सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों के लिए मतदान अधिकार की मांग वाली जनहित याचिका पर केंद्र और ECI को नोटिस जारी किया

Amir Ahmad

10 Oct 2025 12:48 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों के लिए मतदान अधिकार की मांग वाली जनहित याचिका पर केंद्र और ECI को नोटिस जारी किया

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को महत्वपूर्ण जनहित याचिका (PIL) पर केंद्र सरकार और भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) को नोटिस जारी किया, जिसमें देशभर के विचाराधीनऔर परीक्षण-पूर्व कैदियों को मतदान का अधिकार दिए जाने की मांग की गई।

    चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बी. आर. गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने सुनीता शर्मा द्वारा दायर इस जनहित याचिका पर नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट प्रशांत भूषण पेश हुए।

    याचिका लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act - RPA, 1951) की धारा 62(5) को चुनौती देती है। यह धारा जेल में बंद व्यक्तियों पर मतदान करने से पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। भले ही उन्हें दोषी ठहराया गया हो या वे केवल परीक्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों। धारा 62(5) में केवल निवारक निरोध के तहत रखे गए व्यक्तियों को अपवाद प्रदान किया गया।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए, बल्कि इस अधिकार पर व्यक्तिगत आधार पर विचार किया जाना चाहिए।

    संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई कि वह ECI को जेलों के भीतर मतदान केंद्र स्थापित करने या घर से दूर बंद कैदियों के लिए डाक मतपत्र की सुविधा प्रदान करने के लिए उचित निर्देश या दिशानिर्देश जारी करे। याचिका में स्पष्ट किया गया कि यह सुविधा केवल उन कैदियों को छोड़कर सभी के लिए होनी चाहिए जिन्हें RPA, 1951 के भाग VII के तहत भ्रष्ट आचरण या चुनावी अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया।

    याचिका में यह भी कहा गया कि वर्तमान प्रतिबंध के कारण भारत की जेलों में बंद 4.5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी, जो निर्दोषता की अवधारणा का आनंद लेते हैं। अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित हैं।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि कैदियों को मतदान से अयोग्य ठहराने वाला भारत का पूर्ण प्रतिबंध वैश्विक लोकतांत्रिक प्रथाओं के विपरीत है। दुनिया भर के लोकतंत्रों में मतदान अधिकार आमतौर पर केवल तीन सीमित परिस्थितियों में प्रतिबंधित होते हैं: एक व्यक्तिगत न्यायिक निर्धारण के बाद विशिष्ट अपराधों के लिए अंतिम दोषसिद्धि के बाद या जब अयोग्यता न्यायिक सज़ा का हिस्सा हो।

    याचिका में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि भारत का यह दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और लोकतांत्रिक मूल्यों से विचलित होता है। यहां तक कि पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी विचाराधीन कैदियों को मतदान का अधिकार प्राप्त है।

    याचिका यह भी तर्क देती है कि यह प्रतिबंध निर्दोषता की सर्वमान्य अवधारणा के विपरीत है। खासकर जब भारत की जेल आबादी का लगभग 75% विचाराधीन कैदियों का है।

    याचिका में सवाल उठाया गया कि जब सज़ा काट रहे दोषी व्यक्तियों को भी चुनाव लड़ने और कानून बनाने की प्रक्रियाओं को प्रभावित करने की अनुमति है तो एक साधारण नागरिक, जिसे अभी तक दोषी नहीं ठहराया गया, उसे मतदान करने और अपना प्रतिनिधि चुनने के अधिकार से कैसे वंचित किया जा सकता है।

    याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि 1997 में अनुपुल कुमार प्रधान बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 62(5) की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी था लेकिन उस समय कोर्ट ने मतदान के अधिकार को केवल एक सांविधिक अधिकार माना था। इसके विपरीत याचिकाकर्ता ने अनूप बरनवाल (2023) मामले में आए संविधान पीठ के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि मतदान का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है। इसलिए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मतदान के अधिकार की समझ बदलने के बाद अनुपुल प्रधान का फैसला अब लागू नहीं हो सकता।

    सुप्रीम कोर्ट ने अब इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर केंद्र सरकार और ECI से जवाब मांगा।

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