान के साथ कहें तो, न्यायिक अहंकार जैसा लगता है, मानो कॉलेजियम कह रहा हो – “हम जो चाहेंगे करेंगे, आपको बिना सवाल किए स्वीकार करना होगा।”

    सवाल तब और गहरे हो जाते हैं जब यह सामने आया कि कॉलेजियम ने हाल ही में सीजेआई गवई के भतीजे को बॉम्बे हाईकोर्ट में पदोन्नति की सिफारिश की। संयोग यह कि बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, जिन्होंने यह नाम सुझाया था, एक हफ्ते बाद सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए सिफारिश कर दिए गए।

    दिलचस्प बात यह रही कि सरकार ने इन सिफारिशों को तुरंत मंजूरी भी दे दी, जबकि कई अन्य नाम सालों तक अटके रहते हैं। इससे यह आभास होता है कि कॉलेजियम और कार्यपालिका (सरकार) के बीच किसी तरह का “लेन-देन” चल रहा है – कुछ नाम सरकार के पसंद के, और बदले में कॉलेजियम अपने लोगों को आगे बढ़ा ले।

    स्पष्ट कर दें, यहाँ सवाल किसी उम्मीदवार की योग्यता या ईमानदारी का नहीं है, बल्कि प्रक्रिया की अपारदर्शिता और उससे पैदा हो रहे नकारात्मक जनविश्वास का है। असली चिंता यह है कि यदि कार्यपालिका का सुझाया उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचता है, तो क्या वह भविष्य में सरकार के खिलाफ खड़ा हो पाएगा, खासकर संवैधानिक मुद्दों और मौलिक अधिकारों के मामलों में?

    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एम.बी. लोकुर ने भी हाल ही में अपनी किताब “द [इन]कम्प्लीट जस्टिस? सुप्रीम कोर्ट ऐट 75” में लिखा कि अब न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। उन्होंने कहा – “आज ट्रंप कार्ड भारत सरकार के हाथ में है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। उम्मीद यह थी कि ये ट्रंप कार्ड सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के पास होंगे, लेकिन अब नहीं हैं।”

    कॉलेजियम प्रणाली का एकमात्र औचित्य यही था कि यह न्यायपालिका को सरकार के दबाव से बचाती है। लेकिन अगर वह मकसद ही पूरा नहीं हो रहा है, तो फिर जनता को इस “गुप्त क्लब” को क्यों झेलना चाहिए?

    ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अब कार्यपालिका कॉलेजियम पर हमला करना भी बंद कर चुकी है, जैसा कि 2-3 साल पहले तक करती थी। उस समय सुप्रीम कोर्ट नियुक्तियों में देरी का मुद्दा उठा रहा था और आईबी की आपत्तियाँ तक सार्वजनिक कर रहा था। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है। हाल ही में जब यह मुद्दा तत्काल सुनवाई के लिए रखा गया, तो सीजेआई गवई ने कहा कि नियुक्तियों पर कोर्ट प्रशासनिक स्तर पर काम कर रहा है। लेकिन इसका परिणाम क्या है, कोई नहीं जानता।

    संकेत साफ है – न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों ही मौजूदा “समझौते वाली स्थिति” से संतुष्ट हैं। लेकिन यह मेलजोल लोकतंत्र और संविधान के लिए अच्छा नहीं है।

    न्यायपालिका लंबे समय से कहती रही है कि कॉलेजियम इसलिए ज़रूरी है ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे। लेकिन अगर कॉलेजियम न तो पारदर्शी है, न ही सरकार से स्वतंत्र है, तो उसका औचित्य ही खत्म हो जाता है।

    अगर कॉलेजियम अपने फैसलों की वजह साफ नहीं बता सकता, अपने भीतर की असहमति स्वीकार नहीं कर सकता, और यह साबित नहीं कर सकता कि वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, तो उसकी वैधता पर गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं।

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