UAPA के तहत आरोपी को अंतरिम जमानत देने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

Amir Ahmad

30 Aug 2024 10:46 AM GMT

  • UAPA के तहत आरोपी को अंतरिम जमानत देने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत आरोपी व्यक्ति को अंतरिम जमानत देने से इनकार किया। कोर्ट ने उक्त यह देखते हुए दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) या विशेष प्रावधान के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।

    जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस कुलदीप तिवारी ने कहा,

    "CrPC या विशेष कानून (सुप्रा) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इस न्यायालय को कोई अंतरिम जमानत देने का अधिकार प्राप्त हो। इसके विपरीत सीआरपीसी में मौजूद प्रावधान जो संबंधित विशेष कानून पर लागू होते हैं, आरोपी को CrPC की धारा 439 के तहत नियमित जमानत का दावा करने का विशेषाधिकार देते हैं।"

    ये टिप्पणियां राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम 2008 की धारा 21 के तहत अपील की सुनवाई करते हुए की गईं, जिसमें ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई। इसके तहत यूएपीए के तहत आरोपित आरोपियों को अंतरिम जमानत देने से इनकार किया गया। याचिकाकर्ता बलजीत सिंह और अन्य को पुलिस पर बंदूक तानने और हथगोला फेंकने की कोशिश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। अभियोजन पक्ष के अनुसार उनके पास से कई हथियार बरामद किए गए।

    मार्च 2022 में मामले में आरोपपत्र दाखिल किया गया और पुलिस ने अगस्त में दाखिल पूरक आरोपपत्र में उनके खिलाफ UAPA के प्रावधानों को लागू किया। हालांकि चालान के साथ UAPA के तहत अभियोजन की मंजूरी नहीं थी। सिंह की ओर से पेश हुए वकील ने मंजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य, [2023 (4) आरसीआर (आपराधिक) 323] का हवाला दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा कि अगर मंजूरी पर फैसला नहीं लिया जाता है तो आरोपी को अंतरिम जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए।

    राज्य के वकील ने कहा कि अधिकारियों ने मामले में मंजूरी मांगने वाली फाइल वापस कर दी। इसलिए UAPA के तहत मंजूरी नहीं दी गई। आगे कहा गया कि सिंह के खिलाफ आईपीसी और आर्म्स एक्ट के तहत दो और मामले दर्ज किए गए हैं।

    बयानों को सुनने के बाद खंडपीठ ने मंजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य, [2023 (4) आरसीआर (आपराधिक) 323] में एक समन्वय पीठ की राय से असहमति जताई, जिसमें UAPA मामले में यह माना गया,

    "यदि मंजूरी पर कोई निर्णय नहीं लिया जाता है और 2008 के नियमों में निर्दिष्ट अवधि के भीतर सूचित नहीं किया जाता तो आरोपी को अंतरिम जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए।"

    पीठ की ओर से बोलते हुए जस्टिस ठाकुर ने कहा कि मंजीत सिंह का फैसला जजबीर सिंह बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत है।

    इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "आरोपी के लिए यह तर्क देना खुला हो सकता है कि उसके त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया गया, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हुआ। यह अधिक से अधिक आरोपी को सुनवाई में देरी के आधार पर नियमित जमानत के लिए प्रार्थना करने का अधिकार दे सकता है। लेकिन यह की धारा 167(2) के प्रावधानों के तहत वैधानिक/डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए प्रार्थना करने का आधार नहीं हो सकता है।"

    न्यायालय ने कहा,

    "ऊपर उद्धृत पैराग्राफ को सरलता से पढ़ने पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि स्पेशल जज के समक्ष मंजूरी के आदेश को प्रस्तुत करने में अत्यधिक देरी, यदि अंततः अभियुक्त के विरुद्ध लगाए गए आरोप के आधार पर मुकदमे की प्रगति के संबंध में देरी का कारण बनती है, या जैसा कि धारा 173 सीआरपीसी के तहत दायर रिपोर्ट में प्रस्तावित है तो अभियुक्त पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी के आदेश को रिकॉर्ड पर न रखने से उत्पन्न होने वाली देरी, बल्कि निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई के जनादेश का उल्लंघन नहीं कर सकती, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में है।"

    खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि सीआरपीसी के तहत कोई प्रावधान नहीं है या यूएपीए के तहत अभियुक्त को अंतरिम जमानत देने का कोई विशेष प्रावधान नहीं है।

    उपर्युक्त के आलोक में न्यायालय ने मामले में योग्यता नहीं पाई और ट्रायल कोर्ट का विवादित आदेश बरकरार रखा।

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