एक ही आरोप के लिए दो FIR नहीं हो सकतीं, ट्रायल कोर्ट ने संज्ञान लेने से पहले निगेटिव रिपोर्ट पर विचार नहीं किया: राजस्थान हाईकोर्ट ने व्यक्ति को आरोपों से मुक्त किया
Amir Ahmad
21 Feb 2025 11:56 AM IST

एक ही तरह के आरोपों वाली दो FIR में दर्ज व्यक्ति के खिलाफ आरोपों को खारिज करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर पीठ ने दोहराया कि एक ही तरह के आरोपों के लिए दो मामले एक साथ नहीं चल सकते।
कोर्ट ने आगे कहा कि ट्रायल कोर्ट ने संज्ञान लेते समय FIR के संबंध में पुलिस द्वारा दायर नेगेटिव फाइनल रिपोर्ट में उल्लिखित आधारों पर ध्यान नहीं दिया।
जस्टिस फरजंद अली ने अपने आदेश में कहा,
"FIR नंबर 02/1994 और FIR नंबर 09/1994 में लगाए गए तथ्य और आरोप बिल्कुल एक जैसे हैं। 19.03.1990 को हुए एक लेनदेन से संबंधित हैं, जिसके तहत सरस्वती को एक प्लॉट बेचा गया, जो सुगनी देवी का था। इस न्यायालय को लगता है कि मजिस्ट्रेट ने स्थापित कानूनी प्रस्ताव का ध्यान नहीं रखा कि एक ही आरोप के लिए दो मामले एक साथ नहीं चल सकते हैं। टी.टी. एंटनी बनाम केरल राज्य और अन्य, 2001 (6) SCC 181 के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जहां सत्य पदार्थ आरोप और लेनदेन की प्रकृति समान है तो दूसरी FIR दर्ज करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उपरोक्त मुद्दे पर विचार न करके ट्रायल कोर्ट ने वास्तव में कानून की गलती की है।”
अदालत ने आगे कहा कि जांच के बाद जांच एजेंसी ने रिपोर्ट दी कि याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई मामला नहीं पाया गया लेकिन संज्ञान आदेश पारित करने से पहले ट्रायल कोर्ट ने इस पर विचार नहीं किया।
हाईकोर्ट ने कहा कि कानून का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि जब भी किसी मजिस्ट्रेट को निगेटिव फाइनल रिपोर्ट पर अपराध का संज्ञान लेना होता है तो उसके लिए यह अनिवार्य है कि वह निगेटिव फाइनल रिपोर्ट में उल्लिखित आधारों पर ध्यान दे।
अदालत ने कहा,
"आलोचना के तहत आदेश में मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया। मेरा मानना है कि मजिस्ट्रेट को अपराध का संज्ञान लेने और प्रक्रिया जारी करने से पहले पुलिस रिपोर्ट से अपनी असहमति दिखानी चाहिए थी। आगे की जांच करने पर इस अदालत को लगता है कि पुनर्विचार कोर्ट अपने पुनर्विचार अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहा है। उनसे मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश की वैधता और शुद्धता की जांच करने की अपेक्षा की गई लेकिन उन्होंने कानून के सवाल पर विचार करने की जहमत नहीं उठाई बल्कि मजिस्ट्रेट की राय से सहमत होने की कोशिश की। मेरा मानना है कि दोनों आदेश स्पष्ट रूप से अवैध हैं। मामले के कानूनी और तथ्यात्मक पहलू की गलत व्याख्या के बाद पारित किए गए। इसलिए वे टिकने योग्य नहीं हैं।"
हाईकोर्ट ट्रायल कोर्ट (मजिस्ट्रेट कोर्ट) के आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसने याचिकाकर्ता के खिलाफ धोखाधड़ी के अपराध का संज्ञान लिया। साथ ही पुनर्विचार न्यायालय (सेशन कोर्ट) के आदेश के खिलाफ भी जिसने ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की। याचिकाकर्ता के खिलाफ धोखाधड़ी के आरोप में FIR दर्ज की गई, जिसमें फर्जी NOC जारी करने के आधार पर प्लॉट की बिक्री का आरोप लगाया गया।
उसी लेनदेन के संबंध में याचिकाकर्ता के खिलाफ पहले से ही एक और FIR दर्ज की गई। बाद की FIR में पुलिस ने निगेटिव फाइनल रिपोर्ट दायर की लेकिन शिकायतकर्ता द्वारा दायर विरोध के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने संज्ञान लिया और याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रक्रिया जारी की।
इसके बाद हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार की और ट्रायल कोर्ट और रिवीजन कोर्ट दोनों द्वारा पारित आदेश रद्द कर दिया। इस प्रकार इसने याचिकाकर्ता को आरोपों से मुक्त कर दिया।
केस टाइटल: चंपा लाल ओझा बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।

