सामाजिक शांति और सुरक्षा को चुनौती देने वाले गंभीर अपराध में अभियोजन वापस लेने का आदेश न्यायोचित नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
17 Jan 2024 1:36 PM IST
घातक आयुध से सज्जित होकर बलवा करने और घर में घुसकर आग लगाकर नुकसान कारित करने के गंभीर अपराध में राज्य सरकार द्वारा जनहित में अभियोजन वापस लेने के निर्णय को राजस्थान हाईकोर्ट ने विधि के स्थापित सिद्धांतों के अनुरूप नहीं ठहराते हुए अहम न्यायिक दृष्टांत में कहा है कि सामाजिक शांति और सुरक्षा को चुनौती देने वाले अपराध में अभियोजन वापस लेना न्यायोचित नहीं।
जस्टिस फरजंद अली ने 51 पृष्ठ के अहम न्यायिक दृष्टांत 'मुबारक उर्फ सलमान बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य' में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 321 की विस्तृत विवेचना करते हुए कहा कि घटना से सम्बन्धित रंगीन फोटो, मौका नक्शा, गवाहों के बयान और स्वतंत्र साक्ष्य के आधार पर प्रथम दृष्टया मामला बनता है, ऐसे में बिना किसी ठोस आधार के राज्य सरकार द्वारा अभियोजन वापस नहीं लिया जा सकता।
उन्होंने आपराधिक न्याय तंत्र में अपर लोक अभियोजक की भूमिका को भी रेखांकित करते हुए कहा कि उन्हें ऐसा प्रार्थना पत्र पेश करने से पहले विवेक का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि वह राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी होने के साथ-साथ कोर्ट ऑफिसर भी होता है। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने अभियोजन वापस लेने सम्बन्धी राज्य सरकार का आदेश और उसके अनुसरण में आपराधिक कार्रवाई निरस्त करने सम्बन्धी विचारण न्यायालय के आदेश को रद्द करते हुए 29 आरोपियों के खिलाफ विचारण पुन: शुरू करने का आदेश दिया।
प्रकरण के अनुसार वर्ष 2007 में कपासन पुलिस थाने में पीडि़ता ने आरोपियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करवाई थी। जिसमें अनुसंधान के बाद पुलिस ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 435, 436, 454, 379 के तहत आरोप-पत्र पेश किया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश संख्या-3 चित्तौडग़ढ़ में आरोप तय होने से पहले वर्ष 2015 में राज्य सरकार के गृह विभाग ने जनहित में अभियोजन वापस ले लिया। इसी के क्रम में अपर लोक अभियोजक ने प्रार्थना-पत्र पेश कर कहा कि अभियोजन पक्ष कोई कार्रवाई नहीं करना चाहता। जिस पर न्यायालय ने कार्रवाई निरस्त करते हुए प्रकरण समाप्त कर दिया।
परिवादी मुबारक उर्फ सलमान का प्रतिनिधित्व करते हुए अधिवक्ता फिरोज खान ने हाईकोर्ट के समक्ष निगरानी याचिका दायर कर कहा कि वर्ष 2007 में आरोपियों ने एकराय होकर कई घरों पर हमला करते हुए पीडि़तों के घर जला दिए थे। पुलिस ने गहन अनुसंधान के बाद अपराध प्रमाणित मानकर आरोप पत्र पेश किया था। ऐसे में बिना किसी कारण सरकार मनमर्जी से अभियोजन वापस नहीं ले सकती। विचारण न्यायालय ने भी न्यायिक विवेक का उपयोग नहीं करते हुए यांत्रिकी रूप से विचारण निरस्त करने का आदेश पारित कर गंभीर विधिक त्रुटि की है।
हाईकोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान ने संरक्षक के रूप में राज्य सरकार को प्रत्येक नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का कर्तव्य सौंपा है। सामाजिक शांति और सुरक्षा को चुनौती देने वाला प्रत्येक अपराध समाज के विरूद्ध किया गया अपराध है और राज्य, समाज का प्रतिनिधि होने के नाते, इसके लिए आवश्यक संसाधनों के साथ आरोपियों पर मुकदमा चलाने का कार्यभार लेता है।
यही कारण है कि राज्य खुद को अभियोजन पक्ष के रूप में प्रस्तुत करता है। इस मामले में पीडि़त अपने जीवन और स्वतंत्रता पर हुए हमले का शिकार है। ऐसे में उसे उपचारविहीन नहीं छोड़ा जा सकता। हाईकोर्ट ने शीर्ष अदालत द्वारा पारित अहम न्यायिक दृष्टांतों की रोशनी में आक्षेपित आदेश को न्यायोचित नहीं ठहराते हुए रद्द कर दिया और विचारण न्यायालय को पुन: विचारण शुरू करने के निर्देश दिए।
रजाक खान हैदर, जोधपुर @ लाइव लॉ नेटवर्क
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