प्राथमिक दृष्टि में अपराध का उल्लेख संज्ञान नहीं माना जा सकता: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कहा- FIR दर्ज करने के निर्देश मात्र से मजिस्ट्रेट ने संज्ञान नहीं लिया

Amir Ahmad

6 Oct 2025 12:27 PM IST

  • प्राथमिक दृष्टि में अपराध का उल्लेख संज्ञान नहीं माना जा सकता: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कहा- FIR दर्ज करने के निर्देश मात्र से मजिस्ट्रेट ने संज्ञान नहीं लिया

    मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि मजिस्ट्रेट किसी निजी शिकायत पर केवल यह उल्लेख करता है कि प्राथमिक दृष्टि में संज्ञेय अपराध बनता है। पुलिस को FIR दर्ज कर जांच करने का निर्देश देता है तो इसे अपराध का संज्ञान लेना नहीं कहा जा सकता।

    जस्टिस मिलिंद रमेश फडके की सिंगल बेंच ने कहा कि ऐसा आदेश दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के अंतर्गत आता है, न कि CrPC की धारा 200 के तहत संज्ञान लेने के दायरे में।

    अदालत ने कहा,

    “मजिस्ट्रेट के आदेश से यह स्पष्ट है कि उन्होंने केवल यह कहा कि प्राथमिक दृष्टि में संज्ञेय अपराध बनता है। पुलिस को FIR दर्ज कर जांच करने का निर्देश दिया। शिकायतकर्ता या गवाहों के बयान दर्ज नहीं किए गए और न ही धारा 200 या 202 के अंतर्गत कोई जांच प्रारंभ की गई। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि मजिस्ट्रेट ने अपराध का संज्ञान लिया।”

    पूरा मामला

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि उसके रिश्तेदार ने पुलिस उपनिरीक्षक (प्रतिवादी नंबर 2) से कहा कि उसकी कार घर के सामने से हटाई जाए। इससे उपनिरीक्षक नाराज होकर अपशब्द कहने लगे। जब याचिकाकर्ता ने बीच-बचाव किया तो पुलिसकर्मी अन्य जवानों के साथ वापस आया उसे और उसके रिश्तेदार को अवैध रूप से गिरफ्तार कर थर्ड-डिग्री टॉर्चर दिया गया।

    इसके बाद याचिकाकर्ता ने CrPC की धारा 156(3) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के समक्ष शिकायत दर्ज की। मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट और साक्ष्यों को देखने के बाद पुलिस को FIR दर्ज कर जांच करने के निर्देश दिए।

    FIR में कई धाराएं जोड़ी गईं, जिनमें शामिल थीं, धारा 166 (लोक सेवक द्वारा कानून का उल्लंघन), 341 (ग़लत ढंग से रोकना), 323 (मारपीट), 324 (ख़तरनाक हथियार से चोट), 506 (आपराधिक डराना), 294 (अश्लील कार्य), 120-बी (आपराधिक साजिश) और 34 (सामान्य अभिप्राय)।

    उपनिरीक्षक ने सेशन कोर्ट में चुनौती दी। सेशन कोर्ट ने यह कहते हुए कार्यवाही को आंशिक रूप से रद्द किया कि मजिस्ट्रेट ने जब “प्राथमिक दृष्टि में अपराध बनता है तो यह संज्ञान लेने के समान है।

    हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट के इस दृष्टिकोण को गलत और विधि-विरुद्ध बताया।

    “सेशन कोर्ट का यह निष्कर्ष कि 'प्राथमिक दृष्टि में अपराध बनता है', कहना संज्ञान लेने के बराबर है सुप्रीम कोर्ट के स्थापित कानून के विपरीत है।”

    अदालत ने 7वें एडिशनल सेशन जज ग्वालियर द्वारा पारित 5 दिसंबर, 2024 का आदेश रद्द करते हुए याचिका स्वीकार कर ली।

    Next Story