आपराधिक मामलों में जांच किसे कहा जाता है एवं इसका कानूनी महत्व

Shadab Salim

8 Oct 2022 12:38 PM IST

  • आपराधिक मामलों में जांच किसे कहा जाता है एवं इसका कानूनी महत्व

    किसी आपराधिक मामले में अनेक चरण होते हैं। कोई मामला प्रथम सूचना रिपोर्ट से प्रारंभ होकर अपीलीय न्यायालय के निर्णय तक जाता है। किसी आपराधिक मामले में जिस तरह आरोप होता है उस ही तरह जांच भी एक स्तर है। किसी मामले में मजिस्ट्रेट जांच महत्वपूर्ण भी होती है, जैसे पुलिस अधिकारियों पर प्राथमिकी दर्ज करने के पहले मजिस्ट्रेट जांच आवश्यक होती है। इस आलेख में इस ही जांच शब्द पर चर्चा की जा रही है एवं उसके कानूनी महत्व को समझा जा रहा है।

    जांच एवं अन्वेषण विचारण की प्रारम्भिक प्रक्रियाए हैं। जब न्यायालय के समक्ष कोई 'परिवाद' प्रस्तुत किया जाता है तो प्रसंज्ञान लेने से पूर्व मजिस्ट्रेट द्वारा 'जांच' की जाती है। जाँच में यह देखा जाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं अर्थात् प्रसंज्ञान लेने के लिए कोई आधारभूत सामग्री उपलब्ध है या नहीं। अन्वेषण का भी यही उद्देश्य है। अंतर मात्र इतना ही है कि जाँच मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है जबकि अन्वेषण पुलिस अधिकारी द्वारा किया जाता है।

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (छ) में 'जांच' की परिभाषा इस प्रकार दी गई है "जाँच से अभिप्राय विचारण से भिन्न उस प्रत्येक जाँच से है जो इस संहिता के अन्तर्गत किसी मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा की जाये।"

    इस प्रकार इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है-

    (i) जाँच मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा की जाती है, तथा

    (ii) यह विचारण से भिन्न होती है।

    जांच में इन सभी कार्यों को सम्मिलित किया जाता है जो मजिस्ट्रेट के द्वारा कार्यवाही के दौरान किये जाते हैं। जाँच का मुख्य उद्देश्य किसी तथ्य की सत्यता का निर्धारण करना है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 107 के अधीन की जाने वाली कार्यवाहियाँ 'जांच' के अर्थान्तर्गत आती है।

    जाँच की प्रक्रिया:-

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 से 205 तक में जांच की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। जाँच की प्रक्रिया में निम्नांकित सम्मिलित है-

    1. परिवाद का प्रस्तुतीकरण

    परिवाद का प्रस्तुतीकरण हालांकि जांच का भाग नहीं है, लेकिन अध्ययन एवं जानकारी की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है। परिवाद प्रस्तुत करने के पश्चात् ही जांच प्रारम्भ की जाती है। परिवाद के प्रस्तुतीकरण के बारे में निम्नांकित बातें ध्यान रखने योग्य हैं-

    (क) परिवाद स्पष्ट एवं लिखित में होना चाहिये।

    (ख) स्वयं परिवादी अथवा उसके अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिये।

    (ग) निर्धारित कालावधि में प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिये

    (घ) सक्षम न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना चाहिये।

    (ङ) परिवाद के साथ साक्षियों की सूची संलग्न कर दी जानी चाहिये।

    2. परिवादी की परीक्षा परिवाद प्रस्तुत किये जाने पर अपराध का संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट द्वारा

    (क) परिवादी की एवं उसके साक्षियों की शपथ पर परीक्षा की जायेगी,

    (ख) ऐसी परीक्षा के सारांश को लेखबद्ध किया जायेगा, तथा

    (ग) उस पर परिवाद, साक्षियों एवं मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर (धारा 200) परिवाद पेश होने पर मजिस्ट्रेट उपरोक्त समस्त कार्यवाहियों करने के लिए आबद्ध है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो पश्चात्वर्ती समस्त कार्यवाहियाँ अवैधानिक हो जायेंगी।

    अपवाद

    उपरोक्त व्यवस्था के निम्नांकित अपवाद है अर्थात् निम्नांकित दशाओं में मजिस्ट्रेट परिवादी एवं उसके साक्षियों की परीक्षा करने के लिए आबद्ध नहीं होगा, यदि

    (1) परिवाद पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले किसी 'लोकसेवक' (Public Servant) द्वारा या न्यायालय' (Court) द्वारा प्रस्तुत किया गया है, अथवा

    (2) यदि ऐसा परिवाद जाँच या विचारण के लिए संहिता की धारा 192 के अन्तर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को भेज दिया जाता है। 'गोगाराम बनाम स्टेट के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि संहिता की धारा 200 का क्षेत्र अत्यंत सीमित है। धारा 200 के अनुसार परिवाद पेश होने पर मजिस्ट्रेट का केवल यह कर्तव्य है कि वह

    (1) परिवादी एवं साक्षियों की शपथ पर परीक्षा करें,

    (2) परीक्षा के सारांश को लेखबद्ध करें, तथा

    (3) उस पर हस्ताक्षर करें।

    वह अपनी ओर किसी अतिरिक्त जाँच के आदेश नहीं दे सकता जैसे केस डायरी/जेल डायरी मंगवाकर यह अन्वेषण नहीं कर सकता है कि परिवादी का चिकित्सीय परीक्षण क्यों नहीं करवाया गया, आदि।

    3. परिवाद को लौटा दिया जाना

    यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि परिवाद में उसे संज्ञान लेने की अधिकारिता नहीं है अर्थात् वह संज्ञान लेने के लिए सक्षम नहीं है तो-

    (i) परिवाद को समुचित न्यायालय में पेश करने का पृष्ठांकन करते हुए उसे परिवादी को लौटा देगा, यदि परिवाद लिखित में है, और

    (ii) यदि लिखित में नहीं है तो परिवादी को उचित न्यायालय में जाने का निदेश देगा। (धारा 201)

    4. जाँच अथवा अन्वेषण किया जाना -

    परिवाद पेश होने पर यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि वह अपराध का संज्ञान लेने के लिए तो सक्षम है, किन्तु अभियुक्त उस न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता से बाहर रहता है तो यह पता लगाने के लिए कि परिवाद में आगे कार्यवाही किये जाने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं, वह

    (i) आदेशिका जारी किया जाना स्थगित (मुल्तवी कर देगा,

    (ii) परिवाद पर स्वयं जाँच करेगा, अथवा

    (ii) उसे अन्वेषण हेतु पुलिस अधिकारों को भेज देगा।

    लेकिन यदि परिवादित अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो मजिस्ट्रेट उसे अन्वेषण हेतु भेजने का निदेश नहीं दे सकेगा। ऐसी स्थिति में वह सभी साक्षियों की शपथ पर साक्ष्य से सकेगा। (धारा 202)

    धारा 202 से यह बात स्पष्ट होती है कि किसी परिवाद मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस अधिकारी को अन्वेषण हेतु भेजा जा सकता है। धारा 202 के अन्तर्गत आदेशिका जारी किये जाने का आदेश एक अन्तवर्ती आदेश (Intalocuory Order) है। उसके विरुद्ध पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता है यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी मामले में पुलिस अधिकारी द्वारा अन्तिम रिपोर्ट पेश करने तथा उसे स्वीकार कर लेने के बाद भी मजिस्ट्रेट द्वारा परिवाद पर प्रसंज्ञान लिया जा सकता है।'

    5. परिवाद का खारिज किया जाना

    धारा 202 के अन्तर्गत जाँच अथवा अन्वेषण के पश्चात् एवं परिवादी तथा उसके साक्षियों के कथन लेखबद्ध करने पर यदि मजिस्ट्रेट की यह राय हो कि आगे कार्यवाही किये जाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं तो वह

    (i) परिवाद को खारिज कर देगा, तथा

    (ii) खारिज किये जाने के ऐसे कारणों को लेखबद्ध करेगा (धारा 203)

    जब कोई परिवाद गुणागुण पर खारिज कर दिया जाता है तो उन्हीं तथ्यों पर दूसरा परिवाद आपवादिक परिस्थितियों में ही किया जा सकेगा

    6. आदेशिका जारी किया जाना

    धारा 204 के अनुसार जब मजिस्ट्रेट यह पाता है कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है तो वह करेगा, और

    (i) समन मामले में अभियुक्त के हाजिर होने के लिए समन जारी

    (ii) वारन्ट मामले में वारन्ट या समन जारी करेगा।

    लेकिन कोई भी समन या वारन्ट तब तक जारी नहीं किया जा सकेगा जब तक अभियोजन के साक्षियों की सूची फाइल नहीं कर दी जाती है।

    प्रत्येक समन या वारन्ट के साथ परिवाद की एक प्रतिलिपि संलग्न करनी होगी। समन या वारन्ट जारी करने के लिए परिवादी को आदेशिका शुल्क देना होगा।

    इस प्रकार धारा 204 समन या वारन्ट जारी किये जाने के बारे में प्रावधान करती है। समन या वारन्ट जारी करने से पूर्व मजिस्ट्रेट द्वारा परिवाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर अच्छी तरह विचार कर लिया जाना चाहिये। किसी व्यक्ति को परेशान करने के लिए यांत्रिक रूप से आदेशिका जारी किये जाने को उचित नहीं माना गया है।

    आदेशिका के साथ परिवाद की प्रतिलिपि दिया जाना अपेक्षित है। लेकिन ऐसी प्रतिलिपि पेश नहीं किये जाने मात्र के आधार पर आदेशिका को अविधिमान्य नहीं समझा जायेगा। धारा 204 के उपबन्ध निदेशात्मक है, आज्ञापक नहीं।

    धारा 204 के अन्तर्गत आदेशिका जारी करने का आदेश विस्तृत होना आवश्यक नहीं है। ऐसे किसी आदेश को मात्र इस आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह विस्तृत नहीं है।

    7. वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति

    मजिस्ट्रेट द्वारा जब किसी व्यक्ति को हाजिरी के लिए समन जारी किया जाता है तब उचित कारण होने पर वह

    (i) ऐसे व्यक्ति (अभियुक्त) को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकेगा, और

    (ii) अपने 'प्लीडर' द्वारा हाजिर होने को अनुज्ञा दे सकेगा। (धारा 205) इस प्रकार समन मामलों में अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति का प्रावधान धारा 205 में किया गया है। लेकिन यदि वारन्ट मामले में समन जारी किया जाता है तो भी वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकेगी।

    लेकिन यह और कि वारन्ट जारी किये जाने पर ऐसी अभिमुक्ति नहीं दी जा सकेगी।' वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति का आदेश देते समय निम्नांकित बातों पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है

    (i) सुनवाई की प्रत्येक तिथि पर अभिमुक्त की आवश्यकता तो नहीं है, तथा

    (ii) वैयक्तिक अनुपस्थिति से विचारण में व्यवधान तो उत्पन्न नहीं होगा।

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