Water (Prevention and Control of Pollution) Act, 1974 क्या है और यह क्यों बनाया गया?
Himanshu Mishra
19 Aug 2025 7:50 PM IST

जल अधिनियम क्या है (What the Water Act is)
Water (Prevention and Control of Pollution) Act, 1974 भारत का प्रमुख कानून है जो जल प्रदूषण (Water Pollution) को रोकने, नियंत्रित करने और कम करने के लिए बनाया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य जल को “स्वच्छ और उपयोग योग्य” बनाए रखना है।
इसके लिए इसमें Central Pollution Control Board (CPCB) और State Pollution Control Boards (SPCBs) की स्थापना की गई। ये संस्थाएँ मानक तय करने, अनुमति (Consent) देने और प्रदूषकों के खिलाफ कार्रवाई करने का काम करती हैं।
इसे क्यों बनाया गया (Why the Act was enacted)
1970 के दशक में भारत में तेज़ी से औद्योगिकीकरण और शहरीकरण हुआ। कारखानों और नगरपालिकाओं से निकलने वाले अपशिष्ट ने नदियों, झीलों और भूजल को गंदा करना शुरू कर दिया। पुराने स्थानीय कानून और प्रशासनिक उपाय इस समस्या को नियंत्रित करने में नाकाफी थे।
इसी समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पर्यावरण संरक्षण की चर्चा तेज़ हुई, खासकर 1972 के Stockholm Conference के बाद। भारत ने भी आधुनिक पर्यावरण कानूनों की ओर कदम बढ़ाया और 1974 में इस अधिनियम को लागू किया। इसका उद्देश्य एक ऐसा राष्ट्रीय ढाँचा तैयार करना था जिसमें तकनीकी मानकों और कानूनी उपायों के जरिए जल प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।
संस्थागत ढांचा (Institutional Architecture)
इस अधिनियम के तहत दो स्तर पर संस्थाएँ बनाई गईं — CPCB और SPCBs। CPCB राष्ट्रीय स्तर पर सलाह देने, शोध (Research) कराने, मानक बनाने और राज्यों के कार्यों का समन्वय करने का काम करता है। दूसरी ओर SPCBs राज्य स्तर पर उद्योगों की जाँच, अनुमति (Consent) देने, शर्तें तय करने और प्रदूषण पर नियंत्रण करने का दायित्व निभाते हैं। इस प्रकार अधिनियम राष्ट्रीय नीति और राज्य स्तरीय कार्यान्वयन को जोड़ता है।
प्रमुख प्रावधान (Major Provisions)
अधिनियम में यह स्पष्ट किया गया है कि कोई भी उद्योग या इकाई बिना राज्य बोर्ड की अनुमति (Consent) के अपशिष्ट (Effluents) को नदी, नाले, कुएँ, भूमिगत जल या भूमि पर नहीं डाल सकता। राज्य बोर्ड इस अनुमति को शर्तों के साथ जारी कर सकता है या अस्वीकार कर सकता है। अधिनियम में अपशिष्ट के प्रकार, जाँच और नमूना लेने की व्यवस्था तथा आवश्यक होने पर प्रदूषण रोकने के उपाय करने का अधिकार भी बोर्ड को दिया गया है।
प्रवर्तन और दंड (Enforcement and Penalties)
जल अधिनियम में केवल नियम ही नहीं बल्कि दंड (Penalties) भी निर्धारित किए गए हैं। यदि कोई उद्योग बिना अनुमति के अपशिष्ट डालता है या बोर्ड द्वारा दी गई शर्तों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ जुर्माना और कारावास (Imprisonment) की सज़ा हो सकती है। बार-बार उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त दंड तय किए गए हैं। अधिनियम में यह भी कहा गया है कि यदि अपराध किसी कंपनी द्वारा किया गया है तो कंपनी के अधिकारी भी जिम्मेदार होंगे।
ज़मीनी स्तर पर कामकाज (How the Act works on the ground)
व्यवहार में उद्योगों को पहले “Consent to Establish” और फिर “Consent to Operate” लेना होता है। आवेदन बोर्ड को दिया जाता है और बोर्ड तय करता है कि किन शर्तों पर अनुमति दी जाए। यदि कोई इकाई इन शर्तों का उल्लंघन करती है तो बोर्ड नोटिस जारी कर सकता है, सुधारात्मक कदम उठाने के निर्देश दे सकता है, और आवश्यकता पड़ने पर उद्योग को बंद करने का आदेश भी दे सकता है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय (Landmark Judicial Interventions)
अदालतों ने इस अधिनियम के क्रियान्वयन में बड़ी भूमिका निभाई है।
Vellore Citizens Welfare Forum v. Union of India में सुप्रीम कोर्ट ने Precautionary Principle और Polluter Pays Principle को लागू किया और कहा कि प्रदूषक (Polluter) को न केवल पीड़ितों को मुआवज़ा देना होगा बल्कि पर्यावरण को पुनर्स्थापित करने की लागत भी उठानी होगी।
M.C. Mehta से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले टैनरी और अन्य उद्योगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की और कई इकाइयों को बंद करने या स्थानांतरित करने के आदेश दिए।
Indian Council for Enviro-Legal Action v. Union of India (Bichhri case) में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को बंद करने और सख्त जिम्मेदारी तय करने के आदेश दिए। इन मामलों के जरिए अदालतों ने अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) से जोड़कर देखा।
अन्य कानूनों से संबंध (Interplay with Other Laws)
जल अधिनियम अकेले नहीं चलता। इसके साथ-साथ Water Cess Act, Air (Prevention and Control of Pollution) Act, और 1986 का Environment Protection Act भी लागू हैं। इसके अलावा National Green Tribunal (NGT) जैसी संस्थाएँ भी प्रदूषण नियंत्रण में अहम भूमिका निभाती हैं। कई बार विभिन्न एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र टकराते हैं लेकिन अदालतों ने मिलकर काम करने के आदेश दिए हैं।
चुनौतियाँ और कमियाँ (Challenges and Criticisms)
हालाँकि अधिनियम ने एक मजबूत ढाँचा बनाया है, पर कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। राज्य बोर्डों के पास पर्याप्त तकनीकी और मानव संसाधन नहीं हैं। कई उद्योग बिना अनुमति के चलते हैं या झूठे दस्तावेज़ जमा कराते हैं। आपराधिक मुकदमों में सज़ा दिलाना कठिन और समय लेने वाला होता है। इसके अलावा आज प्रदूषण केवल उद्योगों तक सीमित नहीं है, बल्कि कृषि से होने वाला रसायनिक बहाव (Runoff), शहरी गंदा पानी और भूजल प्रदूषण भी बड़ी समस्याएँ हैं जिन्हें यह अधिनियम पूरी तरह से हल नहीं कर पाता।
हालिया सुधार और वर्तमान महत्व (Recent Reforms and Relevance)
समय-समय पर संसद और अदालतों ने अधिनियम में सुधार और कड़े प्रवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया है। डिजिटल मॉनिटरिंग, आधुनिक प्रदूषण नियंत्रण तकनीक और न्यायिक आदेशों ने अधिनियम के क्रियान्वयन को मज़बूत किया है। हाल के वर्षों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानवाधिकारों के संदर्भ में स्वच्छ जल की अहमियत और बढ़ गई है, जिससे जल अधिनियम की प्रासंगिकता बनी हुई है।
Water Act, 1974 ने पहली बार भारत में जल प्रदूषण से निपटने के लिए एक संगठित और राष्ट्रीय स्तर का कानून प्रस्तुत किया। इसने CPCB और SPCBs जैसी संस्थाएँ बनाकर तकनीकी और कानूनी व्यवस्था तैयार की। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों ने इसमें Polluter Pays Principle और Precautionary Principle जैसे सिद्धांत जोड़कर इसे और मजबूत किया। हालाँकि संसाधनों की कमी और नए प्रकार के प्रदूषण जैसी चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं, लेकिन यह अधिनियम भारतीय पर्यावरण कानून का मूल स्तंभ बना हुआ है।

