National Security Act में लोक व्यवस्था किसे कहा गया है?

Shadab Salim

26 Jun 2025 4:59 AM

  • National Security Act में लोक व्यवस्था किसे कहा गया है?

    इस एक्ट में लोक व्यवस्था शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि इस एक्ट के अंतर्गत निरोध का आदेश पारित किये जाने के लिए लोक व्यवस्था बनाये रखने का कारण ज़रूर होना चाहिए। समाज के स्वरूप को विखंड़ित करने के लिए किसी व्यक्ति द्वारा समस्त लोक की संचना अथवा सुचारू व्यवस्था को किसी तरह क्षति पहँचाई जाती है, प्रतिदिन के जन-जीवन को सुव्यवस्थित बनाए रखने में बाधा उत्पन्न की जाती है, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता में व्यवधान उत्पन्न किया जाता है।

    वस्तुओं का अनुचित लाभ प्राप्त करने के तरीके से व्यापार अथवा व्यवसाय किया जाता है, जिससे प्रतिदिन की उपयोगी वस्तुओं की कृत्रिम न्यूनता आती है अथवा मूल्य वृद्धि कर कालाबाजारी की जाती है। यह लोक व्यवस्था को क्षति कारित किया जाना माना गया है। किसी व्यक्ति द्वारा समाज और व्यवस्था के लोक मूल्यों को ध्वस्त करने के लिए किसी भी तरह का विधिविरुद्ध कार्य किया जाता है, उसे निरुद्ध किया जा सकेगा।

    सतीश शर्मा बनाम भारत संघ एवं अन्य (2010) के मामले में जाली मुद्रा के कारोबार में निरुद्ध व्यक्ति सम्मिलित है और आपराधिक व्यक्तियों के संग विधिविरूद्ध समूह बना कर के अवैधानिक कामों में संलिप्त है, यह राष्ट्रीय अपराध है। जिससे देश की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है, असामाजिक तत्व द्वारा समाज विरोधी कार्य किया जाना अनुचित और अपराध है। ऐसे व्यक्ति को निरुद्ध किया जाना उचित एवं तर्कसंगत है।

    जुगरू उर्फ वीरेन्द्र बनाम म.प्र. राज्य एवं अन्य, 2010 के मामले में जिला मजिस्ट्रेट द्वारा निरोध आदेश पारित किया गया, जिसे याची ने चुनौती दी चुनौती का आधार यह लिया गया कि याची के विरुद्ध कुछ आपराधिक मामले न्यायिक प्रक्रिया में विनिश्चित किये गये हैं उसे दोषमुक्त किया गया है, परन्तु उसे दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराये गये। कोर्ट द्वारा अभिमत दिया गया कि इसके अंतर्गत जिला मजिस्ट्रेट का समाधान होना एकमात्र आधार सर्वोपरिय तथ्य है।

    मजिस्ट्रेट द्वारा समाधान करते समय यह देखा जायेगा कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता लोक व्यवस्था बनाये रखने पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अभिलेख पर यह यह तथ्य आया कि याची की छवि घोर अपराधी की है, उसका आचरण सामाजिक जन-जीवन को ध्वस्त एवं रहवासियों आतंकित करने का है। उसके मौजूद रहने मात्र से व्यवसायिक दुकान बंद कर चले जाते है, कई व्यक्ति घरों में छुपने के लिये विवश हो जाते हैं। यह माना गया कि उसका आचरण लोक व्यवस्था को क्षति पहुँचाने का है। सलाहकार मंडल द्वारा निरोध आदेश की अभिपुष्टि की गई। निरोध आदेश समुचित आधारों पर होने से रिट याचिका खारिज की गई ।

    शकीला बानो बनाम मध्यप्रदेश राज्य एवं अन्य, 2013 के प्रकरण में पुलिस अधीक्षक गुना द्वारा दिनांक 7-2-2012 को एक पत्र जिला मजिस्ट्रेट के नाम सम्बोधित करते हुए प्रेषित किया गया। उसके अन्तर्गत सूचित किया गया कि श्रीमती शकीला बानो गुना में कई आपराधिक मामले कर चुकी है, जिसमें मूलतः स्मैक का कारोबार अवैध रूप से किए जाने और आपराधिक क्षेत्रों से निरन्तर सम्पर्क रखने से जन-साधारण पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है।

    कई प्रावधानों के अन्तर्गत प्रतिबन्धात्मक कार्यवाही की गई। उसका निरन्तर आपराधिक कृत्य में संलिप्त रहने से धारा 3 (2) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के अन्तर्गत उसे निरुद्ध किया जाना आवश्यक है। निरुद्ध किए जाने का समुचित लेख होने पर निरूद्ध प्राधिकारी द्वारा निष्कर्ष दिया गया कि स्वापक कारोबार और परिवहन में उसे संलिप्त रहते हुए निरुद्ध किया जाना आवश्यक हो गया है। राज्य सरकार को और सलाहकार मण्डल को निरुद्ध व्यक्ति द्वारा उसे निरूद्ध किए जाने के विरुद्ध समुचित अभ्यावेदन प्रस्तुत किया गया। उसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट याचिका प्रस्तुत कर निरोधादेश को चुनौती दी गई।

    हाईकोर्ट द्वारा अभिमत दिया गया कि निरुद्ध व्यक्ति को कारावास से रिहा किया जाने की सम्भावना थी और उसके स्वतंत्र होते ही आपराधिक जीवन की पुनः शुरुआत हो सकती थी। इस स्थिति में उसके विरुद्ध सम्पूर्ण अभिलेख से प्रतीत होता है कि वह समाज को निरन्तर स्वापक औषधियों में लिप्त कर रही है। उसे निरुद्ध रखा जाना तर्कसंगत है।

    प्राधिकारी द्वारा दस्तावेजों के आधार पर संतुष्टि की जायेगी और समुचित आधार लिए जाकर निरोध आदेश पारित किया जायेगा । आदेश में व्यक्ति को निरुद्ध रखने के लिए निर्देशित किया जायेगा और इस हेतु सामान्यतः संविधिक अवधि का उल्लेख किया जायेगा। उक्त अवधि संविधान के अनुच्छेद 22(4) में दी गई है, यह अवधि तीन माह रखी गई है। सामान्यतः ऐसी कोई त्रुटि की जाए और संविधिक अवधि का उल्लेख न भी किया जाएँ, उससे निरोध आदेश अभिखंडित किए जाने योग्य नहीं है। यह सारवान् त्रुटि न होकर, तकनीकि त्रुटि है।

    एक मामले में प्रार्थी के विरुद्ध निरोधादेश पारित किया गया। वह प्रतिबंधित संगठन का सक्रिय सदस्य है और भारत सम्प्रभु राष्ट्र की सुरक्षा को उससे खतरा है। वह राज्य की लोक व्यवस्था को बनाए रखने में भी विघ्नसंतोषी है। निरोधादेश में उसे निरुद्ध किए जाने की अवधि न दिया जाना घातक नहीं है। प्राधिकारी के लिए यह आवश्यक नहीं किया गया है कि याची का मामला परामर्श मंडल को भेजे जाने की सूचना याची को देवें। निरोधादेश विधिसम्मत ठहराया गया।

    निवारक नजरबंदी के लिये यह आधार लिया गया कि व्यक्ति जमानत पर रिहा होते ही आपराधिक कार्यों में संलिप्त हो जायेगा। कोर्ट द्वारा अभिमत दिया गया कि किसी व्यक्ति के जमानत पर रिहा हो जाने को निवारक नजरबंदी का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इस हेतु और भी सामग्री इस संबंध में अभिलेख पर होना आवश्यक है कि ऐसा व्यक्ति लोक व्यवस्था को भंग करने की स्थिति में है और वह निरंतर इस ओर अग्रसर है। व्यक्ति को रिहा किया गया।

    संविधान के अनुच्छेद 22(4) में यह प्रावधान किया गया है कि हाईकोर्ट के सेवा निवृत्त अथवा पदस्थ न्यायाधीश से मिलकर सलाहकार मंडल बनाया जायेगा। इस हेतु ऐसे व्यक्ति भी चुने जा सकेंगे, जो हाईकोर्ट के न्यायाधीश होने के लिए अर्हित हैं। इस तरह हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त या पदस्थ न्यायाधीश के अतिरिक्त जनता में से कोई व्यक्ति सलाहकार मंडल में लिया जा सकेगा, उक्त सलाहकार मंडल को मामला निर्देशित किया जायेगा, जो तीन माह की अवधि समाप्त होने के किसी व्यक्ति को निरुद्ध रखने के संबंध में अपनी समुचित राय देगा और उन आधारों पर विचार करेगा।

    एक अन्य प्रकरण में निरोध आदेश पारित किया गया। सलाहकार मंडल को प्रकरण साथ अभ्यावेदन भेजा जाना चाहिए। यह विधि का स्थापित सिद्धांत है कि सलाहकार मंडल को मामला निर्देशित किए जाने के पश्चात् अभ्यावेदन ग्राह्य किया जा सकेगा और उस पर विधिक प्रक्रिया अनुसार विचार किया जायेगा। निरोध प्राधिकारी द्वारा प्रक्रिया के विरुद्ध कार्य सम्पादन किया गया। आदेश अभिखंडित किया गया।

    निरोध आदेश दिए जाने पर संबंधित व्यक्ति पर उसका निर्वाह किया जायेगा और उसे यह की संसूचित किया जायेगा कि वह आदेश समुचित आधारों पर पारित किया गया है और अभ्यावेदन करने के लिए ऐसे व्यक्ति को अवसर दिया जायेगा। अभ्यावेदन पर सामान्यतः सात दिवस की अवधि में विचार किया जायेगा और उसे निरस्त किए जाने अथवा मंजूर किए जाने का निर्णय लिया जायेगा। विलंब किए जाने पर ऐसा स्पष्टीकरण दिया जाना अपेक्षित है।

    विलंब का स्पष्टीकरण यायसम्मत होने पर उसका विलंब क्षम्य किया जायेगा। विलंब का स्पष्टीकरण देने में कोई चूक की ईअथवा विलंब जानबूझकर किया गया, उस स्थिति में निरोध आदेश अभिखंडित किए जाने योग्य है। सर्वोच्च कोर्ट द्वारा एक से अधिक न्याय निर्णय में यह अभिमत दिया गया है कि विलंब का कोई पैमाना विधि के अंतर्गत सुनिश्चित नहीं किया गया है और यह कोर्ट के न्यायिक विवेकाधिकार के अधीन विनिश्चित किए जाने योग्य है कि व्यक्ति के साथ विधिसम्मत व्यवहार किया गया है अथवा जानबूझकर विलंबकारी आचरण किया गया है।

    किसी भी व्यक्ति को बिना कारण उसकी स्वतंत्रता से वंचित न किया जाएं और बिना कोई कारण दशांए अभ्यावेदन के विनिश्चय में देरी न लगाई जाएं. इस हेतु केन्द्र सरकार को दायित्वाधीन किया गया है। निरोध आदेश केवल उन्ही परिस्थितियों में पारित किया जाएगा, जबकि लोक व्यवस्था और समूहगत हितों को क्षति कारित किया गया है।

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