धारा 151 सिविल प्रक्रिया संहिता क्या है?

Idris Mohammad

16 Sep 2021 5:29 AM GMT

  • धारा 151 सिविल प्रक्रिया संहिता क्या है?

    सिविल मामलों में सबसे ज्यादा प्रयोग में ली जाने वाली धारा है धारा 151 जिसके अंतर्गत न्यायालय को अन्तर्निहित शक्तियाँ प्रदान की गयी है। इस धारा को प्रत्येक अन्य धारा/आदेश/नियम के जोड़ कर पेश किया जाता है. यह धारा न्यायालय को वह सभी शक्तियां प्रदान करती है जो न्याय की प्राप्ति एवं कानून के दुरुपयोग रोकने के लिए आवश्यक है।

    न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियां बहुत व्यापक हैं और किसी भी तरह से संहिता के प्रावधानों द्वारा नियंत्रित नहीं हैं। वे संहिता द्वारा न्यायालय को विशेष रूप से प्रदत्त शक्तियों के अतिरिक्त हैं और न्यायालय उनका प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं।

    इस प्रकार प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग पर एकमात्र सीमा यह है कि जब इनका प्रयोग किया जाता है, तो वे स्पष्ट रूप से प्रदान किए गए या जो किसी विशेष विषय को पूरी तरह से कवर करते हैं, या विधायिका के इरादे के खिलाफ नहीं हो।निहित शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जहां विशिष्ट प्रावधान मामले की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं।

    धारा स्वयं ही कहती है कि संहिता में कुछ भी न्याय के उद्देश्यों के लिए आवश्यक आदेश देने के लिए न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या अन्यथा प्रभावित करने वाला नहीं माना जाएगा। इस तरह के एक स्पष्ट बयान से, यह मानना संभव नहीं है कि संहिता के प्रावधान निहित शक्ति को सीमित करके या अन्यथा इसे प्रभावित करके नियंत्रित करते हैं। अंतर्निहित शक्ति न्यायालय को प्रदान नहीं की गई है; यह अदालत में निहित एक शक्ति है जो पक्षकारों के बीच न्याय करने के अपने कर्तव्य के आधार पर है।

    इस प्रकार निहित शक्तियों का उद्देश्य यह है कि किसी भी कोड या कानून को इस हद तक संहिताबद्ध नहीं किया जा सकता है ताकि अधिनियम में छोड़ी गई रिक्तता से उत्पन्न होने वाली कार्यवाही के प्रत्येक चरण में प्रत्येक स्थिति के लिए प्रदान किया जा सके।

    ऐसी स्थिति को न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने या कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए ऐसी स्थिति पर एक पुल बनाने के लिए अंतर्निहित शक्तियों के लिए न्यायालय द्वारा आपूर्ति की जानी चाहिए।

    किन्तु धारा 151 वहां लागू नहीं होती जहां कानून में उस स्थिति के लिए साफ़ प्रावधान मौजूद हो। उदाहरण के लिए, कोर्ट द्वारा की गई एक पक्षीय कार्यवाही को रद्द करने के लिए कोर्ट को धारा 151 के अंतर्गत दाखिल आवेदन अन्तर्निहित शक्तियों की परिधि में नहीं आता है, क्यूंकि ऐसे कार्यवाही के लिए संहिता के आदेश 9 नियम 7 में प्रावधान मौज़ूद है।

    सुप्रीम कोर्ट ने समेंद्र नाथ सिन्हा बनाम कृष्णा कुमार नाग, AIR 1967 SC 1440, के मामले में यह निर्धारित किया कि अदालत में एक अंतर्निहित शक्ति है जिससे एक लिपिकीय गलती को ठीक करने के लिए निर्णय पारित किया है या एक आकस्मिक भूल या चूक से उत्पन्न होने वाली त्रुटि और अपने फैसले को बदलने के लिए ताकि इसके अर्थ को प्रभावी बनाया जा सके।

    सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति बोवेन एलजे के मेलोर बनाम स्वीरा के मामले को संदर्भित किया जहां यह कहा गया कि "हर अदालत को अपने स्वयं के रिकॉर्ड पर अंतर्निहित शक्ति है, जब तक कि वे रिकॉर्ड अपनी शक्ति के भीतर हैं और यह उनमें किसी भी गलती को ठीक कर सकता है। एक आदेश पारित हो जाने पर भी न्यायालय द्वारा संशोधित किया जा सकता है ताकि अपने इरादे को पूरा किया जा सके और आदेश दिए जाने पर अदालत का अर्थ व्यक्त किया जा सके।"

    इसी तरह, दंड प्रक्रिया संहिता में आपराधिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिए आवश्यक प्रावधान शामिल हैं। जबकि सिविल प्रक्रिया संहिता, धारा 151 के तहत, सभी सिविल न्यायालयों में निहित शक्तियों के अस्तित्व को मान्यता देती है जिनमे निचली अदालतें एवं उच्च न्यायालय भी शामिल है, किन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता केवल उच्च न्यायालय में धारा 482 के तहत ऐसी सभी अंतर्निहित शक्तियों को मान्यता देती है।

    राम प्रकाश अग्रवाल बनाम गोपी कृष्णा, [(2013) 11 SCC 296], के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 151 के अंतर्गत अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग निम्नलिखित स्थितियों में किया जा सकता है:

    (1) जब सीपीसी में किसी स्थिति विशेष के कोई उपचार मौजूद न हो;

    (2 ) एक लंबित मुकदमे में,

    (3 ) ऐसे व्यक्तियों के पहल पर जो न्याय और समानता के अनुरूप पक्षकार हों

    (4) उन मामलों में जहां एक पक्ष पूर्वाग्रह से ग्रस्त है

    (5) न्याय की विफलता के मामले में,

    (6) अदालत से धोखाधड़ी के मामले में (पक्षकार से धोखाधड़ी एक अलग स्थिति है),

    (7) सूट के समेकन के लिए, जहां तथ्य और कानून के सामान्य प्रश्न हैं (जहां पार्टियों के गलत संयोजन का मामला नहीं हो)

    लेकिन ऐसी शक्तियों का इस्तेमाल निपटाए गए मामलों को फिर से खोलने या निष्पादन को रोकने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति, जो वाद का पक्षकार नहीं था, के कहने पर नहीं किया जा सकता है। एवं ऐसी शक्तियों का प्रयोग कानून के स्पष्ट और विशिष्ट प्रावधानों के साथ संघर्ष या के उल्लंघन में नहीं किया जा सकता है।

    क्या हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, के तहत कार्यवाही में किसी पक्ष की चिकित्सा जांच (मानसिक स्थिति का पता लगाने के लिए) सीपीसी की धारा 151 के तहत अनुमत है? इस प्रश्न का जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हालांकि हिंदू विवाह अधिनियम में किसी पक्ष की चिकित्सा जांच का प्रावधान नहीं है, लेकिन अदालत के पास पक्षों को पूर्ण न्याय करने के लिए सभी आदेश पारित करने की अंतर्निहित शक्ति है। यह अच्छी तरह से तय है कि अदालत का प्राथमिक कर्तव्य यह देखना है कि सच्चाई सामने आए। इसलिए, ऐसी स्थिति में चिकित्सा जांच का आदेश दिया जा सकता है।

    एक ट्रिब्यूनल अथवा अदालत अपने द्वारा पारित किये गए निर्णय को धारा 151 की शक्तियों के तहत वापस ले सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने श्री बुधिया स्वैन बनाम गोपीनाथ देब, [(1999) 4 SCC 396] के मामले में कानून निर्धारित करते हुए कहा कि निम्नलिखित परिस्थितियों में एक आदेश को अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए वापस लिया जा सकता है, जब:

    (1) आदेश में समाप्त होने वाली कार्यवाही अधिकार क्षेत्र की अंतर्निहित कमी से ग्रस्त है;

    (2) निर्णय प्राप्त करने के लिए धोखाधड़ी या मिलीभगत का उपयोग किया गया है;

    (3) अदालत द्वारा किसी पक्ष को पूर्वाग्रह करने में गलती की गई है;

    (4) इस तथ्य की अनदेखी में एक निर्णय दिया गया है कि एक आवश्यक पार्टी को बिल्कुल भी नोटिस की तामील नहीं की गई थी या उसकी मृत्यु हो गई थी और संपत्ति का प्रतिनिधित्व नहीं किया गया था।

    हिंदू विवाह अधिनियम के तहत एक वैवाहिक कार्यवाही का विचारण कर रहे एक सिविल कोर्ट सीपीसी की धारा 151 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत नहीं आने वाली संपत्ति के संबंध में भी राहत प्रदान कर सकता है।

    अदालत द्वारा अंतरिम आदेश दिए जाते हैं क्योंकि वे याचिकाकर्ता के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है जब तक कि अधिकारों पर अंतिम निर्णय नहीं हो जाता। यहां तक कि जहां यह क़ानून में प्रदान नहीं किया गया है, तो भी अदालतों के पास अंतरिम आदेश पारित करने की अंतर्निहित शक्तियां हैं।

    जब एक क़ानून के किसी विशेष प्रावधान के तहत एक आवेदन दायर किया जाता है, लेकिन उसके तहत उक्त आवेदन चलने योग्य नहीं पाया जाता है या अदालत या ट्रिब्यूनल को उसके तहत मांगी गई राहत देने की कोई शक्ति नहीं है, हालांकि, उक्त आवेदन को किसी अन्य प्रावधान के तहत बनाए रखने योग्य पाया जाता है। ऐसी स्थिति में एक ही अदालत या ट्रिब्यूनल के समक्ष दाखिल किये गए आवेदन का "लेबल" या "नामकरण" कोई मायने नहीं रखती है और मांगी गई राहत किसी पक्षकार को अस्वीकार नहीं की जानी चाहिए।

    निष्कर्ष:

    धारा 151 के अंतर्गत अन्तर्निहित शक्तियों के पीछे पूर्ण न्याय का आशय प्रकट होता है। किसी भी कानून अथवा कोड में सारी परिस्थितियों पर प्रावधान हो पाना मुश्किल होता है, किन्तु उक्त अन्तर्निहित शक्तियाँ प्रदान ना की जाकर, अदालत से अस्तित्व से ही प्राप्त है। अदालत को ऐसी शक्तियां प्रयोग में लेते हुए इस बात को जरूर ध्यान रखना चाहिए कि यह किसी अन्य कानून में मौजूद ना हो। सारांश में, धारा 151 पक्षकारों के सारे अधिकारों को पूर्वाग्रह के सुरक्षित करती है।

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