आजीवन कारावास की सजा काट रहे दोषियों के लिए स्वतंत्रता सबसे कीमती चीज, राज्य समय से पहले रिहाई देते समय अपनी पसंद के हिसाब से रिहाई नहीं दे सकता: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
Amir Ahmad
24 Feb 2025 8:48 AM

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य अपनी पसंद के हिसाब से रिहाई नहीं दे सकता। केवल समान स्थिति वाले दोषियों में से कुछ चुनिंदा लोगों को समय से पहले रिहाई की छूट नहीं दे सकता और ऐसा दृष्टिकोण बहुत अधिक अन्यायपूर्ण है।
जस्टिस हरप्रीत सिंह बरार ने कहा,
"सभी क्षेत्रों के लोग स्वतंत्रता के विचार को अपने दिल के करीब रखते हैं। ऐतिहासिक रूप से वे इससे अलग न होने के लिए अपनी शक्ति में सब कुछ करते रहे हैं। आजीवन कारावास की सजा काट रहे एक दोषी के लिए स्वतंत्रता सबसे कीमती चीज है। यह नहीं माना जाना चाहिए कि रिहा होने पर सभी दोषी अपने अभियोजकों से बदला लेंगे। जेल में अपराधी का आचरण, मनःस्थिति, अपराध की गंभीरता, सामाजिक पृष्ठभूमि और पैरोल पर रहते हुए उसके व्यवहार को समय से पहले रिहाई के सवाल पर निर्णय लेने से पहले उचित रूप से विचार किया जाना चाहिए।"
जस्टिस कृष्ण अय्यर के शब्दों में,
"सामाजिक न्याय हमारे संविधान की पहचान है और अपनी स्वतंत्रता खोने के खतरे में पड़ा छोटा आदमी सामाजिक न्याय का उपभोक्ता है।”
न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला। न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य का कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष रूप से कार्य करे और अपने द्वारा बनाई गई नीति के अनुसार आगे बढ़े, जिससे किसी स्पष्ट अंतर के अभाव में समान स्थिति वाले व्यक्तियों के बीच कोई भेदभाव न हो।
ये टिप्पणियां उनकी जमानत याचिका पर अस्वीकृति आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए की गईं। याचिकाकर्ता पवार कुमार को आपराधिक मामले में दोषी ठहराया गया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। कुमार के वकील ने तर्क दिया कि उनका मामला अप्रैल 2002 में जारी नीति के अंतर्गत आता है। नीति में किसी दोषी के मामले को स्थगित करने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। याचिकाकर्ता का मामला इस तथ्य के कारण स्थगित किया गया कि वह 12 मामलों में शामिल है और उनमें से वह पहले ही 08 मामलों में बरी हो चुका है और 03 अन्य मामलों में वह जमानत पर है।
प्रस्तुतियां सुनने के बाद न्यायालय ने कहा कि समय से पहले रिहाई के लिए राज्य द्वारा स्थापित नीति सभी दोषियों पर समान रूप से लागू होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों को सीधे प्रभावित करती है।
जस्टिस बरार ने आगे कहा,
"लागू नीति के अनुसार समय से पहले रिहाई के लिए विचार किए जाने के योग्य होने के बाद राज्य बिना उचित कारण दर्ज किए उसे इस रियायत से वंचित नहीं कर सकता। राज्य का कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष रूप से कार्य करे और अपने द्वारा तैयार की गई नीति के अनुसार इस तरह आगे बढ़े कि किसी समझदार अंतर के अभाव में समान स्थिति वाले व्यक्तियों के बीच भेदभाव न हो।"
पोहलू @ पोलू राम बनाम हरियाणा राज्य और अन्य पर भरोसा करते हुए कहा गया कि जिस अपराध के लिए किसी अभियुक्त को पहले से ही दंडित किया गया, उसका हवाला देते हुए समय से पहले रिहाई से इनकार करना "दोहरा संकट" होगा।
न्यायालय ने हरियाणा राज्य बनाम जगदीश [FIR 2010 एससी 1690] में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का भी उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया कि आजीवन कारावास की सजा काट रहे अपराधी की समयपूर्व रिहाई के मामले पर विचार करते समय अधिकारियों को उसके मामले पर मुख्य रूप से निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए विचार करना चाहिए:
1. क्या अपराध समाज को प्रभावित किए बिना एक व्यक्तिगत अपराध था।
2. क्या भविष्य में अपराध करने की कोई संभावना थी।
3. क्या अपराधी ने अपराध करने की अपनी क्षमता खो दी थी।
4. क्या अपराधी को और अधिक कारावास में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य था।
5. अपराधी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अन्य समान परिस्थितियां।
न्यायालय ने कहा कि अपराध रहित समाज की आशा करना भोलापन होगा, हालांकि©अपराधियों के पुनर्वास की दिशा में प्रयास करना तथा उन्हें समाज के क्रियाशील सदस्य के रूप में खुद को पुनः आकार देने की अनुमति देना राज्य के कल्याणकारी दृष्टिकोण के अनुरूप होगा।
इसमें कहा गया,
"दंड का सर्वोपरि लक्ष्य निवारण है तथा इस भावना का उपयोग बर्बर न्याय को महिमामंडित करने के लिए हथियार के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।"
परिणामस्वरूप, न्यायालय ने विवादित आदेश रद्द कर दिया तथा सक्षम प्राधिकारी को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता के मामले पर नए सिरे से विचार करे तथा इस आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त होने की तिथि से 4 सप्ताह की अवधि के भीतर लागू नीति के अनुसार तथा जगदीश के मामले (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तथा पोहलू @ पोलू राम के मामले (सुप्रा) में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के अनुपात को ध्यान में रखते हुए निर्णय ले।
याचिका का निपटारा करते हुए न्यायालय ने कहा,
"यह स्पष्ट किया जाता है कि इस न्यायालय द्वारा दी गई नीति अथवा दिशा-निर्देशों से कोई भी विचलन याचिकाकर्ता को अधिकार प्रदान करेगा। भारत के संविधान के अनुच्छेद 215 के तहत उचित आवेदन दायर कर संबंधित अधिकारी के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मांग की जाए।"
केस टाइटल: पवन कुमार बनाम हरियाणा राज्य और अन्य