घायल गवाह की गवाही पर भरोसा किया जा सकता है, जब तक कि उसमें कोई बड़ा विरोधाभास न हो: राजस्थान हाइकोर्ट
Amir Ahmad
8 Jun 2024 8:36 AM GMT
राजस्थान हाइकोर्ट ने दोहराया कि किसी घायल गवाह की गवाही को केवल मामूली विसंगतियों के कारण खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह किसी अन्य को झूठा फंसाने के लिए वास्तविक हमलावर को नहीं छोड़ेगा।
जस्टिस सुदेश बंसल की पीठ ने कहा कि घायल गवाह की गवाही को कानून में विशेष दर्जा दिया गया और इसे तब तक खारिज नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसमें कोई बड़ी विसंगति या विरोधाभास न हो।
इस मामले में पीड़ित दो आरोपियों का प्रतिद्वंद्वी था और उसने आरोप लगाया कि बाद वाले ने उसे बेरहमी से चाकू मारा। सेशन कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की दोनों को धारा 307 के साथ धारा 34 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया था, इसलिए वर्तमान अपील पेश की गई।
आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता के बयानों में विरोधाभास और विसंगतियां थीं। यह भी तर्क दिया गया कि आरोपियों को शिकायतकर्ता ने केवल पक्षकारों के बीच प्रतिद्वंद्विता के कारण फंसाया था।
इन दो तथ्यों के प्रकाश में शिकायतकर्ता का साक्ष्य विश्वसनीय नहीं था। वैकल्पिक रूप से आरोपियों ने अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम 1958 की धारा 4 के तहत परिवीक्षा पर रिहा होने की मांग की।
दोनों पक्षकारों को सुनने के बाद न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला मुख्य रूप से पीड़ित-शिकायतकर्ता के बयानों पर निर्भर करता है। इसके बाद इसने इंद्रा देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के मामले पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया कि यदि परिस्थितियों से दुश्मनी के कारण झूठे आरोप की संभावना का संकेत मिलता है तो घायल गवाह की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए।
न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नरेश मामले में सुप्रीम कोर्ट के मामले का भी हवाला दिया, जिसमें यह देखा गया कि मामूली बातों पर विरोधाभास बयान को अविश्वसनीय नहीं बना सकता और घायल गवाह के साक्ष्य को तब तक उचित महत्व दिया जाना चाहिए, जब तक कि उसमें कोई बड़ा विरोधाभास और विसंगतियां न हों।
इन दोनों मामलों को एक साथ रखते हुए न्यायालय ने पाया कि पहले मामले में घायल के बयानों में बड़े विरोधाभास थे। वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता के साक्ष्य में विरोधाभास और विसंगतियां इतनी गंभीर नहीं थीं कि उसकी गवाही को अविश्वसनीय बनाया जा सके। न्यायालय ने यह भी माना कि दुश्मनी दोधारी हथियार है, जिसका इस्तेमाल दोनों पक्षों ने अपना मामला बनाने के लिए करने की कोशिश की थी।
समग्र तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए इसने अभियोजन पक्ष के मामले को ध्वस्त करने की बजाय उसे अधिक समर्थन दिया। इस प्रकार न्यायालय ने सेशन कोर्ट द्वारा शिकायतकर्ता के साक्ष्य को उचित महत्व दिए जाने में कोई अवैधता नहीं पाई। इस प्रकार धारा 307 के तहत अभियुक्त की दोषसिद्धि बरकरार रखी।
परिवीक्षा की प्रार्थना पर आगे बढ़ते हुए न्यायालय ने पाया कि अभियुक्त को परिवीक्षा पर रिहा करने की शक्ति का प्रयोग अपीलकर्ता न्यायालय द्वारा तभी किया जा सकता है, जब ऐसा करना समीचीन हो।
न्यायालय ने मोहम्मद हाशिम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले का हवाला दिया, जिसमें 'समीचीन' शब्द की व्याख्या की गई। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भले ही इसके कई अर्थ हो सकते हैं लेकिन न्यायालय को प्रावधान के उद्देश्य को उसके व्यापक आयाम देते हुए इसका अर्थ निकालने की आवश्यकता है। इसने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 4 न्यायालय पर अपराध की प्रकृति सहित मामले की परिस्थितियों पर विचार करने और इस बारे में राय बनाने का कर्तव्य डालती है कि क्या यह अपराधी को परिवीक्षा पर रिहा करने के लिए उपयुक्त था।
अन्य निर्णयों का संदर्भ लेने के बाद जिसमें अपराधियों को परिवीक्षा पर रिहा किया गया और अभियुक्त के वकील द्वारा उसकी प्रार्थना के समर्थन में दिए गए तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने अनुरोध स्वीकार कर लिया और निम्नलिखित टिप्पणी की:
“न्यायालय यह उचित और न्यायसंगत मानता है कि अपीलकर्ताओं को जेल की सजा की शेष अवधि के लिए कारावास में भेजने के बजाय अभियुक्त-अपीलकर्ताओं को परिवीक्षा का लाभ देना समीचीन होगा लेकिन साथ ही अपीलकर्ताओं पर 50,000 रुपये का अतिरिक्त जुर्माना लगाया जाता है, जो पीड़ित को मुआवजे के रूप में देय होगा।”
अपील आंशिक रूप से स्वीकार की गई, जहां धारा 307, आईपीसी के तहत दोनों अभियुक्तों की सजा बरकरार रखी, लेकिन उन्हें अधिनियम की धारा 4 के तहत परिवीक्षा पर रिहा कर दिया गया।
केस टाइटल- मुन्ना और अन्य बनाम राजस्थान राज्य