क्या द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) देने से पहले अदालत की अनुमति लेना है आवश्यक?

SPARSH UPADHYAY

28 Feb 2020 4:15 AM GMT

  • क्या द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) देने से पहले अदालत की अनुमति लेना है आवश्यक?

    जैसा कि हम जानते हैं, अदालतें मूल रूप से या तो प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) पर भरोसा करती हैं या द्वितीयक साक्ष्य पर। जहां तक भी संभव हो, अदालतों द्वारा द्वितीयक साक्ष्य का उपयोग करने से बचने की कोशिश की जाती है। इस दृष्टिकोण को 'सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य नियम' (Best Evidence Rule) कहा जाता है। हालाँकि, एक अदालत कई स्थितियों में एक पक्ष को द्वितीयक साक्ष्य (Secondary evidence) पेश करने की अनुमति दे सकती है।

    हम यह भी जानते हैं कि दस्तावेजों की अंतर्वस्तु (Contents of Documents) के सम्बन्ध में सबूत का नियम, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 61 में संहिताबद्ध किया गया है।

    धारा 61 यह बताती है कि किसी दस्तावेज की सामग्री/अंतर्वस्तु, प्राथमिक या द्वितीयक साक्ष्य से साबित हो सकती है। गौरतलब है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 62 में प्राथमिक साक्ष्य क्या है यह बताया गया है, वहीँ धारा 63 में द्वितीयक साक्ष्य क्या हैं यह बताया गया है।

    वहीँ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 64 में यह कहा गया है कि कुछ परिस्थितियों के अलावा, दस्तावेजों को प्राथमिक साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना चाहिए ('सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य नियम')। इन परिस्थितियों/अवस्थाओं का उल्लेख हमे अधिनियम की धारा 65 में मिलता है।

    यह 'सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य नियम' की अभिव्यक्ति भर है. यह नियम यह कहता है कि जहाँ प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध हों, वहां कुछ स्थितियों को छोड़कर, द्वितीयक साक्ष्य अदालत में नहीं दिया जाना चाहिए। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि धारा 65 के अंतर्गत उन आकस्मिकताओं का उल्लेख मिलता है, जहाँ द्वितीयक साक्ष्य दिए जाने की अनुमति दी गयी है।

    मौजूदा लेख में हम यह चर्चा करेंगे कि क्या द्वितीयक साक्ष्य देने के लिए कोर्ट में कोई आवेदन देने की आवश्यकता है अथवा नहीं।

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 क्या है और कब दिया जा सकता है द्वितीयक सबूत?

    इससे पहले कि हम धारा 65 को समझें, हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि इस धारा का स्वाभाव कैसा है। दरअसल, इस धारा के अंतर्गत उन अवस्थाओं/परिस्थितियों का जिक्र मिलता है जिनके अंतर्गत जब भी कोई मामला आये, तो वहां द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है।

    यह परिस्थतियाँ कुछ भी हो सकती हैं, उदहारण के लिए - वह मूल दस्तावेज उस व्यक्ति के कब्जे या शक्ति में है, जिसके खिलाफ उसे साबित करने की मांग की जाती है या यह कि मूल, उसके अस्तित्व, स्थिति या विषय-वस्तु को उस व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर लिया गया है जिसके खिलाफ वह दस्तावेज साबित होने की मांग करता है या वह मूल खो गया है या नष्ट हो गया है या जब मूल जंगम नहीं है आदि।

    इन सभी अवस्थाओं में द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है। आइये अब हम धारा 65 को मूल रूप में पढ़ लेते हैं।

    धारा 65 यह कहती है कि,

    वह अवस्थाएँ जिनमें दस्तावेजों के संबंध में द्वितीयिक साक्ष्य दिया जा सकेगा - किसी दस्तावेज के अस्तित्व, दशा या अंतर्वस्तु का द्वितीयिक साक्ष्य निम्नलिखित अवस्थाओं में दिया जा सकेगा-

    (क) जबकि यह दर्शित कर दिया जाए या प्रतीत होता हो कि मूल ऐसे व्यक्ति के कब्जे में या शक्त्यधीन हैं जिसके विरुद्ध उस दस्तावेज का साबित किया जाना है, अथवा जो न्यायालय कि आदेशिका की पहुँच के बाहर हैं, या उसे ऐसी आदेशिका के अध्यधीन नहीं हैं, अथवा जो उसे पेश करने के लिए वैध रूप से आबद्ध है, और जबकि ऐसा व्यक्ति धारा 66 में वर्णित सूचना के पश्चात उसे पेश नहीं करता हैं

    (ख) जब कि मूल के अस्तित्व, दशा या अंतर्वस्तु को उस व्यक्ति द्वारा, जिसके विरुद्ध उसे साबित किया जाना है या उसके हित प्रतिनिधि द्वारा लिखित रूप में स्वीकृत किया जाना साबित कर दिया हैं

    (ग) जब कि मूल नष्ट हो गया है, या खो गया है, अथवा जबकि उसकी अंतर्वस्तु का साक्ष्य देने की प्रस्थापना करने वाला पक्षकार अपने स्वयं के व्यतिक्रम या उपेक्षा अनुद्रभुत अन्य किसी कारण से उसे युक्तियुक्त समय में पेश नहीं कर सकता,

    (घ) जबकि मूल इस प्रकृति का है कि उसे आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता

    (ङ) जब कि मूल धारा 74 के अर्थ के अंतर्गत एक लोक दस्तावेज है,

    (च) जब कि मूल ऐसा दस्तावेज़ है कि जिसकी प्रमाणित प्रति का साक्ष्य में दिया जाना इस अधिनियम द्वारा या भारत में प्रवृत किसी अन्य विधि द्वारा अनुज्ञात है

    (छ) जब कि मूल ऐसे अनेक लेखाओ या अन्य दस्तावेजो से गठित है जिनकी न्यायालय में सुविधापूर्वक परीक्षा नहीं की जा सकती और वह तथ्य, जिसे साबित किया जाना है, संपूर्ण संग्रह का साधारण परिणाम है|

    अवस्थाओं (क), (ग) और (घ) में दस्तावेजों की अंतर्वस्तु का कोई भी द्वितीयिक साक्ष्य ग्राहा है,

    अवस्था (ख) में यह लिखित स्वीकृति ग्राहा हैं,

    अवस्था (ड) या (च) में दस्तावेज की प्रमाणित प्रति ग्राहा हैं, किन्तु अन्य किसी भी प्रकार का द्वितीयिक साक्ष्य ग्राहा नहीं हैं,

    अवस्था (छ) में दस्तावेजों के साधारण परिणाम का साक्ष्य किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया जा सकेगा जिसने उनकी परीक्षा की है और जो ऐसे दस्तावेजों की परीक्षा करने में कुशल है|

    हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि एक अदालत के समक्ष द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत करने के इच्छुक पक्ष को सर्वप्रथम भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 में उल्लिखित शर्तों को पूरा करना होगा और केवल तभी, जब धारा 65, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की शर्तें संतुष्ट होंगी, तो द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य होंगे।

    दूसरे शब्दों में, द्वितीयक साक्ष्य देते समय, किसी पक्ष को पहले सेक्शन 65 में तय की गई आकस्मिकता या स्थिति के अस्तित्व, जैसा भी मामला हो, को दर्शाने के लिए साक्ष्य देना होगा, और इसके बाद उक्त दस्तावेज के प्रमाण में द्वितीयक साक्ष्य देना होगा।

    अदालत के सामने साक्ष्य आने के बाद ही अदालत यह राय बना सकेगी कि क्या वाकई धारा 65, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत निर्धारित की गई परिस्थितियां, जिनके अंतर्गत द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य हैं, मौजूद हैं या नहीं।

    इसलिए, साक्ष्य को धारा 65 में बताये गए आधारों के अनुसार दिया जाना होगा, ताकि यह साबित हो सके कि वाकई में द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य हैं। इसके पश्च्यात, इस तरह के सबूत को दस्तावेज़ के प्रमाण के रूप में होना चाहिए, जैसा कि धारा 65 एवं धारा 63 को एकसाथ पढ़े जाने पर आवश्यक है।

    क्या द्वितीयक साक्ष्य देने से पहले अदालत की स्वीकृति/अनुमति है आवश्यक?

    यह तर्क दिया जाता है कि एक पक्ष, जो द्वितीयक साक्ष्य को देने का इच्छुक है और ऐसी मांग अदालत के सामने रखता है, उसे अदालत के समक्ष एक आवेदन देना होगा जिसमे उसे द्वितीयक साक्ष्य देने के उचित कारण देने होंगे और इसे तरह से वह पक्ष, द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत करने के उद्देश्य के लिए एक नींव अदालत के सामने रखेगा।

    हालाँकि ऐसा करना आवश्यक नहीं है क्योंकि द्वितीयक साक्ष्य देने के लिए कोई निर्धारित प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में मौजूद नहीं है। न्यायालय में द्वितीयक साक्ष्य देने के लिए, लिखित रूप से किसी भी आवेदन को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

    इंडियन ओवरसीज बैंक बनाम ट्रोका टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज, 2007 (AIR) (24), के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भी यह माना है कि द्वितीयक साक्ष्य देने की अनुमति हेतु, अलग से आवेदन देना आवश्यक नहीं है।

    चैंबर समन या नोटिस ऑफ मोशन के माध्यम से एक स्वतंत्र आवेदन न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। साक्ष्य दर्ज करने करने वाले/मामले को सुनने वाले न्यायाधीश के समक्ष इस तरह का आवेदन दिए बिना द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है बशर्ते धारा 65 की अवस्थाएं (शर्तों के रूप में) मौजूद हों।

    वहीँ, परसनबाई धनराज जैन एवं अन्य बनाम सुनंदा मधुकर जाधव एवं अन्य, 2017 एससीसी ऑनलाइन बॉम्बे 9875 के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह तय किया गया था कि, ट्रायल कोर्ट को उस साक्ष्य पर विचार करना होगा, अर्थात, प्रत्यक्ष/प्राथमिक सबूत न होने का कारण क्या है, और इसके बाद दिए गए द्वितीयक साक्ष्य पर विचार करना होगा, और फिर यह तय करना होगा कि क्या दिए गए द्वितीयक साक्ष्य पर्याप्त हैं।

    इसी मामले में आगे कहा गया कि अदालत के समक्ष एक आवेदन का कोई सवाल पैदा नहीं होता है, चाहे वह अंतरिम आवेदन के रूप में हो या द्वितीयक साक्ष्य दिए जाने के लिए 'अनुमति' मांगने हेतु एक 'MARJI' आवेदन हो। न्यायालय उस अनुमति को अस्वीकार नहीं कर सकता है, और वह ऐसी किसी भी अनुमति के लिए आवेदन पर जोर नहीं दे सकता है।

    बॉम्बे उच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 के एक मामले कार्तिक गंगाधर भट बनाम निर्मला नामदेव वाघ एवं अन्य, 2018 (1) MHLJ 726 (जस्टिस जीएस पटेल) में ऐसे आवेदन को लेकर महत्वपूर्ण टिपण्णी की थी। अदालत ने कहा था कि,

    "इस तरह के आवेदन के परिणाम, जिन्हें मैंने नोट किया है कि वे गलत हैं और बनाए रखने योग्य नहीं हैं, यह होते हैं कि अदालत द्वारा अत्यधिक अजीबोगरीब आदेश, या तो मांग की अनुमति देते हुए या उसे ख़ारिज करते हुए दिए जाते हैं।

    जब अनुमति दे दी जाती है, तो जाहिर तौर पर द्वितीयक साक्ष्य का नेतृत्व किया जाता है, लेकिन ऐसी अनुमति मांगना या दिया जाना, जैसा कि हमने देखा है, पूरी तरह से अनावश्यक है और एक पार्टी हमेशा ट्रायल कोर्ट के समक्ष द्वितीयक साक्ष्य रख सकती है, जैसा कि साक्ष्य अधिनियम द्वारा विचार किया गया है। ऐसे आवेदन को अस्वीकार करने का परिणाम और भी गंभीर है, क्योंकि वह साक्ष्य पूरी तरह से अदालत के परिक्षण से बाहर हो जाता है।"

    इसके अलावा पिछले वर्ष सत्यम कुमार शाह बनाम नार्कोटिक कंट्रोल ब्यूरो, 2019 एससीसी ऑनलाइन डेल. 8409 के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी कहा कि, द्वितीयक साक्ष्य का नेतृत्व करने के लिए धारा 65 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत अनुमति मांगने वाली पार्टी द्वारा अदालत के समक्ष कोई आवेदन दायर करने की आवश्यकता नहीं है।

    इस मामले में यह आयोजित किया गया था कि केवल इसलिए कि धारा 65 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था और इसकी अनुमति दे दी गई थी, द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य नहीं हो जायेगा, जो अन्यथा अनुचित है।

    अकबरभाई केसरभाई सिपाई एवं अन्य बनाम मोहनभाई अंबाभाई पटेल (मृत) R/SECOND APPEAL NO. 183 of 2014 के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने भी यह माना कि धारा 65 (r/w धारा 63) के अंतर्गत द्वितीयक साक्ष्य देने के लिए, किसी अलग आवेदन को दायर करने की आवश्यकता नहीं है।

    इसी मामले में कहा गया कि द्वितीयक साक्ष्य का नेतृत्व करने की अनुमति मांगे बिना यह पक्ष के लिए खुला है कि वह दूसरे पक्ष द्वारा आपत्ति के अधीन, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के धारा 65 के अनुसार ट्रायल कोर्ट के समक्ष द्वितीयक साक्ष्य का नेतृत्व करे। इसके अलावा, अदालत को ऐसे साक्ष्य दिए जाने के समय, यदि दूसरे पक्ष द्वारा आपत्ति जताई जाए, तो उस आपत्ति पर विचार करना होगा।

    अंत में यह समझा जाना चाहिए कि द्वितीयक साक्ष्य दिए जाने से पहले अनुमति मांगते हुए कोई आवेदन की आवश्यकता नहीं होती है। हाँ, यह जरुर है कि एक अदालत के समक्ष द्वितीयक साक्ष्य देने की इच्छुक पार्टी को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 में उल्लिखित शर्तों को पूरा करना होगा और केवल तभी जब धारा 65, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की शर्तें संतुष्ट होंगी, तो द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य होंगे।

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