अवैध हिरासत आदेश को मंज़ूरी देने पर MP हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को फटकारा, जुर्माने की चेतावनी

Amir Ahmad

6 Oct 2025 3:27 PM IST

  • अवैध हिरासत आदेश को मंज़ूरी देने पर MP हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को फटकारा, जुर्माने की चेतावनी

    मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक पिता की याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार के प्रति कड़ी नाराज़गी व्यक्त की। यह याचिका बेटे की अवैध हिरासत से संबंधित थी। कोर्ट ने पाया कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत पारित हिरासत आदेश में तथ्यात्मक गलतियां होने के बावजूद राज्य सरकार ने उसे मंज़ूरी दी, जिससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य सरकार ने बिना किसी विवेक के इस्तेमाल के आदेश को अनुमोदित किया।

    जस्टिस विवेक अग्रवाल और अवनिंद्र कुमार सिंह की खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा कि अगर राज्य सरकार आदेश को पढ़ने की ज़हमत उठाती तो वह गलत तथ्यों का उल्लेख होने के कारण मामले को ज़िलाधिकारी को वापस भेज देती।

    पिछली सुनवाई में याचिकाकर्ता ने 9 सितंबर के मूल हिरासत आदेश की कॉपी प्रस्तुत की थी। इसमें बताया गया कि पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट में जिस व्यक्ति का नाम है, वह नीरजकांत द्विवेदी है, जबकि हिरासत आदेश याचिकाकर्ता के बेटे सुशांत बैस के संबंध में पारित किया गया। यह भी बताया गया कि आदेश के अनुसार हिरासत में लिए गए व्यक्ति की गतिविधियां शहडोल ज़िले की सार्वजनिक शांति को भंग करेंगी, जबकि वह व्यक्ति वास्तव में शहडोल से 100 किलोमीटर दूर बुढवा का निवासी है।

    हिरासत आदेश पारित करने वाले शहडोल के ज़िलाधिकारी ने स्वीकार किया कि उन्होंने गलती से नीरजकांत द्विवेदी का उल्लेख किया। इसके बजाय सुशांत बैस होना चाहिए था।

    कोर्ट ने ज़िलाधिकारी की कार्रवाई और राज्य सरकार द्वारा की गई बड़ी चूक की व्याख्या करने के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव को व्यक्तिगत हलफनामा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने अधिकारी से यह भी पूछा कि अवैध हिरासत आदेश के लिए राज्य सरकार पर अनुकरणीय जुर्माना क्यों न लगाया जाए। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने राज्य को वह मूल फ़ाइल पेश करने का निर्देश दिया, जिसमें ज़िलाधिकारी के आदेशों के अनुमोदन के लिए मामले को संसाधित किया गया।

    खंडपीठ ने NSA की धारा 3 की उप-धारा (4) का हवाला देते हुए आश्चर्य व्यक्त किया। यह प्रावधान राज्य सरकार के लिए एक सुरक्षा उपाय के रूप में कार्य करता है, जिसके तहत ज़िलाधिकारी के आदेशों को 12 दिनों के भीतर मंज़ूरी देने से पहले स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का इस्तेमाल करना अनिवार्य है।

    राज्य के वकील ने तर्क दिया कि हिरासत आदेश राज्य सरकार को भेजा ही नहीं गया। हालांकि, खंडपीठ ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि धारा 3(4) न केवल आदेश की रिपोर्ट करने बल्कि उसके आधार और अन्य प्रासंगिक विवरण भी भेजने का प्रावधान करती है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि आदेश वास्तव में नहीं भेजा गया तो राज्य को ज़िलाधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए।

    मामले की अगली सुनवाई 7 अक्टूबर, 2025 को सूचीबद्ध की गई।

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