कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने Aureliano Fernandes मामले किन नियमों और सिद्धांतों को ज़रूरी बताया

Himanshu Mishra

3 Jun 2025 1:53 PM

  • कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने Aureliano Fernandes मामले किन नियमों और सिद्धांतों को ज़रूरी बताया

    सुप्रीम कोर्ट का फैसला Aureliano Fernandes बनाम State of Goa and Others (2023) भारत में कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक निर्णय है।

    इस निर्णय में कोर्ट ने केवल एक व्यक्तिगत मामले को नहीं सुलझाया, बल्कि Sexual Harassment of Women at Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2013 यानी PoSH Act और Natural Justice (प्राकृतिक न्याय) के सिद्धांतों को मज़बूती से लागू किया। यह फैसला बताता है कि प्रशासनिक न्याय और संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को किस तरह संतुलित किया जाना चाहिए।

    संविधान की रूपरेखा: अनुच्छेद 309, 310 और 311 (Constitutional Framework: Articles 309, 310, 311)

    कोर्ट ने बताया कि अनुच्छेद 309, 310 और 311 सिविल सेवाओं (Civil Services) के लिए एक संयुक्त व्यवस्था (Integrated Framework) बनाते हैं। अनुच्छेद 309 सेवा की शर्तों (Conditions of Service) के लिए कानून बनाने की शक्ति देता है। अनुच्छेद 310 'Doctrine of Pleasure' (सेवा समाप्ति का विशेषाधिकार) के सिद्धांत को दर्शाता है, जबकि अनुच्छेद 311 सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त (Dismiss) करने से पहले सुनवाई का अधिकार (Right to be heard) सुनिश्चित करता है।

    कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 311 में Natural Justice का संवैधानिक रूप से समावेश है। अगर किसी सरकारी कर्मचारी को बिना सुनवाई के बर्खास्त किया जाए, तो यह Article 14 (समानता का अधिकार) और Article 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन होगा।

    PoSH Act और प्रक्रिया का पालन (PoSH Act and Procedural Compliance)

    PoSH Act के अनुसार, हर संस्था में Internal Complaints Committee (ICC) या संबंधित समिति बनाना अनिवार्य है। Central Civil Services Rules (CCS Rules) के Rule 14 के अनुसार, यदि कोई गंभीर दंड (Major Penalty) देना हो, तो पूरी जांच प्रक्रिया (Inquiry Process) होनी चाहिए। हालांकि, PoSH मामलों में यह समिति ही जांच प्राधिकरण (Inquiring Authority) बन सकती है।

    कोर्ट ने कहा कि "as far as practicable" (जहाँ तक संभव हो) का अर्थ यह नहीं है कि Natural Justice की अनदेखी की जा सकती है। यदि शिकायत की जांच इतनी जल्दी की जाए कि आरोपी को अपना पक्ष रखने का समय न मिले, तो यह न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। सिर्फ पीड़िता को न्याय देने के लिए, आरोपी के अधिकारों को नहीं छीना जा सकता।

    प्राकृतिक न्याय और अनुच्छेद 14 (Natural Justice and Article 14)

    कोर्ट ने यह दोहराया कि Natural Justice और Article 14 (समानता का अधिकार) एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके दो मुख्य सिद्धांत हैं:

    1. Nemo Judex in Causa Sua – कोई व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता।

    2. Audi Alteram Partem – हर व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार होना चाहिए।

    कोर्ट ने Maneka Gandhi बनाम Union of India (1978) के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि जीवन और स्वतंत्रता सिर्फ किसी कानून के तहत नहीं छीनी जा सकती, बल्कि प्रक्रिया Just, Fair and Reasonable (न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित) होनी चाहिए।

    सेवा नियम और पूर्ववर्ती निर्णय (Service Rules and Judicial Precedents)

    कोर्ट ने कहा कि PoSH Committee को भी Rule 14 की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए, चाहे वो थोड़ा लचीला हो।

    इस विषय पर कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख किया, जैसे:

    • Union of India बनाम Tulsiram Patel (1985): जहां बताया गया कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही सुनवाई का अधिकार नहीं दिया जा सकता।

    • A.K. Kraipak बनाम Union of India (1969): प्रशासनिक निर्णयों में भी Natural Justice का पालन जरूरी है।

    • Swadeshi Cotton Mills बनाम Union of India (1981): अगर कानून चुप है, तब भी Natural Justice लागू होता है।

    • Madhyamam Broadcasting Ltd. बनाम Union of India (2023): जहां कोर्ट ने कहा कि प्रक्रिया की निष्पक्षता (Procedural Fairness) का स्वयं में भी महत्व है, न कि सिर्फ परिणाम के लिए।

    इन सभी मामलों में कोर्ट ने यह स्थापित किया कि उचित प्रक्रिया (Due Process) न केवल कानूनी अधिकार है, बल्कि संविधान का एक अभिन्न अंग है।

    जांच में त्रुटियाँ और अंतिम निष्कर्ष (Inquiry Defects and Court's Conclusion)

    कोर्ट ने पाया कि इस मामले में जांच समिति ने बहुत जल्दीबाज़ी में कार्य किया। आरोपी को दस्तावेज़ों का अध्ययन करने, गवाहों से सवाल पूछने और अपने गवाह लाने का पर्याप्त समय नहीं दिया गया। वकील की मदद से अपना पक्ष रखने का भी अवसर नहीं मिला।

    इन सारी कमियों के कारण पूरी प्रक्रिया ही Natural Justice के विपरीत मानी गई और आरोपी की बर्खास्तगी को अवैध घोषित किया गया। कोर्ट ने मामले को फिर से 2009 के उस बिंदु पर वापस भेजा, जहाँ से प्रक्रिया बिगड़ी थी। साथ ही निर्देश दिया कि इस बार पूरी प्रक्रिया Natural Justice के सिद्धांतों पर आधारित हो।

    PoSH Act को लागू करने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश (Wider Implementation of PoSH Act)

    कोर्ट ने अपने फैसले में केवल इस एक मामले के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश की सभी संस्थाओं के लिए गहन दिशा-निर्देश दिए। आदेश दिया गया कि:

    • हर सरकारी विभाग, यूनिवर्सिटी, कॉलेज और हॉस्पिटल ICC या LC बनाएँ और वेबसाइट पर सभी विवरण उपलब्ध कराएँ।

    • PoSH Committee के सदस्यों को प्रशिक्षण (Training) दिया जाए कि शिकायत मिलने से लेकर रिपोर्ट देने तक कैसे निष्पक्ष जांच करनी है।

    • महिला कर्मचारियों और छात्राओं को जागरूक करने के लिए नियमित सेमिनार और वर्कशॉप्स आयोजित किए जाएँ।

    • Judicial Academies और Legal Services Authorities को अपने सालाना कार्यक्रमों में PoSH Act को शामिल करना होगा।

    इन दिशा-निर्देशों से यह स्पष्ट हुआ कि यह मामला पूरे देश की संस्थाओं को जिम्मेदार बनाने का एक अवसर था।

    Aureliano Fernandes बनाम State of Goa मामला हमें यह सिखाता है कि संवेदनशील मामलों में न्याय केवल पीड़ित को ही नहीं, बल्कि आरोपी को भी मिलना चाहिए। अगर जांच प्रक्रिया अनुचित हो, तो उस पर आधारित फैसला टिक नहीं सकता।

    सुप्रीम कोर्ट ने PoSH Act, Natural Justice और Constitutional Safeguards के बीच संतुलन बनाते हुए एक ऐसी मिसाल कायम की है, जो सभी संस्थाओं के लिए मार्गदर्शक है। यह फैसला यह भी याद दिलाता है कि किसी को दंडित करना उतना ही संवेदनशील विषय है, जितना कि किसी को न्याय देना।

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