विभागीय पदोन्नति समिति के निर्णयों में न्यायिक हस्तक्षेप प्रतिबंधित एमपी हाईकोर्ट ने मानकों को स्पष्ट किया

Amir Ahmad

21 Oct 2024 11:45 AM IST

  • विभागीय पदोन्नति समिति के निर्णयों में न्यायिक हस्तक्षेप प्रतिबंधित एमपी हाईकोर्ट ने मानकों को स्पष्ट किया

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ग्वालियर: जस्टिस अनिल वर्मा ने जूनियर इंजीनियर (विद्युत सुरक्षा) एम.एच. कुरैशी द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें असिस्टेंट इंजीनियर (विद्युत सुरक्षा) के पद पर पदोन्नति से इनकार करने को चुनौती दी गई।

    न्यायालय ने विभागीय पदोन्नति समिति (DPC) का निर्णय बरकरार रखा, जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा आवश्यक मानदंडों को पूरा करने में विफलता का हवाला दिया गया। इस बात पर जोर दिया कि DPC के निर्णयों में न्यायिक हस्तक्षेप केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही उचित है।

    मामले की पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता, एम.एच. कुरैशी 1980 से जूनियर इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। 2005 में DPC ने असिस्टेंट इंजीनियर (विद्युत सुरक्षा) और सहायक विद्युत निरीक्षक के पद पर पदोन्नति के लिए उनके मामले की समीक्षा की, लेकिन खराब वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) के कारण उन्हें अयोग्य पाया। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि 2001-2002 को छोड़कर 1999-2000 से 2003-2004 तक की उनकी एसीआर उन्हें नहीं बताई गई, जिससे प्रतिकूल प्रविष्टियों को चुनौती देने के उनके अधिकार का उल्लंघन हुआ।

    उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि वह 2001-2002 की प्रतिकूल टिप्पणियों को अनदेखा करते हुए वरिष्ठता-सह-योग्यता मानदंड के आधार पर पदोन्नति के लिए उनके मामले पर विचार करने के लिए समीक्षा डीपीसी का आदेश दे, जो समाधान के लिए लंबित थीं।

    तर्क

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसकी पदोन्नति को अनुचित तरीके से असंप्रेषित एसीआर के आधार पर अस्वीकार कर दिया गया, जो प्रतिकूल प्रविष्टियों को चुनौती देने के उसके अधिकार का उल्लंघन करता है। उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम काशीनाथ खेर (1996) और यू.पी. जल निगम बनाम प्रभात चंद्र जैन (1996) सहित कई सुप्रीम कोर्ट के मामलों का हवाला देते हुए कहा कि पदोन्नति के निर्णयों के लिए असंप्रेषित प्रतिकूल प्रविष्टियों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।

    राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि डीपीसी का निर्णय पिछले पांच वर्षों (1999-2000 से 2003-2004) के वैध एसीआर पर आधारित था। याचिकाकर्ता पदोन्नति के लिए आवश्यक न्यूनतम अंक प्राप्त करने में विफल रहा था। डीपीसी के मानदंडों ने अनिवार्य किया कि कोई भी ACR, GHA (औसत से नीचे) श्रेणी में नहीं आना चाहिए। याचिकाकर्ता को 2001-2002 की अवधि के लिए “GHA" और चार अन्य वर्षों के लिए “GA" (औसत) मिला था जिससे उसे पदोन्नति से अयोग्य घोषित कर दिया गया।

    अदालत का तर्क

    अदालत ने इस बात पर जोर देकर शुरुआत की कि DPC के फैसलों की न्यायिक पुनर्विचार उन मामलों तक सीमित है, जहां स्पष्ट अवैधता, वैधानिक नियमों का उल्लंघन या दुर्भावना का सबूत है। इस मामले में डीपीसी ने वरिष्ठता-सह-योग्यता मानदंड का पालन किया। पिछले पांच वर्षों की एसीआर पर विचार किया, जिसमें याचिकाकर्ता को उसके कम अंकों और एक वर्ष में औसत से कम ग्रेडिंग के आधार पर अयोग्य पाया गया था।

    इसके अलावा अदालत ने याचिकाकर्ता के असंचारित ACR पर निर्भरता खारिज की, यह देखते हुए कि 2001-2002 एसीआर को चुनौती दी गई। याचिकाकर्ता अन्य प्रतिकूल प्रविष्टियों को चुनौती देने में विफल रहा। न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता ने न तो अपील दायर की और न ही एसीआर को समय पर चुनौती देने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किए। परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता की प्रतिकूल प्रविष्टिया डीपीसी के मूल्यांकन के लिए वैध रहीं।

    भारत संघ बनाम एस.के. गोयल (2007) और डिप्लोमा इंजीनियर्स संगठन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2007) सहित कई उदाहरणों का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि डीपीसी को पदोन्नति के लिए उम्मीदवारों की योग्यता और फिटनेस का आकलन करने में विवेकाधिकार प्राप्त है। अदालतों को तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जब तक कि डीपीसी के निर्णय पक्षपात या कानूनी उल्लंघन से प्रभावित न हों।

    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वरिष्ठता-सह-योग्यता के आधार पर पदोन्नति के लिए दोनों योग्यताएं आवश्यक हैं। यदि उम्मीदवार योग्यता-आधारित मानकों को पूरा करने में विफल रहता है तो केवल वरिष्ठता ही उन्नति की गारंटी नहीं दे सकती है।

    न्यायालय ने पुष्टि करते हुए याचिका खारिज की कि डीपीसी ने अपने अधिकारों के भीतर काम किया और याचिकाकर्ता ने आवश्यक बेंचमार्क को पूरा नहीं किया। चूंकि कोई प्रक्रियागत अनियमितता नहीं पाई गई, इसलिए न्यायालय ने डीपीसी के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

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