सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया को संवेदनशील और निष्पक्ष बनाने के लिए क्या महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं?
Himanshu Mishra
17 Feb 2025 11:52 AM

यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment) के मामले न्याय प्रणाली (Legal System) के लिए एक बड़ी चुनौती होते हैं। अदालतों को आरोपी (Accused) के अधिकारों और पीड़िता (Victim) को न्याय (Justice) दिलाने के बीच संतुलन (Balance) बनाना होता है। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने XYZ बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022 LiveLaw (SC) 676) के मामले में इस विषय पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की।
इस फैसले में अदालतों और पुलिस (Police) की जिम्मेदारियों को दोहराया गया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि पीड़िता को अनावश्यक मानसिक आघात (Trauma) न झेलना पड़े। यह लेख सुप्रीम कोर्ट द्वारा चर्चा किए गए कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) और न्यायिक दृष्टांतों (Judicial Precedents) की व्याख्या करेगा, ताकि यह समझा जा सके कि ऐसे मामलों में पुलिस, मजिस्ट्रेट (Magistrate) और अदालतों की क्या भूमिका होनी चाहिए।
यौन उत्पीड़न मामलों में FIR दर्ज करने का पुलिस का कर्तव्य (Duty of Police to Register an FIR in Sexual Harassment Cases)
इस फैसले का एक प्रमुख विषय यह था कि पुलिस को कब और कैसे प्राथमिकी (FIR) दर्ज करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) 2 SCC 1 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें संविधान पीठ (Constitution Bench) ने स्पष्ट किया था कि जब भी किसी शिकायत (Complaint) में संज्ञेय अपराध (Cognizable Offense) दर्शाया गया हो, पुलिस को FIR दर्ज करना अनिवार्य (Mandatory) है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पुलिस इस स्तर पर यह तय नहीं कर सकती कि आरोप सही हैं या गलत। जांच (Investigation) के बाद यदि अपराध सिद्ध नहीं होता है, तो पुलिस धारा 173 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत 'क्लोजर रिपोर्ट' (Closure Report) दाखिल कर सकती है। लेकिन FIR दर्ज करने से इनकार करने का कोई अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पुलिस की निष्क्रियता (Inaction) की आलोचना की और यह कहा कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाएँ पहले ही सामाजिक दबाव (Social Pressure) और मानसिक आघात (Trauma) झेल रही होती हैं। पुलिस को उनकी मदद करनी चाहिए, न कि FIR दर्ज करने में अनावश्यक बाधाएँ (Obstacles) उत्पन्न करनी चाहिए।
मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार (Discretion of the Magistrate) - धारा 156(3) CrPC
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि मजिस्ट्रेट को धारा 156(3) CrPC के तहत पुलिस को जांच (Investigation) का आदेश देने का कितना अधिकार (Discretion) है।
सुप्रीम कोर्ट ने सकरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2008) 2 SCC 409 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती है, तो पीड़ित पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) से शिकायत कर सकता है। यदि फिर भी कोई समाधान नहीं मिलता है, तो पीड़ित मजिस्ट्रेट के पास धारा 156(3) CrPC के तहत आवेदन कर सकता है, और मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने और उचित जांच करने का आदेश दे सकता है।
इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने स्वीकार किया था कि शिकायत में अपराध का प्रथम दृष्टया (Prima Facie) उल्लेख था, लेकिन इसके बावजूद पुलिस को जांच का आदेश देने के बजाय, उन्होंने इसे धारा 200 और 202 CrPC के तहत "निजी शिकायत" (Private Complaint Case) मान लिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को गलत ठहराया, विशेष रूप से तब जब सबूत (Evidence) जैसे CCTV फुटेज आरोपी के कब्जे में हो सकते हैं। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में जांच का जिम्मा पुलिस को सौंपा जाना चाहिए क्योंकि पीड़िता के लिए खुद सबूत इकट्ठा करना कठिन होता है।
यौन उत्पीड़न मामलों में निष्पक्ष सुनवाई और पीड़िता की सुरक्षा (Ensuring Fair Trial and Protecting Victims in Sexual Harassment Cases)
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अदालतों को यौन उत्पीड़न मामलों में अत्यधिक संवेदनशीलता (Sensitivity) के साथ कार्य करना चाहिए। अदालत ने वीरेंद्र बनाम NCT दिल्ली राज्य (2009 SCC OnLine Del 3083) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि समाज में यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को अक्सर अपमान (Stigma) झेलना पड़ता है, और न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) उनके लिए और अधिक कठिन नहीं बननी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित दिशानिर्देश (Guidelines) दिए कि ऐसे मामलों को अदालतों में कैसे संभाला जाए:
1. कैमरे में कार्यवाही (In-Camera Proceedings): धारा 327 CrPC के तहत, अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुनवाई बंद कमरे (Closed Court) में हो ताकि पीड़िता की गरिमा (Dignity) बनी रहे।
2. स्क्रीन या अलग कमरे का उपयोग (Use of Screens or Separate Rooms): पीड़िता को आरोपी के सामने नहीं लाया जाना चाहिए। यदि आवश्यक हो, तो अदालत एक स्क्रीन (Screen) लगा सकती है या आरोपी को गवाही के दौरान बाहर भेज सकती है।
3. सम्मानजनक जिरह (Respectful Cross-Examination): बचाव पक्ष (Defense) के वकील को पीड़िता के यौन इतिहास (Sexual History) से जुड़े अपमानजनक (Inappropriate) प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
4. जल्द से जल्द जिरह पूरी करना (Completing Cross-Examination in One Sitting): अदालतों को कोशिश करनी चाहिए कि पीड़िता की जिरह एक ही दिन में पूरी हो ताकि उसे बार-बार मानसिक आघात न सहना पड़े।
यौन उत्पीड़न मामलों में प्रभावी जांच की आवश्यकता (Ensuring Proper Investigation in Sexual Harassment Cases)
सुप्रीम कोर्ट ने जोर दिया कि यौन उत्पीड़न मामलों में जांच निष्पक्ष (Fair) और प्रभावी (Effective) होनी चाहिए। महाराष्ट्र राज्य बनाम बंदू @ दौलत (2018) 11 SCC 163 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सभी राज्यों में विशेष केंद्र (Special Centers) स्थापित किए जाएँ, जहाँ यौन अपराधों की पीड़िताएँ सुरक्षित माहौल में बयान दर्ज करा सकें।
इसी तरह, स्मृति तुकाराम बडाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2022 SCC OnLine SC 78) में सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश (Guidelines) दिए कि पीड़ितों को एक सुरक्षित वातावरण (Safe Environment) मिले जहाँ वे बिना डर के अपनी गवाही दर्ज करा सकें।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पुलिस, मजिस्ट्रेट और अदालतों की क्या भूमिका होनी चाहिए।
अदालत ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करने से इनकार नहीं करना चाहिए और मजिस्ट्रेट को धारा 156(3) CrPC के तहत विवेकाधिकार का उचित उपयोग करना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालयों को सुनवाई के दौरान पीड़िता की गरिमा और मानसिक स्थिति का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
यह फैसला न्याय प्रणाली को यह याद दिलाता है कि न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। विशेष रूप से जब किसी पीड़िता के सम्मान और अधिकारों की बात हो, तो अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे न्याय पाने के लिए अतिरिक्त कठिनाइयों का सामना न करना पड़े।