पति द्वारा नवजात शिशु के भरण-पोषण के लिए पत्नी के माता-पिता से पैसे मांगना 'दहेज' नहीं: पटना हाइकोर्ट
Amir Ahmad
8 April 2024 3:55 PM IST
पटना हाइकोर्ट ने कहा कि यदि पति अपने नवजात शिशु के पालन-पोषण और भरण-पोषण के लिए पत्नी के पैतृक घर से पैसे मांगता है तो ऐसी मांग दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 (i) के अनुसार 'दहेज' की परिभाषा के दायरे में नहीं आती।
जस्टिस बिबेक चौधरी की पीठ ने पति द्वारा आईपीसी की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम 1961 की धारा 4 के तहत अपनी सजा को चुनौती देने वाली पुनर्विचार याचिका स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की।
संक्षेप में मामला
याचिकाकर्ता (पति) का विवाह विपरीत पक्ष नंबर 2 (पत्नी) के साथ वर्ष 1994 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ। इसके बाद वे पति-पत्नी के रूप में साथ रहने लगे और उनके मिलन के दौरान तीन बच्चे हुए- दो लड़के और एक लड़की। लड़की का जन्म वर्ष 2001 में हुआ।
पत्नी ने आरोप लगाया कि उनकी बेटी के जन्म के तीन साल बाद याचिकाकर्ता और उसके रिश्तेदारों ने लड़की के भरण-पोषण और देखभाल के लिए उसके पिता से 10,000 रुपये की मांग की। यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता और अन्य वैवाहिक संबंधों की मांग पूरी न होने पर पत्नी को प्रताड़ित किया गया।
पनी सजा को चुनौती देते हुए पति ने हाइकोर्ट का रुख किया, जिसमें उसके वकील ने तर्क दिया कि पत्नी द्वारा याचिकाकर्ता (पति) और अन्य आरोपियों के खिलाफ लगाए गए आरोप सामान्य और सर्वव्यापी प्रकृति के हैं। इसलिए उनकी सजा का आदेश रद्द किया जाना चाहिए।
हाइकोर्ट की टिप्पणियां
पक्षकारों के वकीलों की बात सुनने तथा मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने पाया कि इस संशोधन में एकमात्र मुद्दा यह है कि क्या दुल्हन पक्ष के बच्चे के लिए दूल्हे तथा उसके परिवार के सदस्यों द्वारा उचित भरण-पोषण की मांग दहेज मानी जाएगी या नहीं।
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए न्यायालय ने 1961 के अधिनियम की धारा 2 (i) की जांच की तथा पाया कि दहेज का अनिवार्य तत्व विवाह के बदले में दिया गया धन, संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति का भुगतान या मांग है।
इसके अलावा न्यायालय ने पाया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के स्पष्टीकरण (बी) में स्पष्ट रूप से 'दहेज' शब्द का उल्लेख नहीं है। हालांकि न्यायिक उदाहरणों ने यह स्थापित किया कि संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की किसी भी अवैध मांग को पूरा करने से संबंधित उत्पीड़न को दहेज निषेध अधिनियम की धारा 2 (i) में उल्लिखित दहेज की परिभाषा के दायरे में माना जाना चाहिए।
मंजू राम कलिता बनाम असम राज्य 2009 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोप स्थापित करने के लिए अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना आवश्यक है कि महिला के साथ लगातार क्रूरता की गई, या कम से कम शिकायत दर्ज करने के समय के करीब है। इस संदर्भ पर विचार करते हुए मामले के विवरण की जांच करने पर न्यायालय ने पाया कि पत्नी की शिकायत और साक्ष्य से संकेत मिलता है कि पति ने अपनी बेटी के भरण-पोषण के लिए 10,000 रुपये की मांग की।
इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि पति और पत्नी दोनों ही हाशिए पर स्थित सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जहां यह प्रथा है कि बेटियां गर्भावस्था के दौरान बच्चे के जन्म तक अपने माता-पिता के घर पर रहती हैं और फिर जब बच्चा तीन से छह महीने का हो जाता है तो मां और बच्चे को आमतौर पर वैवाहिक घर भेज दिया जाता है। इस अवधि के दौरान सभी खर्च पत्नी के परिवार द्वारा वहन किए जाते हैं। मामले के इस तथ्य को देखते हुए न्यायालय ने पाया कि रुपये की मांग उचित नहीं है।
10 हजार का भुगतान शिकायतकर्ता और याचिकाकर्ता के बीच विवाह के लिए नहीं किया गया, बल्कि यह लड़की के भरण-पोषण के लिए किया गया। इसलिए यह 1961 के अधिनियम के अनुसार धारा 498A IPC के अनुसार 'दहेज' की परिभाषा के दायरे में नहीं आता।
परिणामस्वरूप निचली अदालत द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा का फैसला और आदेश रद्द कर दिया गया और पुनर्विचार याचिका स्वीकार कर ली गई।
केस टाइटल - नरेश पंडित बनाम बिहार राज्य और अन्य