मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के RSS में शामिल होने पर पूर्व में लगाए गए प्रतिबंध की निंदा की

Amir Ahmad

26 July 2024 12:14 PM IST

  • मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के RSS में शामिल होने पर पूर्व में लगाए गए प्रतिबंध की निंदा की

    RSS में शामिल होने की अनुमति मांगने वाली सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी द्वारा दायर याचिका में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने भारत संघ द्वारा जारी पिछले कार्यालय ज्ञापनों पर कड़ी फटकार लगाई, जिसमें संगठन को प्रतिबंधित श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया था।

    इंदौर में बैठी पीठ ने कहा,

    “RSS जैसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध संगठन की स्वैच्छिक सदस्यता, राजनीतिक प्रकृति के अलावा धार्मिक, सामाजिक, परोपकारी, शैक्षिक जैसी अन्य गतिविधियों के लिए कार्यकारी निर्देशों के माध्यम से प्रतिबंधित नहीं की जा सकती। ऐसा केवल विधिवत अधिनियमित कानून के माध्यम से किया जाना चाहिए, यदि ऐसा करने की आवश्यकता महसूस की गई थी।”

    जस्टिस सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी और जस्टिस गजेंद्र सिंह की खंडपीठ ने कहा कि कार्यकारी द्वारा तैयार आधिकारिक ज्ञापन RSS में शामिल होने पर रोक नहीं लगा सकते, क्योंकि ये ज्ञापन अनुच्छेद 13(3)(ए) के तहत देश का कानून नहीं हैं।

    न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा,

    “भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(3)(ए) के तहत जारी किए गए ओएम कानून नहीं होते, खासकर तब जब वे केंद्र सरकार के अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा कथित रूप से संप्रभु के नाम पर कागज के टुकड़े पर जारी किए जाते हैं।”

    हाल ही में केंद्र सरकार ने 09.07.2024 को नया ओएम नंबर 34013/1(एस)/2016-एस्टट (बी) जारी किया, जिसने बदले में 30.11.1966, 25.07.1970 और 28.10.1980 के विवादित ओएम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का उल्लेख हटा दिया।

    इस आशय का हलफनामा भारत संघ द्वारा 11.07.2024 को न्यायालय के समक्ष दायर किया गया। न्यायालय ने RSS और उसके स्टूडेंट यूनियन तथा गैर सरकारी संगठनों द्वारा की जाने वाली गतिविधियों की गैर-राजनीतिक प्रकृति के बारे में भी विस्तार से टिप्पणी की तथा बताया कि किस तरह केंद्र सरकार ने इसे सूची में शामिल करने के अपने दृष्टिकोण में गुमराह किया।

    न्यायालय ने इस बात पर दुख जताया कि सरकार को यह स्वीकार करने में पांच दशक लग गए कि RSS को कर्मचारियों के लिए प्रतिबंधित संगठनों की सूची में गलत तरीके से रखा गया था।

    “RSS की गैर-राजनीतिक गतिविधियों को सांप्रदायिक, धर्मनिरपेक्षता विरोधी तथा राष्ट्रीय हित के विरुद्ध बताने वाले ओ.एम. जारी करना एक ऐसा निर्णय है, जिसके न केवल संगठन के लिए बल्कि समुदाय तथा सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के महान हित में इससे जुड़ने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों के लिए भी गंभीर परिणाम होंगे”

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि RSS सरकारी नौकरशाही पदानुक्रम के बाहर एकमात्र राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित स्व-संचालित स्वैच्छिक संगठन है।

    RSS को न जुड़ें संगठनों की सूची से हटाने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग तथा गृह मंत्रालय, भारत सरकार को निर्देश दिया गया कि वे ताजा जारी परिपत्र की विषय-वस्तु को अपनी आधिकारिक वेबसाइट के होम पेज पर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करें। न्यायालय ने कहा कि 9 दिनों के भीतर उक्त सर्कुलर को केंद्र सरकार के सभी संबंधित विभागों और उपक्रमों को भी भेजा जाना चाहिए।

    याचिकाकर्ता ने सीसीएस (आचरण), 1965 के नियम 5 के उपनियम 12, 12ए और 13 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल है।

    आगे की टिप्पणियां

    “ये टिप्पणियां यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं कि सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में काम करने वाले किसी भी प्रतिष्ठित स्वैच्छिक संगठन को सरकार की मर्जी के अनुसार कार्यकारी निर्देशों/ओएम के माध्यम से फिर से सूली पर न चढ़ाया जाए, जिस तरह से पिछले लगभग 5 दशकों से RSS के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है।''

    अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि प्रासंगिक टिप्पणियां करना क्यों आवश्यक था, हालांकि जुलाई में ताजा ओएम जारी करने पर यह मामला निरर्थक माना जा सकता था।

    केंद्र सरकार द्वारा दशकों पहले जारी की गई तीन अधिसूचनाओं के बारे में अदालत ने सवाल किया कि तत्कालीन सरकारों द्वारा RSS को सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष-विरोधी क्यों माना जाता था।

    अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ऐसा कोई अनुभवजन्य अध्ययन, रिपोर्ट या सर्वेक्षण नहीं था, जो केंद्र सरकार को इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचा सके।

    अदालत ने पूछा कि क्या कभी कोई ठोस निष्कर्ष था जो बताता हो कि RSS या इसकी संबद्ध गतिविधियों के साथ केंद्र सरकार के कर्मचारियों की भागीदारी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को कैसे जन्म देगी।

    पीठ द्वारा बार-बार पूछताछ के बावजूद भारत संघ ने कोई जवाब दाखिल नहीं किया, इसलिए न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणी की,

    “न्यायालय यह मानने के लिए बाध्य है और यह मानता है कि शायद प्रासंगिक समय पर कभी कोई सामग्री, अध्ययन, सर्वेक्षण या रिपोर्ट नहीं थी, जिसके आधार पर सत्तारूढ़ दल इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो कि देश के सांप्रदायिक ताने-बाने और धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखने के लिए RSS की गैर-राजनीतिक गतिविधियों में केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की भागीदारी और सहभागिता पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।”

    न्यायालय ने टिप्पणी की कि विवादित ओएम ने उचित औचित्य के बिना दशकों तक अनुच्छेद 19(1) के तहत लाखों सरकारी कर्मचारियों की स्वतंत्रता को सीमित किया।

    हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि RSS 'सबसे बड़े गैर-स्वैच्छिक संगठनों में से एक' है, इसलिए गृह मंत्रालय द्वारा इस तरह के प्रतिबंध के अधीन नहीं होना चाहिए था।

    अदालत ने कहा,

    "देश की सेवा करने की कई केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की आकांक्षाएं, इस प्रतिबंध के कारण इन पांच दशकों में कम हो गईं, जिसे केवल तब हटाया गया जब इसे वर्तमान कार्यवाही के माध्यम से इस अदालत के संज्ञान में लाया गया।"

    अदालत ने कहा कि 'न जुड़ें' संगठनों में RSS को शामिल करने का कोई कारण नहीं था। भले ही सरकार भविष्य में कर्मचारियों के लिए 'न जुड़ें' सूची में RSS का नाम वापस धकेलने का फैसला करती है, लेकिन ऐसा कार्यपालिका की मर्जी के अनुसार नहीं किया जा सकता है।

    अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा,

    RSS को न जुड़ें संगठनों की सूची में शामिल करने और बाहर करने के लिए रातोंरात यांत्रिक रूप से काम नहीं किया जा सकता है बल्कि इसके लिए सरकार के उच्चतम स्तर पर गहन विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक हितों की स्थिति में ही इसे उक्त सूची में वापस रखा जा सकता है।

    केस टाइटल- पुरुषोत्तम गुप्ता बनाम भारत संघ और अन्य

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