प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार क्या है जानिए इससे संबंधित प्रावधान

Shadab Salim

12 Oct 2022 5:04 AM GMT

  • प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार क्या है जानिए इससे संबंधित प्रावधान

    प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार (Right to private defence) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा करने का अधिकार है। यही कारण है कि अपनी निजी सुरक्षा के लिए किये गए कार्यों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 96 से 106 के अन्तर्गत आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है।

    एक पुराने मामले में कहा गया है कि अभियुक्त को अपनी सुरक्षा उस समय तक करनी चाहिए जब तक कि संकट टल न जाए और अपनी सुरक्षा आक्रमण की आशंका बने रहने तक जारी रखी जानी चाहिये।

    चाको मधैई बनाम स्टेट के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि- अवैध आक्रमण से अपनी रक्षा अपने स्वयं के प्रभावशाली प्रतिरोध से करने का प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नागरिकों को विधि का एक अमूल्य उपहार है।

    प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार एक सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति करता है।

    अमेरिका में भी यह धारणा प्रचलित है कि आक्रमण की स्थिति में पीछे हटने की बजाय उसका विरोध एवं प्रतिकार किया जाना चाहिये। आक्रमण की स्थिति में पीछे हटने या भागने का प्रयास करने का अर्थ है- निश्चित मृत्यु।

    कुल मिलाकर प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का समर्थन किया गया है। लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि- प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार केवल बचाव के लिए है, बदला लेने या प्रतिशोध के लिए नहीं। इसका उपयोग 'ढाल' के रूप में किया जा सकता है, 'तलवार' के रूप में नहीं।" प्रतिरक्षा का अधिकार संहिता की धारा 96 में यह कहा गया है कि- कोई बात अपराध नहीं है, जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है।

    इसी प्रकार धारा 97 में यह प्रावधान किया गया है कि धारा 99 में अन्तर्विष्ट निर्बन्धनों के अध्यधीन हर व्यक्ति को अधिकार है कि पहला मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले किसी अपराध के विरुद्ध अपने शरीर और किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की प्रतिरक्षा करे,

    दूसरी किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध जो चोरी, लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार की परिभाषा में आने वाला अपराध है या जो चोरी, लूट, रिष्टि या आपराधिक अतिचार करने का प्रयत्न है, अपनी या किसी अन्य व्यक्ति की चाहे जंगम चाहे स्थावर सम्पत्ति की प्रतिरक्षा करे।

    इस प्रकार धारा 96 एवं 97 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने 'शरीर' एवं 'सम्पत्ति' की प्रतिरक्षा करने का अधिकार प्रदान किया गया है। यह अधिकार बालक, विकृतचित्त, मदोन्मत आदि के कार्यों के विरुद्ध भी प्राप्त है, जैसा कि धारा 93 में उपबन्धित है।

    धारा 98 ऐसे व्यक्ति के कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जो विकृतचित्त आदि हो

    जबकि कोई कार्य, जो अन्यथा कोई अपराध होता, उस कार्य को करने वाले व्यक्ति के बालकपन, समझ की परिपक्वता के अभाव, चित्तविकृत या मतता के कारण, या उस व्यक्ति के किसी भ्रम के कारण, वह अपराध नहीं है, तब हर व्यक्ति उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार रखता है जो वह उस कार्य के वैसा अपराध होने की दशा में रखता।

    दृष्टान्त

    (क) य, पागलपन के असर में, क को जान से मारने का प्रयत्न करता है। य किसी अपराध का दोषी नहीं है। किन्तु क को प्राइवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार है, जो यह य के स्वस्थचित्त होने की दशा में रखता।

    (ख) क रात्रि में एक ऐसे गृह में प्रवेश करता है जिसमें प्रवेश करने के लिए वह वैध रूप से हकदार है। य, सद्भावपूर्वक क को गृह भेदक समझकर क पर आक्रमण करता है। यहाँ य इस भ्रम के अधीन क पर आक्रमण करके कोई अपराध नहीं करता है। किन्तु क, य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा यही अधिकार रखता है, जो वह तब रखता, जब य उस भ्रम के अधीन कार्य न करता । 'योगेन्द्र मोरारजी बनाम स्टेट ऑफ गुजरात" के मामले में शरीर को प्राइवेट प्रतिरक्षा के सम्बन्ध में निम्नांकित सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं

    (क) प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ऐसे किसी कृत्य के विरुद्ध नहीं मिलता जो भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत अपराध नहीं है।

    (ख) इस अधिकार का उपयोग केवल तभी किया जा सकता है जब शरीर के प्रति कोई वास्तविक एवं तत्काल खतरा सामने हो।

    (ग) यह एक प्रतिरक्षात्मक अधिकार है, प्रतिकारात्मक, दण्डात्मक अथवा प्रतिशोधात्मक नहीं।

    (घ) इसका विस्तार मृत्यु कारित करने तक तब होता है जब धारा 100 में वर्णित परिस्थितियों उत्पन्न हो जायें।

    (ङ) जहाँ तक लोक पदाधिकारी से संरक्षण प्राप्त करने का युक्तियुक्त समय एवं अवसर उपलब्ध हो, वहाँ इस अधिकार का उद्भव नहीं होता।

    'डोमिनिक बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिये-

    (क) इस अधिकार का प्रयोग करते समय किसी व्यक्ति को उतनी अपहानि से अधिक अपहानि कारित नहीं की जा सकती जितनी कि प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक है।

    (ख) शरीर पर प्रतिकूल आक्रमण की ऐसी युक्तियुक्त आशंका होनी चाहिये कि यदि प्रतिरक्षा न की गई तो उस आक्रमण से मृत्यु या घोर उपहति कारित हो सकती है।

    (ग) अधिकार का प्रयोग तब तक प्रारम्भ नहीं किया जा सकता जब तक कि आक्रमण की युक्तियुक्त आशंका मस्तिष्क में नहीं आ जाती।

    बदला लेने के लिए इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग केवल अवैध आक्रमण को निष्फल करने के लिए किया जा सकता है, बदला लेने या प्रतिशोध की भावना से नहीं है।

    यह अधिकार ऐसे व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है जो स्वयं आक्रमणकर्ता है तथा अन्य व्यक्ति पर अवैध आक्रमण करता है। वस्तुतः इस अधिकार का प्रयोग एक 'ढाल' के रूप में किया जा सकता है, 'तलवार' के रूप में नहीं।

    धारा 99 कार्य, जिनके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है

    यदि कोई कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं हो, सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक द्वारा किया जाता है या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो।

    यदि कोई कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति को आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती, सद्भावपूर्वक अपने पास में कार्य करते हुए लोक सेवक के निदेश से किया जाता है, या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है, तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह निदेश विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो।

    उन दशाओं में जिनमें संरक्षा के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त करने के लिए समय है, प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है।

    इस अधिकार के प्रयोग का विस्तार किसी दशा में भी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उतनी अपहानि से अधिक अपहानि करने पर नहीं है, जितनी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से करनी आवश्यक है।

    स्पष्टीकरण-1 कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक द्वारा ऐसे लोक सेवक के नाते किए गए किए जाने के लिए प्रयतित कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता जब तक कि वह यह न जानता हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति एक लोक सेवक है।

    स्पष्टीकरण 2 – कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक के निदेश से किए गए, या किए जाने के लिए प्रयतित, किसी कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह न जानता हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो, कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसे निर्देश से कार्य कर रहा है, या जब तक कि वह व्यक्ति उस प्राधिकार का कथन न कर दे, जिसके अधीन वर कार्य कर रहा है, या यदि उसके पास लिखित प्राधिकार है, जो जब तक कि वह ऐसे प्राधिकार को मारी जाने पर पेश न कर दे।

    स्पष्ट है कि निम्नांकित अवस्थाओं में प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं होता है

    प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं होता है, जब कोई कार्य

    (क) लोक सेवक द्वारा किया जाता है,

    (ख) सद्भावपूर्वक किया जाता है,

    (ग) अपने कर्तव्य पालन में किया जाता है,

    (घ) अपने पदीय अधिकारों के भ्रम में किया जाता है तथा

    (ङ) उससे मृत्यु या गंभीर क्षति (चोट) कारित होने का खतरा नहीं होता है।

    उदाहरणार्थ- कुछ कस्टम अधिकारियों को यह पता चलता है कि यमन से भारतीय सीमा में अवैध सामान की तस्करी हुई है। तलाशी के समय तस्करों ने कस्टम अधिकारियों पर हमला किया जिससे उन्हें चोटें कारित हुई। अपने बचाव में तस्करों की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि यमन विदेशी भूमि नहीं है क्योंकि तत्सम्बन्धी कोई घोषणा अधिसूचना जारी नहीं की गई थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि कस्टम अधिकारियों का कार्य सद्भावनापूर्ण था, अभियुक्त (तस्करों) को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं था।

    मृत्यु कारित करने तक विस्तार

    संहिता की धारा 100 एवं 103 में क्रमश: शरीर एवं सम्पत्ति के मामलों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के मृत्यु कारित कर देने तक विस्तृत हो जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। इन दोनों धाराओं का मूल पाठ इस प्रकार है

    धारा-100 शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने पर कब होता है-

    शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार, पूर्ववर्ती अंतिम धारा में वर्णित निर्बन्धनों के अधीन रहते हुए, हमलावर की स्वेच्छा या मृत्यु कारित करने या कोई अन्य अपहानि कारित करने तक है, यदि वह अपराध, जिसके कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, एतस्मिन्पश्चात् प्रगणित भांति में से किसी भी भांति का है, अर्थात् :

    पहला- ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम मृत्यु होगा।

    दूसरा- ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम घोर उपहति होगा।

    तीसरा- बलात्संग करने के आशय से किया गया हमला।

    चौथा - प्रकृति-विरुद्ध काम तृष्णा की तृप्ति के आशय से किया गया हमला।

    पांचवा-व्यपहरण या अपहरण करने के आशय से किया गया हमला।

    छठा-इस आशय से किया गया हमला कि किसी व्यक्ति का ऐसी परिस्थितियों में सदोष परिरोध किया जाए, जिनसे उसे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि वह अपने को छुड़वाने के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त नहीं कर सकेगा।

    सातवां – तेजाब फेंकने या सेवन कराने का कार्य या तेजाब फेंकने या सेवन कराने का प्रयत्न जो युक्तियुक्त रूप से यह आंशका कारित करता हो कि ऐसे कृत्य के परिणामस्वरूप अन्यथा घोर उपहति कारित होगी।

    धारा-103 कब सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक का होता है

    सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार, धारा 99 में वर्णित निबन्धनों के अध्यधीन दोषकर्ता की मृत्यु या अन्य अपहानि स्वेच्छया कारित करने तक का है, यदि वह अपराध जिसके किए जाने के या किए जाने के प्रयत्न के कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, एतस्मिन्पश्चात् भांतियो में से किसी भांति का है, अर्थात्

    पहला- लूट

    दूसरा- रात्रौ गृह भेदन

    तीसरा- अग्नि द्वारा रिष्टि, जो किसी ऐसे निर्माण, तम्बू या जलयान को की गई है, जो मानव आवास के रूप में या सम्पत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में लाया जाता है।

    चौथा- चोरी, रिष्टि या गृह अतिचार, जो ऐसी परिस्थितियों में किया गया है, जिनसे युक्तियुक्त रूप से वह आशंका कारित हो कि यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग न किया गया तो परिणाम मृत्यु या घोर उपहति होगा।

    धारा 100 से यह स्पष्ट है कि निम्नांकित मामलों में शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक हो जाता है-

    (i) मृत्यु कारित हो जाने की आशंका वाला हमला:

    (ii) घोर उपहति कारित हो जाने की आशंका वाला हमला;

    (iii) बलात्कार करने के आशय से किया गया हमला

    (iv) प्रकृति विरुद्ध काम तृष्णा की तृप्ति के लिए किया गया हमला

    (v) व्यपहरण या अपहरण करने के आश्य से किया गया हमला तथा

    (vi) सदोष परिरोध किये जाने के आशय से किया गया हमला

    (vii) तेजाब फेंकने या सेवन कराने का कार्य या प्रयत्न किया गया जिससे घोर उपहति कारित हो

    उदाहरणार्थ- 'क' 'ख' (अभियुक्त) की अवयस्क लड़की के साथ बलात्कार करते हुए पाया जाता है। 'ख'क' को गंभीर चोटें कारित करता है। उसका यह कृत्य प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अन्तर्गत संरक्षित है।' इसी प्रकार एक अन्य मामले में 'क' अभियुक्त 'ख' को पत्नी के साथ संभोग करते हुए पाया जाता है तथा यह 'ख' को चोटें भी कारित करता है। 'ख' अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में 'क' पर हमला करता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। 'ख' का कार्य प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अन्तर्गत संरक्षित माना गया।

    धारा 103 में निम्नांकित मामलों में सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक हो जाता है-

    (क) लूट

    (ख) रात्रि गृह भेदन,

    (ग) अग्नि द्वारा रिष्टि तथा

    (घ) चोरी, रिष्टि या गृह-अतिचार

    'भूपेन्द्र सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार" का इस सम्बन्ध में एक अच्छा मामला है। इसमें अभियुक्त एक कांस्टेबल था उस पर हेड कांस्टेबल की हत्या का आरोप था। अभियुक्त का यह कहना था कि वह एक पुलिया की सुरक्षा के लिए तैनात था। जब वह वहाँ अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा था तब उसने एक वाल्व टॉवर के पास कुछ व्यक्तियों को आग जलाते देखा इसलिए यह घटना कारित हुई। उसका यह कृत्य धारा 103 की परिधि में आता है। लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को नहीं माना, क्योंकि,

    (1) वह वाल्व टॉवर न तो मानव निवास के काम आता था और न सम्पति की अभिरक्षा के लिए तथा

    (2) कांस्टेबल को तत्समय न तो मृत्यु की आशंका थी और न ही घोर उपहति की। अग्नि द्वारा रिष्टि का ऐसे निर्माण, तम्बू या जलयान में कारित होना आवश्यक है जो मानव निवास के रूप में काम आता हो अथवा सम्पति की अभिरक्षा के रूप में। मृत्यु से भिन्न अपहानि करने तक विस्तार मृत्यु से भिन्न अपहानि कारित करने तक प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार धारा 102 एवं 104 के अन्तर्गत निम्नांकित अवस्थाओं में होता है।

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