BREAKING | सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट 2021 रद्द किया, कहा- न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन
Amir Ahmad
19 Nov 2025 8:00 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट, 2021 को असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया। यह कानून विभिन्न ट्रिब्यूनलों के सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा शर्तों से संबंधित था। अदालत ने स्पष्ट कहा कि यह कानून न्यायिक स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण जैसे मूल संवैधानिक सिद्धांतों का गंभीर उल्लंघन करता है।
पूर्व चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ के उत्तराधिकारी के रूप में न्यायिक नेतृत्व संभाल चुके चीफ जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने केंद्र सरकार की तीखी आलोचना की। कंडपीठ ने कहा कि सरकार ने अदालत के पूर्व निर्देशों का पालन न करते हुए बार-बार उन्हीं प्रावधानों को दोहराया, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट पहले ही असंवैधानिक घोषित कर चुका है। अदालत ने इसे कानूनी निर्णयों को दरकिनार करने की विधायी कोशिश करार दिया।
निर्णय में कहा गया कि यह अधिनियम संविधान की मूल आत्मा के विपरीत है, क्योंकि यह उन ही प्रावधानों को पुनः लागू करता है, जिन्हें अदालत ने अस्वीकार कर दिया था। जजमेंट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि इस तरह की विधायी पुनर्रचना न्यायिक निर्णयों को निष्प्रभावी बनाने का प्रयास है जो संविधान व्यवस्था में किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जब तक संसद नया कानून नहीं लाती, तब तक मद्रास बार एसोसिएशन मामलों (एमबीए-IV और एमबीए-V) में दिए गए निर्देश ही प्रभावी रूप से लागू रहेंगे। कोर्ट ने याद दिलाया कि पचास वर्ष की न्यूनतम आयु, चार वर्ष का संक्षिप्त कार्यकाल, अध्यक्ष और सदस्यों के लिए आयु-सीमा तथा सर्च-कम-सेलेक्शन कमेटी द्वारा प्रत्येक पद के लिए दो नाम भेजने जैसे प्रावधान पहले भी असंवैधानिक घोषित किए जा चुके हैं। अदालत के अनुसार ये उपाय न केवल मनमाने हैं बल्कि न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करने वाले हैं।
यह फैसला 2021 में दायर की गई उस याचिका पर आया, जिसमें मद्रास बार एसोसिएशन ने इस कानून को चुनौती दी थी। याचिका में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही यह निर्धारित कर दिया कि ट्रिब्यूनल सदस्यों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष होना चाहिए और दस वर्ष के अनुभव वाले वकीलों को पात्रता से बाहर नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद 2021 का अधिनियम इन निर्देशों के विपरीत दिशा में गया।
अदालत ने केंद्र सरकार को चार महीने के भीतर राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग गठित करने का निर्देश भी दिया। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे सभी नियुक्ति आदेश वैध रहेंगे जो चयन प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद, लेकिन अधिनियम लागू होने के पश्चात जारी किए गए। ऐसे मामलों में सेवा शर्तें पुराने कानूनों और अदालत के पूर्व निर्णयों के अनुसार ही लागू होंगी, न कि 2021 के अधिनियम के अनुसार।
निर्णय में संसदीय अधिकार और न्यायिक पुनर्विचार के संबंध में विस्तार से टिप्पणी की गई। कोर्ट ने कहा कि जब न्यायपालिका किसी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर देती है, तो संसद उन्हीं खामियों के साथ प्रावधान को पुनः लागू नहीं कर सकती। उसे संविधान के अनुरूप सुधार करने होंगे, न कि केवल पुराने कानून को नए नाम से दोहराना होगा।
अदालत ने यह भी अस्वीकार कर दिया कि न्यायिक स्वतंत्रता या शक्तियों के पृथक्करण जैसे सिद्धांत अमूर्त हैं। खंडपीठ ने कहा कि भारत का संवैधानिक ढांचा इन्हीं मूल्यों पर आधारित है और ट्रिब्यूनल व्यवस्था भी इससे अपवाद नहीं हो सकती। यदि कानून कार्यपालिका को अत्यधिक नियंत्रण देता है, न्यायिक कार्यकाल को मनमाने ढंग से सीमित करता है या संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करता है तो वह संविधान की जड़ पर प्रहार करता है।
इस निर्णय के साथ सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह दोहराया कि न्यायिक स्वतंत्रता केवल हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक सीमित नहीं है, बल्कि ट्रिब्यूनलों और अधीनस्थ न्यायपालिका की संरचना और कार्यप्रणाली में भी यह सिद्धांत सर्वोपरि है। इस फैसले से न केवल ट्रिब्यूनल प्रणाली की संरचना पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा बल्कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन का संवैधानिक संदेश भी और अधिक मजबूती से उभरकर सामने आया।

