FIR दर्ज करवाने में अगर देरी होती है तो क्या होते हैं परिणाम और अभियोजन के मामले पर क्या होता इसका असर?
LiveLaw News Network
13 Oct 2019 2:03 PM IST
स्पर्श उपाध्याय
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 154 की उप-धारा (1) के तहत एक पुलिस थाने के भारसक अधिकारी को एक संज्ञेय अपराध (Cognizable offence) की दी गयी एक सूचना को, आमतौर पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में जाना जात है, हालांकि इस शब्द का उपयोग कोड में नहीं किया गया है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है। और जैसा कि इसके 'निक नेम' (FIR) से पता चलता है कि यह जल्द से जल्द, किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए संज्ञेय अपराध की प्रथम सूचना है। यह आपराधिक कानून को गति प्रदान करता है और मामले के अन्वेषण की शुरुआत को चिह्नित करता है, जो कि धारा 169 या धारा 170, जैसा भी मामला हो, के तहत राय के गठन के साथ समाप्त होती है और जिसके पश्च्यात CrPC की धारा 173 के तहत पुलिस रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट को अग्रेषित किया जाता है।
दूसरे शब्दों में, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) एक लिखित दस्तावेज है, जो तब तैयार किया जाता है जब पुलिस थाने के भारसक अधिकारी को पहली बार किसी संज्ञेय अपराध के कमीशन के बारे में जानकारी मिलती है। इसमें शिकायतकर्ता या सूचना देने वाले व्यक्ति (जानकारी देने वाला व्यक्ति) का विवरण, अपराध का विवरण और शिकायतकर्ता या सूचना देने वाले व्यक्ति के अनुसार दिनांक और समय शामिल होता है।
गौरतलब है कि एक FIR, अपने आप में किसी के खिलाफ दायर आपराधिक मामला नहीं है। यह सिर्फ एक अपराध के कमीशन से संबंधित पुलिस थाने के भारसक अधिकारी द्वारा प्राप्त जानकारी है। एक आपराधिक मामला असल में तब शुरू होता है, जब न्यायालय में पुलिस द्वारा आरोप पत्र (चार्जशीट) दायर किया जाता है और राज्य द्वारा उस मामले में एक लोक अभियोजक नियुक्त किया जाता है।
यह जरूरी नहीं है कि एक FIR दर्ज करने के लिए आपके पास अपराध के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि FIR दर्ज कराने वाला व्यक्ति, पुलिस को अपने द्वारा ज्ञात हर बात की जानकारी दे दे। हम यह भी जानते हैं कि, अपराध का शिकार होने वाला व्यक्ति, पीड़ित का कोई रिश्तेदार या दोस्त या परिचित, या यदि किसी व्यक्ति के पास एक अपराध के बारे में ज्ञान है, जो होने वाला है या हो चुका है तो ऐसे व्यक्ति एक FIR दर्ज करा सकते हैं।
प्रथम सूचना रिपोर्ट, आपराधिक घटना का विस्तृत ब्यौरा या 'इनसाइक्लोपीडिया' नहीं होती है। FIR में मुख्यत: घटना की प्रमुख-प्रमुख बिंदुओं को ही संक्षिप्त रूप में रजिस्टर किया जाता है। ट्रायल के दौरान FIR मुख्य साक्ष्य भी नहीं होती है - मोतीराम पडू जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य 2018 SCC OnLine SC 676 (जस्टिस आर. बानुमति एवं जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ)।
आम तौर पर यह सलाह दी जाती है कि FIR दायर करवाने में देरी नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि अपराध विधि इस सिद्धांत पर कार्य करती है कि चूँकि किया गया एक अपराध, सिर्फ पीड़ित के खिलाफ नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज के खिलाफ एक अपराध है, इसलिए सिविल मामलों जैसे समय की पाबंदियां, आपराधिक मामलों पर लागू नहीं होती हैं, इसलिए सामान्यत: FIR दायर करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है।
फिर भी FIR दायर करने में अनावश्यक देरी नहीं की जानी चाहिए और इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं इसे हम आगे लेख में समझने वाले हैं। गौरतलब है कि FIR दायर करने में देरी होने पर भी अपराधी के खिलाफ तहकीकात और कानूनी कार्रवाई की जा सकती है, पर फिर भी FIR दायर करने में हुई देरी, अपराधी के विरुद्ध केस को कमजोर बनाती है। कोर्ट में FIR दायर करने में हुई देरी का स्पष्टीकरण देना अनिवार्य होता है।
शेख हसीब बनाम बिहार राज्य (1972) 4 SCC 773 के मामले में जस्टिस आई. डी. शेलत एवं जस्टिस एस. रॉय की पीठ ने यह स्पष्ट किया था कि, मुखबिर के दृष्टिकोण से एक FIR का मुख्य उद्देश्य, आपराधिक कानून को गति में लाना है, वहीँ जांच अधिकारियों के दृष्टिकोण से इसका मतलब, कथित आपराधिक गतिविधि के बारे में जानकारी प्राप्त करना है ताकि वो दोषी पक्ष के खिलाफ मामला स्थापित करने में सक्षम हो सकें और अन्य उपयुक्त कदम उठा सकें।
इस सम्बन्ध में हम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154 (1) को समझ लेते हैं। यह धारा यह कहती है कि:-
154 (1) संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इतिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई है तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इतिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इतिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित विहित करे, प्रविष्ट किया जाएगा।
कौन से मामलों में दर्ज करायी जाए FIR?
संज्ञेय अपराधों के लिए प्राथमिकी (FIR) दर्ज की जा सकती है। जैसा कि हम जानते हैं कि सभी अपराधों को 2 श्रेणियों में विभाजित किया जाता है - संज्ञेय और असंज्ञेय।
एक संज्ञेय अपराध वह है, जहां पुलिस को बिना वारंट के गिरफ्तारी का अधिकार है और वह मजिस्ट्रेट के आदेशों के बिना मामले में अन्वेषण कर सकता है। वहीँ एक असंज्ञेय अपराध वह है, जहां पुलिस को अन्वेषण के लिए मजिस्ट्रेट से आदेशों की आवश्यकता होती है और गिरफ्तारी के लिए एक वारंट लेना होता है।
यदि आप एक पुलिस स्टेशन का दौरा करते हैं और पुलिस थाने के भारसक अधिकारी को एक ऐसे अपराध के बारे में सूचित करते हैं जो असंज्ञेय है, तो वह अधिकारी आपकी शिकायत को FIR का रूप नहीं देगा और आपको मजिस्ट्रेट के पास भेज देगा। कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जहाँ अधिकारी को प्राप्त जानकारी से ऐसा लगता है कि यह पता लगाने की आवश्यकता है कि क्या वाकई में संज्ञेय अपराध हुआ है या नहीं। ऐसे मामलों में अधिकारी तुरंत FIR दर्ज न करके, एक छोटी मोटी जांच करता है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि क्या एक संज्ञेय अपराध हुआ है।
यदि कोई संज्ञेय अपराध हुआ है तो एक व्यक्ति FIR दर्ज कराये जाने के उद्देश्य से नजदीकी पुलिस स्टेशन पर जा सकता है, पर यह जरूरी नहीं कि जिस इलाके में अपराध किया गया हो, उस इलाके में पुलिस स्टेशन हो ही इसलिए कहीं भी, किसी भी पुलिस स्टेशन में FIR दर्ज करायी जा सकती है।
दूसरे शब्दों में, किसी भी पुलिस स्टेशन में एक FIR दर्ज की जा सकती है। यह तथ्य कि अपराध, किसी पुलिस थाने के क्षेत्राधिकार में नहीं किया गया है, शिकायत दर्ज न करने का कोई कारण नहीं हो सकता है। पुलिस द्वारा, प्रदान की गई जानकारी को रिकॉर्ड करना अनिवार्य है और फिर यह उस अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह उस पुलिस स्टेशन में उस मामले/जानकारी/FIR को स्थानांतरित करे, जिसके क्षेत्र/क्षेत्राधिकार में वह अपराध हुआ था। उदाहरण के लिए, यदि कोई अपराध उत्तर दिल्ली में किया गया था तो इसकी सूचना दक्षिण दिल्ली के पुलिस स्टेशन में भी दर्ज की जा सकती है।
इस अवधारणा को आम तौर पर "जीरो FIR" के रूप में जाना जाता है। 'शून्य FIR' की शुरुआत से पहले, मामले दर्ज करने में बड़े पैमाने पर देरी हुआ करती थी, क्योंकि किसी पुलिस स्टेशन में केवल उस क्षेत्र में हुए अपराध की जानकारी दर्ज की जाती थी, अर्थात् उनके अधिकार क्षेत्र में। लेकिन अब एक व्यक्ति निश्चित रूप से किसी भी पुलिस स्टेशन पर किसी अन्य जगह हुए अपराध के विषय में जानकारी दर्ज करा सकता है।
गौरतलब है कि पुलिस थाने के भारसक अधिकारी के ऊपर एक FIR दर्ज करने की बाध्यता, यह सुनिश्चित करती है कि उक्त सूचना में बाद में कोई परिवर्तन न किया जा सके और आपराधिक मामलों में न्याय करते हुए पूरी पारदर्शिता बरती जा सके। इसी क्रम में ललिता कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) 2 SCC 1 में पांच जजों (जस्टिस पी. सथाशिवम, जस्टिस बी. एस. चौहान, जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए. बोबडे) की बेंच ने यह अभिनिर्णित किया कि धारा 154(1) CrPC के प्रावधान अनिवार्य हैं, और सम्बंधित अफसर की यह ड्यूटी है कि वह संज्ञेय अपराध की जानकारी प्राप्त होने पर FIR दर्ज करे।
FIR दर्ज करने में पुलिस की भूमिका
अपराध के पंजीकरण के चरण में या कोड की धारा 154 (1) के प्रावधान के अनुपालन में, संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हुए सूचना के आधार पर एक मामला दर्ज करते हुए संबंधित पुलिस अधिकारी, इस जानकारी के बारे में पूछताछ नहीं कर सकता है कि क्या मुखबिर द्वारा दी गयी जानकारी विश्वसनीय या वास्तविक है या अन्यथा वह अधिकारी इस आधार पर मामला दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकता हैं कि प्राप्त जानकारी विश्वसनीय नहीं है।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154 (1) की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के समक्ष यदि संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली कोई भी सूचना दी जाती है, तो उक्त पुलिस अधिकारी के पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता है सिवाय इसके कि वो उस जानकारी को दर्ज करे। इसके पूर्व में, अर्थात इस तरह की जानकारी के आधार पर मामला दर्ज करे – पी. वी. जगन्नाथ राव एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य AIR 1969 SC 215 (जस्टिस सी. वैदियालिंगम, जस्टिस जी. एम. शाह, जस्टिस वी. भार्गव, जस्टिस वी. रामास्वामी की पीठ)।
कोड की धारा 154 (1) में "करेगा (Shall)" शब्द का उपयोग इस विधायी इरादे को स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अगर पुलिस को दी गई जानकारी संज्ञेय अपराध के कमीशन का खुलासा करती है तो ऐसे अधिकारी के लिए प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है।
खूब चंद बनाम राजस्थान राज्य 1967 AIR 1074 (जस्टिस के. सुब्बाराव) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154(1) में उपस्थित "करेगा (Shall)" शब्द को समझाते हुए कहा कि अपने सामान्य अर्थ में इसका मतलब 'अनिवार्य' है और अदालत आमतौर पर उस शब्द को यही व्याख्या देगी, जब तक कि इस तरह की व्याख्या कुछ बेतुके या असुविधाजनक परिणाम की ओर न ले जाए या विधायिका के इरादे, जो अधिनियम के अन्य भागों से स्पष्ट होंगे, से इतर न हो जाए। अदालत ने साफ़ तौर पर उल्लेख किया कि कोड की धारा 154 (1) के संदर्भ में "करेगा" शब्द का उपयोग करने का उद्देश्य, यह सुनिश्चित करना है कि सभी संज्ञेय अपराधों से संबंधित सभी जानकारी पुलिस द्वारा तुरंत दर्ज की जाएगी और तदनुसार मामले का अन्वेषण, कानून के प्रावधानों के अनुसार किया जायेगा।
तत्काल FIR: एक आवश्यकता?
अपराध के कमीशन के संबंध में पुलिस के पास जल्द से जल्द रिपोर्ट दर्ज कराने पर जोर देने का उद्देश्य, उन परिस्थितियों के बारे में प्रारंभिक जानकारी प्राप्त कराना है, जिनमें अपराध किया गया था, इसके अलावा इस रिपोर्ट के जरिये वास्तविक अपराधियों के नाम और उनके द्वारा घटना में निभाई गयी भूमिका एवं दृश्य में मौजूद चश्मदीद गवाहों के नाम का पता भी चलता है।
पहली इनफॉर्मेशन रिपोर्ट दर्ज करने में देरी के परिणामस्वरूप कई बार संस्करण बदल जाने की सम्भावना होती है, अर्थात जैसा वास्तव में हुआ उससे अलग कुछ बताने/गढ़े जाने का खतरा रहता है। इस देरी के कारण, रिपोर्ट न केवल घटना के विषय में वास्तविकता बयान करने एवं मूल संस्करण समझे जाने का लाभ खो देती है, बल्कि यह खतरा भी बढ़ जाता है कि उस रिपोर्ट में कहे गए तथ्यों को गढ़ा गया हो, हालाँकि ऐसा जरुरी नहीं एवं अदालत केस टू केस ऐसे मामलों में देरी से दर्ज FIR की परिस्थितियों पर गौर करती है। इसलिए, यह बेहतर होता है कि पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज करने में देरी, यदि की गयी है, को संतोषजनक ढंग से समझाया जाए।
हालाँकि देरी को संतोषजनक ढंग से समझाया गया है या नहीं, यह तय करना अदालत का कार्य है। उदाहरण के लिए रघबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य 2000(2) RCR(Criminal) 717(SC) के मामले में, यह आयोजित किया गया था कि पहले पुलिस स्टेशन जाने के बजाय, अपनी जान बचाने के लिए पीड़ित को अस्पताल ले जाया जाना, देरी के लिए संतोषजनक स्पष्टीकरण था।
हरियाणा राज्य बनाम राम किशन 2000(2) RCR (Criminal) 1 (P&H) (DB) के मामले में यह आयोजित किया गया था कि जहाँ 5 व्यक्तियों की हत्या रात के समय की गयी और सुबह होने पर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई, और इसका कारण शिकायतकर्ता का डर के चलते घर से बाहर नहीं निकलना था, वहां FIR दर्ज कराने में देरी के लिए स्पष्टीकरण उचित था।
दिलावर सिंह बनाम दिल्ली राज्य AIR 2007 SC 3234 में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्णित किया था कि आपराधिक मुकदमों में अदालत के लिए यह कार्डिनल सिद्धांतों में से एक है कि रिपोर्ट दर्ज करने में देरी के लिए उचित स्पष्टीकरण की तलाश की जाए। यह विलंब, कभी-कभी शिकायतकर्ता को शिकायत पर विचार-विमर्श करने और उसमे बदलाव करने या यहां तक कि उसे मनमाफिक ढंग से बदलने का अवसर देता है। इसीलिए रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए यदि पुलिस या अदालत के सामने आने में देरी हुई है, तो अदालतें हमेशा संदेह के साथ आरोपों को देखती हैं और संतोषजनक स्पष्टीकरण की तलाश करती हैं। यदि ऐसी कोई संतुष्टि नहीं बनती है, तो इस विलम्ब को अभियोजन मामले के लिए घातक माना जाता है।
इस बात को लेकर कानून अच्छी तरह से तय है कि बलात्कार के मामले में FIR दर्ज कराने में देरी एक सामान्य घटना है, क्योंकि FIR विवेचना के बाद दर्ज की जाती है। पीड़ित व्यक्ति के मन में अशांति को दूर करने के लिए कुछ समय लगता है। बलात्कार के मामले में FIR दर्ज करने में देरी बहुत महत्व नहीं रखती है, क्योंकि पीड़ित को खुले में बाहर आने और खुद को रूढ़िवादी सामाजिक परिवेश में उजागर करने के लिए साहस करना पड़ता है।
बलात्कार के मामलों में अभियोजन पक्ष द्वारा या सभी परिस्थितियों में माता-पिता द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने में देरी का महत्व नहीं है। कभी-कभी सामाजिक कलंक का डर और सामान्य कानूनी लाभ पाने के लिए और इस तरह की कानूनी लड़ाई शुरू करने के लिए सभी मनोवैज्ञानिक आंतरिक शक्ति से ऊपर चिकित्सा उपचार की उपलब्धता भी देरी के लिए एक कारक होती है।
पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह 1996 AIR 1393 (जस्टिस ए. एस. आनंद) के मामले में अदालत ने टिप्पणी की थी कि:-
"अदालतें इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकती हैं कि यौन अपराधों में FIR दर्ज करने में देरी, कई कारणों से हो सकती है, विशेष रूप से अभियोजन पक्ष या उसके परिवार के सदस्यों की पुलिस के पास जाने की अनिच्छा, इस घटना की शिकायत करने में प्रतिष्ठा की चिंता, अभियोजन पक्ष और उसके परिवार के सम्मान को पहुंच सकने वाले ठेस का डर इत्यादि। अच्छी तरह से विचार करने के बाद ही यौन अपराध की शिकायत आम तौर पर दर्ज की जाती है।"
FIR दर्ज करने में देरी के क्या होंगे परिणाम
जैसा कि अबतक जाना है कि समस्त विवरणों के साथ मुखबिर द्वारा घटना की त्वरित और प्रारंभिक रिपोर्टिंग, इसके वास्तविक संस्करण के बारे में एक आश्वासन देती है। उन मामलों में, जहाँ FIR दर्ज करने में कुछ देरी हुई है, वहां शिकायतकर्ता को उस के लिए स्पष्टीकरण देना होता है। निस्संदेह, FIR दर्ज करने में देरी, उन मामलों में शिकायतकर्ता के मामले को अनुचित नहीं बनाती है, जिन मामलों में इस तरह की देरी का उचित कारण दिया गया हो। हालांकि, शिकायत दर्ज करने में जानबूझकर की गयी देरी, अभियोजन के केस के लिए घातक साबित हो सकती है।
इस तरह के मामलों में (जहाँ FIR दर्ज करने में देरी की गयी है), अदालतें सर्वप्रथम तथ्यों की सावधानीपूर्वक जांच करती हैं, जिससे इस आशंका को दूर किया जा सके कि कहीं शिकायतकर्ता पक्ष, आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत इसलिए तो नहीं कर रहा है, ताकि दूसरे पक्ष को दुर्भावनापूर्ण इरादों से या अपमानजनक प्रतिशोध के पूर्ववर्ती मकसद के साथ परेशान किया जा सके। अदालत की कार्यवाही को उत्पीड़न और उत्पीड़न के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे मामले में, जहां एक प्राथमिकी स्पष्ट रूप से एक निजी और व्यक्तिगत शिकायत के कारण दूसरे पक्ष को उकसाने के लिए दर्ज की जाती है, जिससे दूसरी पार्टी को लंबी और कठिन आपराधिक कार्यवाही में शामिल किया जा सके, वहां अदालत यह विचार कर सकती है कि यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।
सुप्रीम कोर्ट ने एप्रेन जोसेफ बनाम केरल राज्य (1973) 3 SCC 114 (जस्टिस आई. डी. दुआ) के मामले में यह अभिनिर्णित किया था कि, सामान्य रूप से, न्यायालय अभियोजन पक्ष के मामले को प्रथम सूचना रिपोर्ट को दर्ज करने में देरी के चलते खारिज कर सकता है (अभियोजन पक्ष द्वारा साक्ष्य से छेड़छाड़ की संभावना के कारण)। हालांकि, अगर इस देरी को संतोषजनक ढंग से समझाया गया है, तो कोर्ट इस तरह की देरी को ज्यादा महत्व दिए बिना मामले को मेरिट के आधार पर तय करेगा। न्यायालय यह निर्धारित करने के लिए बाध्य है कि क्या मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, FIR दर्ज करने में देरी को उचित रूप से अभियोजन पक्ष द्वारा समझाया गया है। इस देरी को माफ़ किया जा सकता है, यदि न्यायालय को शिकायतकर्ता विश्वसनीय प्रतीत होता है।
हालाँकि यह अच्छी तरह से उच्चतम न्यायालय द्वारा तमाम मामलों में तय किया गया है कि अभियोजन के मामले पर संदेह करने के लिए FIR दर्ज करने में देरी, एकमात्र आधार नहीं हो सकती है। भारतीय परिस्थितियों को जानते हुए भी हम यह अंदाजा लगा सकते हैं कि यदि किसी दूरदराज इलाके में कोई अपराध हुआ है तो ग्रामीणों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वे घटना के तुरंत बाद पुलिस स्टेशन पहुंचें। यह मानव का स्वभाव है, जैसा कि हम जानते हैं, कि यदि परिजनों को किसी अपने के साथ हुई घटना/अपराध का पता चलता है/या वे स्वयं देखते हैं तो वे अत्यंत पीड़ा में होते हैं और उनसे यह अपेक्षा करना कि वो मामले की सूचना पुलिस को तुरंत देने के लिए मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैयार होंगे, उचित नहीं है। कभी-कभी विपत्ति के कारण दुःखी होने के कारण यह उनके लिए तुरंत नहीं हो सकता है कि वे मामले को रिपोर्ट कर सकें। इन परिस्थितियों में यह स्वाभाविक है कि रिपोर्ट देने के लिए पुलिस स्टेशन जाने के लिए उन्हें कुछ समय दिया जाना चाहिए।
यह आपराधिक न्यायशास्त्र का सिद्धांत है कि केवल FIR दर्ज करने में देरी, सभी मामलों में घातक साबित नहीं हो सकती है, लेकिन दी गयी परिस्थितियों में मामले की देरी से FIR, उन कारकों में से एक हो सकता है, जो अभियोजन के मामले की विश्वसनीयता को दूषित कर सकती है, लेकिन प्राथमिकी दर्ज करने में देरी करना, संपूर्ण अभियोजन संस्करण को अविश्वसनीय घोषित करने के लिए एक आधार नहीं हो सकता है, क्योंकि प्राथमिकी में दिए गए तथ्यों एवं जानकारी की बाद में सबूतों द्वारा पुष्टि की जाती है, और यदि अभियोजन द्वारा मामले से छेड़छाड़ किये जाने का खतरा नहीं दिखता है, तो अदालत देरी से दर्ज की गयी FIR को अनुचित नहीं मानती हैं। हालाँकि अदालत इस देरी के लिए स्पष्टीकरण मांगने के लिए स्वतंत्र है और यदि अदालत संतुष्ट है तो अभियोजन का मामला अकेले इस आधार पर नहीं गिर सकता है कि मामले में FIR दर्ज कराने में देरी की गयी थी।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम ज्ञान चंद AIR 2001 SUPREME COURT 2075 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला किया कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी का इस्तेमाल, अभियोजन के मामले पर संदेह करने के लिए नहीं किया जा सकता है और प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने में देरी करने के आधार पर ही अभियोजन के मामले को खारिज नहीं किया जा सकता है।
रविंदर कुमार एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य 2001 SCC 3576 (जस्टिस के. टी. थॉमस एवं जस्टिस एस. एन. वरिअवा) के मामले में FIR दर्ज करने में हुई देरी को अभियोजन पक्ष के लिए घातक मानने से इंकार करते हुए यह टिप्पणी की गयी कि: -
"FIR दर्ज करने में देरी के आधार पर अभियोजन के मामले पर हमला, आपराधिक मामलों में अब लगभग एक बेतुका एवं निरर्थक कार्य हो चुका है। अधिकांश आपराधिक मामलों में यह एक देखा गया है कि उसके बारे में प्रथम जानकारी प्रस्तुत करने में कुछ देरी होती ही है। यह याद रखा जाना चाहिए कि FIR दर्ज करने के लिए कानून ने कोई समय निर्धारित नहीं किया है। इसलिए देरी से दर्ज करायी गई FIR अवैध नहीं है। निश्चित रूप से FIR दर्ज करने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि इसे त्वरित और तत्काल रूप से दर्ज कराया जाए, क्योंकि अभियोजन पक्ष को इसका जुड़वा लाभ मिलेगा। पहला यह है कि इससे बिना किसी समय गंवाएं अन्वेषण शुरू किया जा सकेगा। दूसरा यह है कि यह झूठे संस्करण के किसी भी संभावित संयोजन के अवसर एवं इसकी सम्भावना को खत्म करता है। तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने से जुड़े इन 2 सकारात्मक बिंदुओं के अलावा, किसी भी अभियोजन के मामले में एक विलंबित FIR, अभियोजन के मामले के लिए घातक नहीं है। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि यहां तक कि तुरंत दर्ज की गई FIR, उसमें शामिल संस्करण की वास्तविकता के लिए एक गारंटी नहीं है।"
जहाँ किसी मामले में FIR दर्ज कराने में देरी होती है तो अदालत इस बात पर गौर करती है कि इस तरह की देरी आखिर क्यों हुई। देरी से दर्ज FIR के पीछे विभिन्न प्रकार के वास्तविक एवं स्वाभाविक कारण हो सकते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि ग्रामीण लोग बिना किसी समय गंवाए, अपराध के पुलिस को सूचित करने की आवश्यकता से अनभिज्ञ हो सकते हैं।
शहरी लोगों में भी इस तरह की अज्ञानता असामान्य नहीं है। वे शायद पुलिस स्टेशन जाने के बारे में नहीं सोच सकते। एक और संभावना मुखबिरों को पुलिस स्टेशन तक पहुंचने के लिए पर्याप्त परिवहन सुविधाओं की कमी भी हो सकती है, जिसे कई मामलों में विचार में लिया गया है। अक्सर यह भी होता है कि मृतक के परिजन, मन की शांति के एक निश्चित स्तर को हासिल करने के लिए कुछ समय ले सकते हैं।
बलात्कार के मामलों में, जैसा हमने देखा, कि अक्सर भारतीय महिलाएं ऐसी घटनाओं के बारे में शिकायत करने में देर करती हैं और झिझकती हैं और उनके द्वारा की गयी यह देरी, शिकायत को झूठा नहीं बनाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में यह कहा है कि बलात्कार के मामलों में FIR दर्ज कराने में देरी का बहुत महत्व नहीं है, क्योंकि पीड़ित और परिवार के सदस्यों को उस पीड़ा से बाहर आने के लिए साहस करना होता है क्योंकि उन्हें सामाजिक कलंक का डर होता है और लम्बी कानूनी लड़ाई में जाने के लिए आंतरिक शक्ति की कमी का सामना भी करना होता है।
दिलदार सिंह बनाम पंजाब राज्य, AIR 2006 SC 3084 के मामले में जस्टिस बी. सिंह एवं जस्टिस ए. कबीर की पीठ ने यह देखा था कि जहाँ पीड़िता 16 साल से कम उम्र की थी और आरोपी-अपीलकर्ता उसका कला शिक्षक था। उस बालिका ने किसी से शिकायत नहीं की, लेकिन वह उसे गुप्त नहीं रख सकी और जब उसकी मां को उसकी गर्भावस्था का पता लगा तो ही FIR दर्ज की जा सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में फिर कहा था कि बलात्कार के मामलों में FIR दर्ज करने में देरी, अलग-अलग कारणों से हो सकती है और केवल उसी आधार पर अभियोजन मामले को खारिज नहीं किया जा सकता है।
वहीँ पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आये एक मामले में अदालत ने यह दोहराया कि FIR दर्ज कराने में देरी के क्या परिणाम होते हैं और खासतौर पर अदालत ने सामाजिक व्यवस्था, मानसिक पीड़ा एवं अन्य स्वाभाविक परिस्थितियों पर गौर किया जिसके चलते FIR दर्ज करने में देरी संभव है। पलानी बनाम तमिलनाडु राज्य (Criminal Appeal No। 1100 ऑफ़ 2009) के मामले में जस्टिस आर. बानुमति एवं जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने यह टिपण्णी की:-
"शिकायत दर्ज करते हुए कानून को गति में लाने में देरी को आमतौर पर न्यायालयों द्वारा संदेह से देखा जाता है, क्योंकि इसमें अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों से छेड़छाड़ करने की संभावना होती है। ऐसे मामलों में, अभियोजन पक्ष के लिए FIR दर्ज करने में देरी को संतोषजनक ढंग से समझाना आवश्यक हो जाता है। लेकिन ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाँ FIR दर्ज करने में देरी अपरिहार्य है और इस पर विचार करना होता है। यदि अभियुक्त को झूठे तरीके से फंसाने का कोई मकसद मौजूद नहीं है, तो FIR दर्ज करने में लंबे समय तक की देरी को माफ़ किया जा सकता है। वर्तमान मामले में, पीडब्लू -1 का आरोपियों को झूठा फंसाने का कोई मकसद नहीं था। जैसा कि पहले ही बताया गया है, पीडब्ल्यू -1 ने अपने ही बेटे पर बेरहमी से हमला होते हुए देखा था, एक मां के दिमाग पर इस घटना के हुए प्रभाव को नहीं मापा जा सकता है। अपने बेटे की मौत से दुखी होकर पीडब्ल्यू -1 को अपने सदमे से बाहर आने में कुछ समय लगा होगा, जिसके पश्च्यात फिर FIR दर्ज करने के लिए वह पुलिस थाने में गयी।"
वर्ष 2019 अप्रैल में एक और मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा FIR दर्ज कराने में देरी करने के एक और आयाम के सम्बन्ध में निर्णय दिया गया। पी. राजगोपाल एवं अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (CRIMINAL APPEAL NOS। 820821 OF 2009) के मामले में जस्टिस एन. वी. रमना, जस्टिस एम. शांतानागौदर एवं जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने निर्णय सुनाते हुए यह कहा कि आम तौर पर अदालत, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने में देरी के मामले में अभियोजन पक्ष के मामले को उस परिस्थिति में खारिज कर सकती है जहाँ अभियोजन पक्ष द्वारा साक्ष्य के मनमाफिक गढ़े जाने की संभावना मौजूद होती है। हालांकि, अगर यह देरी संतोषजनक ढंग से समझाई गई है, तो अदालत इस देरी पर ज्यादा ध्यान दिए बगैर मामले का फैसला करेगी। न्यायालय यह निर्धारित करने के लिए बाध्य है कि क्या देरी की व्याख्या, तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए पर्याप्त रूप से प्रशंसनीय है या नहीं। यदि शिकायतकर्ता विश्वसनीय और बिना किसी गलत उद्देश्य के प्रकट होता है, तो विलंब को माफ़ किया जा सकता है।
FIR में देरी: संक्षेप में
इस लेख में हमने FIR दर्ज करने में समय के महत्व को उचित ढंग से समझा और यह भी जाना है कि यदि FIR दर्ज कराने में देरी की जाती है तो यह अभियोजन के मामले को कमजोर कर सकता है, पर इस देरी के चलते अभियोजन के संस्करण को हर बार नकारा नहीं जा सकता है। यह जरुर है कि FIR दर्ज कराने में देरी न किया जाना एक आदर्श के रूप में स्थापित नियम हो चुका है, पर यदि ऐसी देरी का उचित स्पष्टीकरण दे दिया जाता है तो FIR दर्ज कराने में देरी, कोई खासा महत्व नहीं रखती है। इसका एक कारण यह भी है कि चूँकि FIR अपने आप में अपराध के कमीशन एवं उसमे उल्लिखित तथ्यों की सत्यता की पुष्टि नहीं करती है, और इसलिए उसका आपराधिक न्यायशास्त्र में सीमित महत्त्व है।
हाँ, यदि रिपोर्ट दर्ज करने में बिना किसी स्पष्टीकरण दिए गए, देरी की जाती है तो यह अभियोजन के अपराध के ब्योरे पर संदेह पैदा करता है। पर ऐसी तमाम परिस्थितियां हैं, जहाँ यह देरी उचित ठहरती है, जिन्हें हमने इस लेख में समझा है। संक्षेप में हमने यह जाना कि FIR दर्ज करने में देरी, अभियोजन संस्करण को झूठा साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि यह देरी अस्पष्टीकृत न हो और इस तरह की देरी को सबूतों के मनगढ़ंत होने की संभावना के साथ जोड़ा न जा सके।
इसके अलावा, कई बार कुछ अपराध हो जाते हैं, जिनका पता बाद में चलता है, जैसे किसी घर में रात में डकैती के साथ समस्त परिजनों की हत्या कर दी जाये, अब यहाँ अन्य रिश्तेदारों/पड़ोसियों को हो सकता है कि 1 दिन बाद, या सवेरे खबर लगे, अब जब खबर लगी उसके बाद से FIR दर्ज कराने में देरी हुई या नहीं, यह देखा जाता है अर्थात व्यक्ति को अपराध की सूचना मिलने के बाद के समय से देरी को देखा जाता है।