पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ अनुचित टिप्पणियों वाले एकल पीठ के आदेश पर स्वतः संज्ञान लिया
Amir Ahmad
7 Aug 2024 4:30 PM IST
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने जस्टिस राजबीर सहरावत द्वारा पारित आदेश में की गई सुप्रीम कोर्ट की गरिमा एवं गरिमा को कम करने वाली टिप्पणियों का स्वतः संज्ञान लिया।
न्यायाधीश ने हाईकोर्ट की अवमानना कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की, यह देखते हुए कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह मानने की प्रवृत्ति थी कि वह अधिक सुप्रीम है।
चीफ जस्टिस शील नागू और जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल ने कहा,
"यह न्यायालय अपील के तहत अपनी सीमित शक्तियों के बारे में सचेत है लेकिन मिदनापुर पीपुल्स कॉप. बैंक लिमिटेड और अन्य बनाम चुन्नीलाल नंदा और अन्य, (2006) 5 एससीसी 399 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर विचार करते हुए, जिसमें यह स्पष्ट शब्दों में माना गया कि जहां एकल न्यायाधीश आदेश पारित करता है, जो यद्यपि खंडपीठ के समक्ष अपील योग्य नहीं है, लेकिन ऐसा करते समय एकल न्यायाधीश द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति और अधिकार क्षेत्र से परे है। वहां अपील पर पूरी तरह से विचार किया जा सकता है।”
परिणामस्वरूप हाईकोर्ट ने एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को अगली सुनवाई (22 अगस्त) तक के लिए स्थगित कर दिया, जिससे कानून के शासन और सुप्रीम कोर्ट और इस न्यायालय की प्रतिष्ठा और महिमा को और अधिक नुकसान न पहुंचे। यह ध्यान देने योग्य है कि सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने हाई कोर्ट के आदेश में की गई अनुचित टिप्पणियों को हटा दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जज को चेतावनी देते हुए कहा कि भविष्य में उनसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की खंडपीठ के आदेशों पर विचार करते समय अधिक सावधानी बरतने की अपेक्षा की जाती है।
आदेश में पांच जजों की पीठ ने कहा,
“जस्टिस राजबीर सेहरावत ने भारत के सुप्रीम कोर्ट के संबंध में ऐसी टिप्पणियां की हैं, जो गंभीर चिंता का विषय हैं। न्यायिक प्रणाली की पदानुक्रमिक प्रकृति के संदर्भ में न्यायिक अनुशासन का उद्देश्य सभी संस्थानों की गरिमा को बनाए रखना है, चाहे वह जिला कोर्ट हो या हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट हो।”
एकल न्यायाधीश के आदेश में की गई टिप्पणियां अंतिम आदेश के लिए अनावश्यक थीं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित पिछले आदेशों के संबंध में अनावश्यक टिप्पणियां बिल्कुल अनुचित हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित आदेशों का अनुपालन करना पसंद का मामला नहीं है बल्कि संवैधानिक दायित्व का मामला है।
पक्षकार किसी आदेश से व्यथित हो सकते हैं। न्यायाधीश कभी भी उच्च संवैधानिक मंच द्वारा पारित आदेश से व्यथित नहीं होते। इस तरह की टिप्पणियों से पूरी न्यायिक मशीनरी बदनाम होती है। इससे न केवल इस न्यायालय की गरिमा प्रभावित होती है, बल्कि हाईकोर्ट की भी गरिमा प्रभावित होती है।"
केस टाइटल- स्वतः संज्ञान मामला