हाईकोर्ट न्यायिक आदेश से सलाह नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

8 March 2024 7:46 AM GMT

  • हाईकोर्ट न्यायिक आदेश से सलाह नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

    याचिकाकर्ता द्वारा कारावास की लंबी अवधि को नजरअंदाज करने के लिए हाईकोर्ट के आदेश की निंदा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि अदालतें न्यायिक आदेशों के माध्यम से "सलाह" नहीं दे सकती हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने मुकदमे की प्रगति पर ट्रायल कोर्ट से समय-समय पर रिपोर्ट मांगने के निर्देश पर रोक लगाई।

    जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने कहा,

    "हमारा विचार है कि इस तरह का निर्देश जारी करना ट्रायल कोर्ट के दिन-प्रतिदिन के कामकाज में हस्तक्षेप के समान है, जो हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम यूपी राज्य और अन्य के मामले में हाल के संविधान पीठ के फैसले के आलोक में नहीं किया जा सकता।"

    संक्षेप में कहें तो याचिकाकर्ता को 2014 में हिरासत में ले लिया गया। सबसे पहले, उसने विशेष अदालत के समक्ष जमानत याचिका दायर की, लेकिन 2018 में इसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद उसने जमानत याचिका के साथ बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन वही इसे भी दो निर्देशों के साथ निपटाया गया - (i) ट्रायल जज 6 महीने के भीतर सुनवाई पूरी करें, और (ii) ट्रायल जज ट्रायल के समापन तक हर 3 सप्ताह में हाई कोर्ट रजिस्ट्री को समय-समय पर रिपोर्ट दें।

    इस आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसने प्रतिवादी-राज्य को नोटिस जारी किया। इसमें कहा गया कि याचिकाकर्ता को 10 साल की कैद हुई और उसके वकील की दलील के अनुसार, 30 में से केवल 16 गवाहों से पूछताछ की गई। प्रथम दृष्टया यह भी है कि गुण-दोष के आधार पर जमानत आवेदन पर निर्णय लेने के बजाय हाईकोर्ट ने अभियोजकों, बचाव पक्ष के वकीलों और ट्रायल कोर्ट को सलाह देकर "सलाहकार क्षेत्राधिकार" का प्रयोग किया।

    कहा गया,

    "न्यायिक आदेश के अनुसार, हाईकोर्ट सलाह नहीं दे सकता। जिस चीज़ की अनदेखी की गई, वह याचिकाकर्ता के बहुत लंबे समय तक कारावास का प्रभाव है।"

    इसके अलावा, समय-समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्देश पर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए रोक लगा दी कि यह ट्रायल कोर्ट के दिन-प्रतिदिन के कामकाज में हस्तक्षेप के समान है। यह टिप्पणी हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम यूपी राज्य और अन्य मामले में हाल ही में संविधान पीठ के फैसले के आलोक में आई है।

    रोके गए निर्देश इस प्रकार हैं:

    "(बी) मैं मामले से जुड़े ट्रायल जज को निर्देश देता हूं कि वे ट्रायल पूरा होने तक हर तीन सप्ताह के बाद इस न्यायालय की रजिस्ट्री को समय-समय पर रिपोर्ट दें।"

    हाईकोर्ट ने अपने आदेश में दर्ज किया कि याचिकाकर्ता ने योग्यता के आधार पर जमानत याचिका दायर नहीं की। इसके बजाय, इसे त्वरित सुनवाई के अधिकार के उल्लंघन तक सीमित कर दिया गया।

    उद्धरण के लिए,

    "जब यह पूछा जाता है कि आवेदक ने योग्यता के आधार पर जमानत के लिए आवेदन किया या नहीं, तो यह प्रस्तुत किया जाता है कि उसका आवेदन केवल त्वरित सुनवाई के अधिकार के उल्लंघन के कारण प्रतिबंधित है... उसने वर्ष 2022 में त्वरित सुनवाई के अधिकार से इनकार करने की शिकायत के साथ इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। आइए मान लें कि आवेदक ने योग्यता के आधार पर इस न्यायालय से संपर्क नहीं किया।"

    मामले के अभियोजक, याचिकाकर्ता के वकीलों और मामले को देख रहे न्यायाधीश से अपेक्षाओं को स्पष्ट करते हुए हाईकोर्ट ने आगे "सलाह" दी।

    अभियोजक के संबंध में हाईकोर्ट ने पाया कि पहली गवाह सूची और दूसरी गवाह सूची के बीच बिना किसी संतोषजनक स्पष्टीकरण के कुछ विसंगति है। इसलिए इसने अभियोजक को आगे की सुनवाई के दौरान अधिक सतर्क रहने की सलाह दी।

    कोर्ट ने कहा,

    "आखिरकार, मामले के प्रभारी विशेष लोक अभियोजक से जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्री और अभियोजन पक्ष की ओर से जांच किए जाने वाले गवाहों के बारे में जागरूक होने की उम्मीद की जाती है।"

    जहां तक याचिकाकर्ता के अधिवक्ताओं का सवाल है, हाईकोर्ट ने अपेक्षा व्यक्त की कि वे मामले को प्राथमिकता देंगे और लंबी तारीख की मांग नहीं करेंगे।

    ट्रायल जज की ओर से हाईकोर्ट ने कहा,

    मामलों का जल्द से जल्द फैसला करने और किसी भी आकस्मिक स्थिति में देरी न करने की उम्मीद है। यह उस न्यायाधीश की जिम्मेदारी है, जिसने मामले को यह देखने के लिए जब्त किया कि दोनों पक्ष अपने-अपने दायित्वों का पालन करते हैं और यदि वे उचित कारण के बिना प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं तो मामले को जब्त करने वाले जज को उचित आदेश पारित करने की जिम्मेदारी है, जिसमें अधिरोपण भी शामिल है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर दोनों तरफ से भारी लागत और नाममात्र की लागत नहीं लगाई जाती है।"

    यह दर्ज करते हुए कि विचाराधीन कैदियों के ठाणे जिले के मामलों की सुनवाई नहीं होने के बारे में "दैनिक शिकायतें" हैं, हाईकोर्ट ने आगे सलाह दी कि यदि वर्तमान मामले में ट्रायल जज पर त्वरित मामलों का अत्यधिक बोझ है तो वह प्रधान जिला न्यायाधीश को उचित निर्देश/कार्रवाई हेतु इसे संज्ञान में लाने के लिए स्वतंत्र हैं।

    केस टाइटल: योगेश नारायण राउत बनाम महाराष्ट्र राज्य, एसएलपी (सीआरएल) डायरी नंबर 8181/2024

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