विशेषज्ञ समिति की आंसर की में केवल तभी हस्तक्षेप किया जा सकता है, जब वह स्पष्ट रूप से गलत हो, अस्पष्टता के मामले में उसे सही माना जाना चाहिए: राजस्थान हाईकोर्ट

Amir Ahmad

22 July 2024 8:18 AM GMT

  • विशेषज्ञ समिति की आंसर की में केवल तभी हस्तक्षेप किया जा सकता है, जब वह स्पष्ट रूप से गलत हो, अस्पष्टता के मामले में उसे सही माना जाना चाहिए: राजस्थान हाईकोर्ट

    राजस्थान हाईकोर्ट ने माना कि विशेषज्ञ समिति द्वारा प्रकाशित आंसर की की शुद्धता के संबंध में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप केवल तभी स्वीकार्य है, जब यह गलत साबित हो बिना किसी अनुमानात्मक तर्क प्रक्रिया या युक्तिकरण की प्रक्रिया के और केवल दुर्लभ या असाधारण मामलों में।

    यह कहा गया कि न्यायालय को उत्तरों की शुद्धता मान लेनी चाहिए। उस धारणा पर आगे बढ़ना चाहिए और संदेह की स्थिति में लाभ उम्मीदवार के बजाय परीक्षा प्राधिकरण को जाना चाहिए।

    चीफ जस्टिस मनींद्र मोहन श्रीवास्तव और जस्टिस शुभा मेहता की खंडपीठ पटवारी पद के लिए परीक्षा में उत्तर की सत्यता के संबंध में उठे विवाद के संबंध में दायर अपीलों पर सुनवाई कर रही थी।

    अपीलकर्ताओं का कहना था कि इस मुद्दे के संबंध में न्यायिक पुनर्विचार का दायरा बहुत सीमित होने के बावजूद विशेषज्ञ समिति द्वारा अंतिम रूप से तैयार की गई आंसर की स्पष्ट रूप से गलत थी। इसलिए न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता थी।

    दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि न्यायालय को इस बारे में अपनी राय देने में शामिल नहीं होना चाहिए कि सही उत्तर क्या हो सकता है, सिवाय उन बहुत ही दुर्लभ परिस्थितियों के जहां बिना किसी विस्तृत तर्कसंगत प्रक्रिया के आंसर की को स्पष्ट रूप से गलत साबित कर दिया गया हो।

    कानून की स्थिति का पता लगाने के लिए न्यायालय ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ मामलों का हवाला दिया। कानपुर यूनिवर्सिटी बनाम समीर गुप्ता के मामले में यह माना गया कि आंसर की को तब तक सही माना जाना चाहिए, जब तक कि यह गलत साबित न हो जाए, न कि तर्क की किसी अनुमानात्मक प्रक्रिया या तर्कसंगत प्रक्रिया द्वारा।

    यह स्पष्ट रूप से गलत साबित होना चाहिए, यानी यह ऐसा होना चाहिए कि विषय में पारंगत कोई भी विवेकशील व्यक्ति इसे सही न माने।

    यह कहा गया,

    “मुख्य उत्तरों के सही होने के बारे में धारणा है और संदेह की स्थिति में न्यायालय निस्संदेह मुख्य उत्तर को प्राथमिकता देगा मुख्य उत्तरों के बारे में जिनके बारे में मामला संदेह के दायरे से परे है। इस न्यायालय ने मान कि मुख्य उत्तर के अनुरूप उत्तर न देने के लिए छात्रों को दंडित करना अनुचित होगा अर्थात, ऐसा उत्तर जो गलत साबित हो गया हो।”

    उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य बनाम राहुल सिंह और अन्य के मामले का आगे संदर्भ दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सभी मिसालों का विश्लेषण किया और कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए। यह माना गया कि कानून अच्छी तरह से स्थापित है कि यह प्रदर्शित करने का दायित्व उम्मीदवार पर है कि आंसर की गलत थी और यह स्पष्ट गलती है, जो तर्क या युक्तिसंगतकरण की किसी भी अनुमानित प्रक्रिया के बिना स्पष्ट थी। यह भी माना गया कि न्यायालयों को ऐसे मामलों में बहुत संयम बरतने की आवश्यकता है तथा आंसर की की सत्यता को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने में अनिच्छुक होना चाहिए।

    न्यायालय ने कहा,

    “न्यायाधीश अकादमिक मामलों में विशेषज्ञों की भूमिका नहीं निभा सकते। जब तक अभ्यर्थी यह प्रदर्शित नहीं करता कि मुख्य उत्तर स्पष्ट रूप से गलत हैं, न्यायालय अकादमिक क्षेत्र में एडमिशन नहीं कर सकते, दोनों पक्षों द्वारा दिए गए तर्कों के पक्ष-विपक्ष का मूल्यांकन नहीं कर सकते तथा फिर इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते कि कौन सा उत्तर बेहतर या अधिक सही है।”

    इस विश्लेषण की पृष्ठभूमि में न्यायालय ने कहा कि आंसर की के बारे में शिकायतों की विशेषज्ञों की समिति द्वारा जांच की जानी चाहिए तथा यदि समिति की राय में आंसर की स्पष्ट रूप से गलत है तो अभ्यर्थियों द्वारा दिए गए उत्तर का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यह भी माना गया कि न्यायिक पुनर्विचार का दायरा अपवादात्मक मामलों तक सीमित है, जहां न्यायालय पाता है कि मॉडल उत्तर स्पष्ट रूप से गलत थे, बिना तर्क की अनुमानात्मक प्रक्रिया या युक्तिकरण की प्रक्रिया को शामिल किए।

    यह कहा गया कि न्यायालय विशेषज्ञ समिति से भिन्न निर्णय लेने के लिए विशेषज्ञ की भूमिका नहीं अपना सकता विशेषकर तब जब बाद वाला निर्णय प्रामाणिक पाठ पर आधारित हो। उत्तर के बारे में संदेह की स्थिति में उनके उत्तर को सही मानकर संदेह का लाभ विशेषज्ञ समिति को दिया जाना चाहिए।

    इस प्रकाश में वर्तमान मामले के तथ्यों पर न्यायालय ने पाया कि विवादित प्रश्न का उत्तर ऐतिहासिक तथ्य था, जिस पर कोई एकमत नहीं था। चूंकि विशेषज्ञ समिति का निर्णय प्रामाणिक पाठ पर आधारित था। इसलिए न्यायालय ने माना कि इसे सही उत्तर माना जाना चाहिए।

    तदनुसार, अपीलों को खारिज कर दिया गया।

    केस टाइटल- महेंद्र कुमार जाट एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य।

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