कानूनों का निर्वचन किसे कहा गया है एवं इसके सिद्धांत क्या है

Shadab Salim

31 Oct 2022 10:09 AM GMT

  • कानूनों का निर्वचन किसे कहा गया है एवं इसके सिद्धांत क्या है

    निर्वचन (Interpretation) को 'व्याख्या' अथवा 'अर्थान्ययन' भी कहा जाता है। न्याय निर्णयन में निर्वचन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। संविधियों की व्याख्या न्याय निर्णयन को प्रभावित करती है। कानून में निर्वचनों के कुछ नियम है। कोई भी केस लॉ कानून की व्याख्या के बाद ही हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया जाता है। इस आलेख में कानूनों का निर्वचन क्या है और उसके नियम क्या है इस विषय पर चर्चा की जा रही है।

    निर्वाचन क्या है

    न्यायालयों द्वारा संविधियों की भाषा, शब्दों एवं अभिव्यक्तियों के अर्थ- निर्धारण की प्रक्रिया को ही निर्वाचन अथवा व्याख्या कहा जाता है। निर्वाचन के माध्यम से न्यायालयों द्वारा संविधि में प्रयुक्त भाषा या शब्दों का अर्थान्वयन या अर्थ-निर्धारण किया जाता है।

    निर्वाचन (व्याख्या) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा न्यायालय संविधि में प्रयुक्त शब्दों का विधायिका के आशय के अनुरूप अर्थ लगाते हैं। इस प्रकार निर्वचन द्वारा संविधि में प्रयुक्त शब्दों को अर्थ प्रदान किया जाता है या उनका अर्थ निर्धारित किया जाता है।

    उद्देश्य

    संविधियों की व्याख्या का मुख्य उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि संविधि में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उसका अभिव्यक्त अथवा विवक्षित रूप से आशय क्या है? इसमें यह भी देखा जाता है कि किसी वाद विशेष में व्याख्याकार द्वारा दी गई व्याख्या प्रयोज्य होती है या नहीं।

    श्री जयराम ऐज्यूकेशनल ट्रस्ट बनाम ए जी सैय्यद मोहिद्दीन के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि— "व्याख्या का उद्देश्य यह नहीं है कि यह देखा जाए कि विधि न्यायाधीश के विचारों के अनुरूप है या नहीं, अपितु यह है कि वह विधायिका के आशय को पूरा करती है या नहीं।

    निर्वचन के नियम

    वैसे निर्वाचन के अनेक नियम है और समय-समय पर यह विकसित होते रहे हैं, हालांकि यहाँ कुछ महत्वपूर्ण नियमों का उल्लेख किया जा रहा है-

    1 शाब्दिक व्याख्या

    शाब्दिक व्याख्या (Literal interpretation) संविधियों को सर्वोत्तम व्याख्या मानी जाती है। इसके अनुसार संविधि में प्रयुक्त भाषा का प्राकृतिक अर्थ लगाया जाता है अर्थात् उसका शाब्दिक व्याकरण-मूलक अर्थ लगाया जाता है। 'जोगेश्वर मांझी बनाम रामिया किशन के मामले में उड़ीसा हाई कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि व्याख्या का प्राकृतिक नियम यह है कि सरल शब्दों की व्याख्या भी सरल ही की जानी चाहिये अर्थात् सरल या सीधे शब्दों की उनके अर्थ के अनुरूप व्याख्या की जानी चाहिये।

    प्रमोटर्स एण्ड बिल्डर्स एसोसियेशन ऑफ पुणे बनाम पूणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा यही प्रतिपादित किया गया है कि- "जहाँ संविधि की भाषा एकदम स्पष्ट है, वहाँ उसे उसका प्राकृतिक अर्थ ही दिया जाना चाहिये।

    बी परमानन्द बनाम मोहन कोइकल के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि— जहाँ संविधि की भाषा सीधी एवं स्पष्ट हो, वहाँ शाब्दिक व्याख्या के नियम को ही लागू किया जाना चाहिये।

    2. तार्किक व्याख्या

    जब शाब्दिक व्याख्या से काम नहीं चल पा रहा हो तब 'तार्किक व्याख्या' (Logical interpretation) का सहारा लिया जाता है। बस विधि की भाषा स्पष्ट एवं सुनिश्चित अर्थ देने वाली नहीं हो तब संविधि की गहराई में जाकर विधायिका के आशय का पता लगाने का प्रयास किया जाता है। यही संविधि की तार्किक व्याख्या है। इसे 'Sententia legis' भी कहा जाता है।

    तार्किक व्याख्या की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब संविधि की भाषा संदिग्ध अथवा अस्पष्ट होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब संविधि में दोष उत्पन्न हो जाते हैं तब उसकी तार्किक व्याख्या करनी होती है।

    ऐसे दोष निम्नांकित हो सकते हैं-

    (i) अनेकार्थता

    (ii) असंगतता;

    (iii) अपूर्णता;

    (iv) अस्पष्टतता; आदि।

    नेशनल इन्स्योरेन्स लिमिटेड बनाम लक्ष्मीनारायण धूत के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि तर्क आधारित व्याख्या उद्देश्यपूर्ण होती है। कई बार यह शाब्दिक व्याख्या से भी अधिक अच्छी मानी जाती है।

    3 स्वर्णिम नियम

    संविधियों को व्याख्या में 'स्वर्णिम नियम' (Golden Rule) का महत्वपूर्ण स्थान है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, संविधियों की व्याख्या करते समय संविधियों में प्रयुक्त भाषा का शाब्दिक अर्थ ही ग्रहण किया जाना चाहिये। लेकिन यदि संविधि में प्रयुक्त की गई भाषा संदिग्ध अथवा एकाधिक अर्थ देने वाली हो तब उसमें कुछ सुधारकर उसका विधायिका के आशय के अनुरूप अर्थ लगाया जा सकता है।

    इसे ही 'व्याख्या का स्वर्णिम नियम' कहा जाता है। व्याख्या का स्वर्णिम नियम यह है कि किसी संविधि के शब्दों को प्रथमदृष्टया उसके साधारण अर्थों में ही ग्रहण किया जाना चाहिये। संविधियों की व्याख्या करने में उस समय तक उनकी शाब्दिक अभिव्यक्ति को ही मूर्त रूप प्रदान किया जाना चाहिये जब तक कि उन शब्दों का प्रयोग किसी विशिष्ट अर्थ में या उसके सम्पूर्ण अर्थ से भिन्न अर्थ में न किया गया हो।

    येलारपुर इण्डस्ट्रीज लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इडिया के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि विधायिका के आशय को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए प्रथमत: संविधि में प्रयुक्त भाषा की शाब्दिक अथवा व्याकरणमूलक व्याख्या ही की जानी चाहिये। जब ऐसा करने में कठिनाई उत्पन्न हो रही हो तो उसे दूर करने के लिए संविधि के निर्माण के समय की परिस्थितियों आदि पर भी विचार किया जा सकता है। यही व्याख्या का 'स्वर्णिम नियम' है।

    'प्रवर्तन निदेशालय बनाम दीपक महाजन" के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि व्याख्या का स्वर्णिम नियम यह है कि विधायिका का आशय निरर्थक नज विधायिका के आशय का पता लगाने तथा संविधि के उद्देश्य को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए न्यायालय को शाब्दिक अथवा व्याकरणमूलक व्याख्या से परे भी जाना पड़े तो ऐसा किया जा सकता है।

    4 रिष्टि का नियम

    संविधियों के निर्वचन में 'रिष्टि' (Mischief) का कोई स्थान नहीं है। अपेक्षा यह की जाती है कि संविधियों का निर्वाचन करते समय रिष्टि को टालने का प्रयास किया जाए।

    पाण्डुरंग डगडू पास्ते बनाम रामचन्द्र बाबूराव हिवें के मामले में बम्बई हाई कोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि बेहतर यही है कि संविधियों की शाब्दिक अथवा व्याकरणमूलक व्याख्या की जाए ताकि उसमें रिष्टि को स्थान नहीं मिलने पाए। यही एकमात्र ऐसी व्याख्या है जो संविधि के उद्देश्य तक पहुँच सकती है।

    हीडन के मामले में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

    इसमें उन चार बातों का उल्लेख किया गया है जिनका व्याख्या के समय ध्यान रखा जाना आवश्यक है-

    (i) वर्तमान विधि पारित किये जाने के पूर्व सामान्य विधि क्या थी?

    (ii) वह रिष्टि या दोष क्या था जिसके लिए सामान्य विधि में कोई व्यवस्था नहीं थी?

    (iii) राष्ट्रमण्डल की कमियों को दूर करने के लिए संसद द्वारा क्या उपाय सुझाये गये हैं?

    (iv) उपचारों का वास्तविक कारण क्या है? कुछ और मामलों में यह कहा गया है कि संविधियों की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिये

    ताकि

    (क) संविधि का उद्देश्य पूरा हो जाये तथा

    (ख) रिष्टि का निवारण हो

    सारतः व्याख्या के मुख्य-मुख्य नियम कुछ इस प्रकार हैं-

    (1) जहां संविधि की भाषा स्पष्ट एवं असंदिग्ध हो वहां उसे उसी के अनुरूप अर्थ दिया जाना चाहिये।

    (2) संविधियों की व्याख्या विधायिका के आशय के अनुरूप की जानी चाहिये।

    (3) संविधियों की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिये कि वह अप्रायिक (Unjust) न हो।

    (4) व्याख्या में 'रिष्टि' को स्थान नहीं दिया जाना चाहिये।

    (5) जहाँ कोई समर्थकारी उपबन्ध हो वहाँ यह ध्यान में रखा जाना चाहिये कि ऐसा उपबन्ध भागतः आज्ञापक एवं भागतः निदेशात्मक हो सकता है।

    (6) व्याख्या उद्देश्य परक होनी चाहिये।

    (7) संविधि में प्रयुक्त शब्दों को वही अर्थ दिया जाना चाहिये जो सामान्यतः प्रचलित है।

    (8) अधिनियम की व्याख्या उसकी स्कीम के अनुरूप की जानी चाहिये।

    (9) शब्दों को उनके विधिपूर्ण एवं अधिकारिक भाव में लिया जाना चाहिये।

    (10) उपचारात्मक संविधियों की व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिये।

    (11) विशेष संविधि के उपबन्ध सामान्य विधि के उपबन्धों पर अधिभावी होते हैं

    (12) जहाँ किसी संविधि में 'गा' (shall) शब्द का प्रयोग किया गया हो, उसे विधायिका के आज्ञापक का संकेत माना जायेगा।

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