सामान्य श्रेणी के यात्रियों को प्रीमियम श्रेणी में यात्रा करने वालों के समान सुरक्षा मानकों का अधिकार: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने रेलवे से कहा
Amir Ahmad
18 Nov 2025 5:55 PM IST

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि प्रत्येक यात्री, चाहे वह किसी भी श्रेणी में यात्रा कर रहा हो, रेल प्रशासन से सुरक्षा, देखभाल और सतर्कता के समान मानकों का हकदार है।
जस्टिस हिमांशु जोशी की पीठ ने एक यात्री के भीड़भाड़ वाली ट्रेन से गिरने के कारण अपने दोनों पैर गंवाने के बाद सुरक्षित यात्रा की स्थिति सुनिश्चित करने में विफल रहने के लिए रेलवे को उत्तरदायी ठहराया।
पीठ ने कहा,
"यह न्यायालय यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य है कि रेल प्रशासन को सामान्य श्रेणी में यात्रा करने वाले यात्रियों के जीवन और सम्मान को उसी तरह मान्यता देनी चाहिए। उनकी रक्षा करनी चाहिए जैसे वह प्रीमियम ट्रेनों की उच्च श्रेणी में यात्रा करने वालों के लिए करता है। मानव जीवन का मूल्य खरीदे गए टिकट की श्रेणी के साथ नहीं बदलता है। प्रत्येक यात्री चाहे वह किसी भी श्रेणी का हो रेलवे से सुरक्षा देखभाल और सतर्कता के समान मानकों का हकदार है।"
यह मामला 1 जून 2012 की एक घटना से संबंधित है, जब अपीलकर्ता अपने परिवार के साथ दक्षिण एक्सप्रेस में आमला से भोपाल जा रहा था और उसके पास वैध यात्रा टिकट था। कोच में अत्यधिक भीड़ होने के कारण अपीलकर्ता चलती ट्रेन से धक्का देकर गिर गया और पहियों के नीचे आ गया जिससे उसके दोनों पैर घुटने के ऊपर से कट गए।
रेलवे दावा ट्रिब्यूनल भोपाल ने अपीलकर्ता के मुआवजे का दावा शुरू में खारिज कर दिया था। ट्रिब्यूनल ने निष्कर्ष निकाला कि उसने चलती ट्रेन से उतरने का प्रयास किया, जिससे उसकी अपनी सुरक्षा खतरे में पड़ गई।
इस निष्कर्ष को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि वह भीड़ के दबाव के कारण गिरा था और उसने कोई आपराधिक या लापरवाहीपूर्ण कार्य नहीं किया था।
रिकॉर्ड की जांच करने पर पीठ ने पाया कि अपीलकर्ता के वास्तविक यात्री होने या चलती ट्रेन से गिरने के कारण उसे लगी चोटों के बारे में कोई विवाद नहीं था।
अदालत को रेलवे के इस बचाव में कोई दम नहीं लगा कि अपीलकर्ता चलती ट्रेन से उतरने की कोशिश कर रहा था। अदालत ने इस स्पष्टीकरण को 'पूरी तरह से असंतोषजनक' और 'कड़ी फटकार' का पात्र बताया।
प्रबंधन में व्यवस्थागत खामियों को उजागर करते हुए अदालत ने कहा कि लंबी दूरी की ट्रेनों में प्रवेश और निकास के लिए अलग-अलग स्थान नहीं होते, जिससे कोच के दरवाजों के पास स्वाभाविक रूप से भीड़भाड़ हो जाती है। अदालत ने प्लेटफ़ॉर्म पर घोषणाओं के अभाव और यात्रियों की नियमित आवाजाही के अभाव का भी ज़िक्र किया, जो ऐसे कारक हैं, जो यात्रियों को ट्रेन रुकने से पहले ही दरवाजे की ओर जाने के लिए मजबूर करते हैं।
पीठ ने कहा,
"ऐसी परिस्थितियों में सुरक्षित और समय पर बाहर निकलने की वास्तविक मजबूरी के साथ, गेट की ओर पहले से ही बढ़ रहे यात्री को लापरवाह नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत रेलवे की ज़िम्मेदारी है कि वह गेट पर भीड़भाड़ को रोकने के लिए नियमित रूप से चढ़े और उतरे, उचित घोषणा जारी रखे और कोच के अंदर सुरक्षित वातावरण प्रदान करे।"
अदालत ने ज़ोर देकर कहा कि सामान्य श्रेणी में यात्रा करने वाले यात्रियों को प्रीमियम ट्रेनों की उच्च श्रेणी में यात्रा करने वालों के समान सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए।
रेलवे की 'अपनी लापरवाही' या आपराधिक कृत्य की दलील खारिज करते हुए अदालत ने माना कि दावेदार न तो ट्रेन से कूदा था और न ही किसी निषिद्ध गतिविधि में शामिल था। बल्कि उसकी चोट रेलवे की व्यवस्थागत कमियों का सीधा परिणाम थी।
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि रेलवे पीड़ित पर बोझ डालकर रेलवे अधिनियम की धारा 124-ए के तहत वैधानिक दायित्व से बच नहीं सकता।
बता दें, रेलवे अधिनियम की धारा 124-ए किसी भी अप्रिय दुर्घटना में किसी यात्री के घायल होने या मृत्यु होने की स्थिति में दायित्व की सीमा बताती है।
पीठ ने अपील स्वीकार कर ली और मामला ट्रिब्यूनल को वापस भेज दिया और उसे मौजूदा अनुसूची और दिशानिर्देशों के अनुसार मुआवज़ा देने का निर्देश दिया।

