अपराधों के अपवाद किसे कहा गया है: भाग 2

Shadab Salim

17 Oct 2022 4:20 AM GMT

  • अपराधों के अपवाद किसे कहा गया है: भाग 2

    कुछ कार्यो को अपराध के अपवाद के रूप में रखा गया है। ऐसे कार्य जो आपराधिक कार्य या लोप होते हुए भी अपराध नहीं माने जाते हैं। जैसे हत्या एक जघन्य और संज्ञेय अपराध है लेकिन सात वर्ष से कम के व्यक्ति द्वारा हत्या को अपराध नहीं माना जाता, इस ही तरह एक न्यायाधीश के आदेश पर जल्लाद द्वारा दी जाने वाली फांसी भी हत्या नहीं होती है। इसे ही अपराधों का अपवाद कहा गया है। यह आलेख ऐसे अपवादों का भाग दो है जिसमे बिंदुवार ऐसे अपवादों का उल्लेख किया जा रहा है।

    1 विकृत चित्त व्यक्ति का कार्य

    विकृत चित्त व्यक्ति की स्थिति भी एक सामान्य व्यक्ति से भिन्न होती है, अतः उसे भी साधारण अपवाद के अन्तर्गत रखा गया है। विकृत चित्त को सामान्यतः 'पागल', 'जड़' अथवा 'उन्मत' भी कहा जाता है।

    भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 84 में यह कहा गया है कि- कोई बात अपराध नहीं है। जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो उसे करते समय चित्तविकृति के कारण उस कार्य की प्रकृति था यह कि वह जो कुछ कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है, जानने में असमर्थ है। इस प्रकार धारा 84 के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई किसी बात को अपराध नहीं माना गया है, जो ऐसा कार्य या बात करते समय-

    (1) विकृत रहा हो;

    (2) यह जानने में असमर्थ रहा हो कि वह जो कुछ कर रहा है, यह विधि के प्रतिकूल या दोषपूर्ण है; अथवा

    (3) कार्य की प्रकृति व उसके परिणामों को जानने में असमर्थ रहा हो।

    धारा 84 का लाभ प्राप्त करने के लिए उपरोक्त सभी बातों का विद्यमान होना आवश्यक है-

    विकृत चित्त व्यक्ति के कार्यों को साधारण अपवाद के अन्तर्गत लेने का मुख्य कारण ऐसे व्यक्ति में कार्य की प्रकृति एवं परिणामों को समझने की अक्षमता होना है।

    विकृतचित्तता क्या है

    संहिता में विकृतचित्तता की परिभाषा नहीं दी गई है। सामान्यतः विकृतचित्तता से अभिप्राय ऐसी मानसिक दशा से लिया गया है जिसके कारण व्यक्ति सही एवं गलत तथा अच्छाई एवं बुराई में अन्तर करने में असमर्थ हो ।

    निम्नांकित व्यक्तियों को विकृतचित्त वाला व्यक्ति नहीं माना गया है-

    (i) चिड़चिड़ा स्वभाव वाला,

    (ii) अधीर स्वभाव वाला,

    (iii) मिर्गी के दौरे से पीड़ित व्यक्ति, आदि।

    विकृतचित्तता का कार्य किये जाने के समय होना आवश्यक है। कार्य किये जाने के पूर्व या पश्चात् को विकृतचित्तता बचाव का आधार नहीं हो सकती।

    सिंहपाल कमला यादव बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा 84 का लाभ प्राप्त करने के लिए अभियुक्त का अपराध कारित करते समय विकृतचित्त होना आवश्यक है। यदि चिकित्सीय परीक्षण की रिपोर्ट में अभियुक्त का मानसिक रूप से अस्वस्थ होना नहीं बताया गया है तो उसे धारा 84 का लाभ नहीं मिल सकेगा। मैकनॉटन का नियम

    इस कानून के संबंध में मैकनाटन का सिद्धांत प्रसिद्ध है जिसका अवलंबन भारतीय विधि में भी लिया जाता है। यह मामला इंग्लैंड का है। मैकनॉटन कई वर्षों से 'उत्पीड़न उन्माद' नामक रोग से पीड़ित था। मैकनॉटन को यह धारणा थी कि कुछ व्यक्तियों का समूह उसका पीछा करता है, निन्दा करता है तथा उसे मिलने वाली नौकरियों में व्यवधान पैदा करता है। एक दिन उसने चेरिंग फ्रांस रेलवे स्टेशन पर एक व्यक्ति को गोली मार दी जिसका नाम इग्मोन्ड था। उसने उसे इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री सर रॉबर्ट पॉल समझकर गोली मारी क्योंकि उसे ही यह अपने दुर्भाग्य का कारण मानता था। जूरी द्वारा मैकनॉटन को उन्मतत्ता (चित्तविकृति) के आधार पर दोषमुक्त कर दिया गया है

    इस प्रकरण में जो नियम प्रतिपादित किये गये वे मैकनॉटन के नियम कहलाते हैं।

    इन नियमों में मुख्य है-

    (i) घटना के समय अभियुक्त का विकृतचित्त होना,

    (ii) तत्समय कार्य की प्रकृति एवं परिणामों को जानने में असमर्थ होना, तथा

    (iii) यह जानने में असमर्थ होना कि यह जो कुछ कर रहा है वह

    (क) दोषपूर्ण है, अथवा

    (ख) विधि के प्रतिकूल है।

    2 मतत्ता की स्थिति में किये गये कार्य

    संहिता की धारा 85 में यह कहा गया है कि कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो उसे करते समय मतता के कारण उस कार्य की प्रकृति या यह कि जो कुछ वह कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है, जानने में असमर्थ है, परन्तु यह तब जबकि वह चीज जिससे उसकी मतत्ता हुई थी, उसके अपने ज्ञान के बिना या इच्छा के विरुद्ध दी गई थी।

    यह धारा नशे में किये गए कार्य में लागू होती है। नशे में किये हुए कार्य या लोप को भी अपराध से मुक्त रखा गया है लेकिन ऐसा नशा ज्ञान और इच्छा के विरुद्ध होना चाहिए।

    इस प्रकार धारा 85 के अन्तर्गत मत्ता के अधीन किये गये कार्यों को आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है, बशर्ते कि

    (i) मत्ता के कारण अभियुक्त कार्य की प्रकृति एवं उसके परिणामों को समझने में असमर्थ हो गया हो, अथवा

    (ii) यह जानने में असमर्थ हो गया हो कि वह जो कुछ कर रहा है वह

    (क) दोषपूर्ण है, या

    (ख) विधि के प्रतिकूल है, तथा

    (iii) मतत्ता उत्पन्न करने वाली चीज उसे उसके

    (क) ज्ञान के बिना, अथवा

    (ख) इच्छा के विरुद, दी गई हो।

    स्पष्ट है कि मतत्ता उत्पन्न करने वाली चीज उसे उसके ज्ञान के बिना अथवा इच्छा के विरुद्ध दी गई हो। स्वैच्छिक मंदिरा पान से उत्पन्न मतता के अधीन किए गए कार्य को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं किया गया है। विधिशास्त्र में कहा गया है कि

    अनैच्छिक मतत्ता एक बचाव है। यह बचाव इसलिये न्यायोचित है, क्योंकि अनैच्छिक मतत्ता का दुरुपयोग उसी प्रकार नहीं किया जा सकता जिस प्रकार स्वैच्छिक मतत्ता का इससे अपराध की पुनरावृत्ति की संभावना भी नहीं रहती है।

    मतता पागलपन की एक स्वैच्छिक प्रजाति है, जिससे यह व्यक्ति अपने को विरत रख सकता है और वह उत्तर देने को बाध्य है, किन्तु जहाँ मंदिरा पान अनैच्छिक है, यहाँ उसके आपराधिक दायित्व का निर्धारण अपराध कारित होने के समय विद्यमान अभियुक्त की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखकर किया जायेगा।

    इच्छा के विरुद्ध मतत्ता के अन्तर्गत किया गया कार्य उस व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य नहीं माना जाता है।

    संहिता की धारा 86 में एक और अवस्था का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार- उन दशाओं में जहाँ कि कोई किया गया कार्य अपराध नहीं होता, जब तक कि वह किसी विशिष्ट ज्ञान या आशय से न किया गया हो, कोई व्यक्ति जो यह कार्य मतत्ता की हालत में करता है, इस प्रकार बरते जाने के दायित्व के अधीन होगा मानों उसे वही ज्ञान था जो उसे होता यदि वह मतत्ता में न होता, जब तक कि यह चीज जिससे मतत्ता हुई थी, उसे उसके ज्ञान के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध न दी गई हो।

    इस प्रकार धारा 86 मदोन्मत व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले कुछ निश्चित अपराधों में आशय की परिकल्पना का उल्लेख करती है।

    जहाँ किसी अपराध का गठन-

    (क) कार्य:

    (ख) ज्ञान; एवं

    (ग) आशय

    के सम्मिश्रण से होता हो और जो मदोन्मत व्यक्ति द्वारा किया जाता हो, वहाँ यह परिकल्पना कर ली जायेगी कि उसमें उचित ज्ञान या आशय की कमी नहीं थी।

    3 सम्मति से किये गये कार्य

    सम्मति से किये गये कार्यों के लिए किसी व्यक्ति को दण्डित नहीं किया जा सकता। यह सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि- स्वेच्छा से किये गये कार्य के लिए क्षति प्राप्त नहीं होती।

    फिर सम्मति का स्वतंत्र होना अपेक्षित है। वह बचाव का आधार केवल तभी हो सकती है जब वह भय, धमकी, दबाव, कपट, असम्यक असर आदि से मुक्त हो।

    4 सम्मति के बिना किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्व किया गया कार्य

    कोई बात, जो किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक हालांकि उसकी सम्मति के बिना की गई है ऐसी किसी अपहानि के कारण, जो उस बात से उस व्यक्ति को कारित हो जाए, अपराध नहीं है, यदि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि उस व्यक्ति के लिए यह असम्भव हो कि वह अपनी सम्मति प्रकट करे या वह व्यक्ति सम्मति देने के लिए असमर्थ हो और उसका कोई संरक्षक या उसका विधिपूर्ण भारसाधक कोई दूसरा व्यक्ति न हो जिससे ऐसे समय पर सम्मति अभिप्राप्त करना सम्भव हो कि यह बात फायदे के साथ की जा सके, परन्तु

    परन्तुक पहला इस अपवाद का विस्तार साशय मृत्यु कारित करने या मृत्यु कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा;

    दूसरा- इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए किसी ऐसी बात के करने पर न होगा, जिसे करने वाला व्यक्ति जानता हो कि उससे मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है।

    तीसरा-इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या उपहति के निवारण के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए स्वेच्छया उपहति कारित करने या उपहति कारित करने का प्रयत्न करने पर न होग

    चौथा- इस अपवाद का विस्तार किसी ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण पर न होगा जिस अपराध के किए जाने पर इसका विस्तार नहीं है।

    दंड संहिता में दिए गए दृष्टान्त

    (क) य अपने घोड़े से गिर गया और मूर्छित हो गया क, एक शल्य चिकित्सक का यह विचार है कि य के कपाल पर शल्य क्रिया आवश्यक है क य की मृत्यु करने का आशय न रखते हुए, किन्तु सद्भावपूर्वक य के फायदे के लिए, य के स्वयं किसी निर्णय पर पहुँचने की शक्ति प्राप्त करने से पूर्व ही कपाल पर शल्य क्रिया करता है। क ने कोई अपराध नहीं किया।

    (ख) य को एक बाघ उठा ले जाता है। यह जानते हुए कि सम्भाव्य है कि गोली लगने से य मर जाए किन्तु य का वध करने का आशय न रखते हुए और सद्भावनापूर्वक य के फायदे के आशय से क उस बाघ पर गोली चलाता है। क की गोली से य को मृत्युकारक घाव हो जाता है। क ने कोई अपराध नहीं किया।

    (ग) क, एक शल्य चिकित्सक, यह देखता है कि शिशु को ऐसी दुर्घटना हो गई है जिसका साबित होना सम्भाव्य है, यदि शस्त्रकर्म तुरन्त न कर दिया जाए। इतना समय नहीं है कि उस शिशु के संरक्षक से आवेदन किया जा सके, भावपूर्वक शिशु के फायदे का आशय रखते हुए शिशु के अन्यथा अनुनय करने पर भी शस्त्रकर्म करता है। क ने कोई अपराध नहीं किया।

    (घ) एक शिशु य के साथ के एक जलते हुए गृह में है। गृह के नीचे लोग एक कम्बल तान लेते। हैं। क उस शिशु को यह जानते हुए कि सम्भाव्य है कि गिरने से यह शिशु मर जाए किन्तु उस शिशु को मार डालने का आशय न रखते हुए और सद्भावपूर्वक उस शिशु के फायदे के आशय से गृह छत पर से नीचे गिरा देता है। यहाँ गिरने से वह शिशु पर भी जाता है, तो भी क ने कोई अपराध नहीं किया।

    स्पष्टीकरण- केवल धन सम्बन्धी फायदा वह फायदा नहीं है, जो धारा 88, 89 और 92 के भीतर आता है।

    धारा 92 का उद्देश्य चिकित्सा व्यवसायियों को उन परिस्थितियों में संरक्षण प्रदान करना है जब वे किसी ऐसे रोगी के जीवन को बचाने के लिए उसके जीवन को संकट में डालते हैं अथवा पीड़ा से मुक्ति दिलाने हेतु उसे पीड़ा पहुंचाते हैं।

    धारा 92 की प्रयोज्यता के लिए निम्नांकित बातों का होना आवश्यक है-

    (1) कार्य का किसी व्यक्ति के फायदे के लिए किया जाना

    (2) सद्भावपूर्वक किया जाना,

    (3) कार्य का मामले की परिस्थितियों के अनुसार युक्तियुक्त होना तथा

    (4) कार्य का सम्मति के बिना किया जाना।

    5 सद्भावपूर्वक दी गई संसूचना

    धारा 93 में यह कहा गया है कि भावपूर्वक दी गई संसूचना उस अपहानि के कारण अपराध नहीं है जो उस व्यक्ति को हो जिसे वह दी गई है, यदि वह उस व्यक्ति के फायदे के लिए दी गई हो।

    उदाहरणार्थ- 'क' एक शल्यचिकित्सक एक रोगी को सद्भावपूर्वक यह संसूचित करता है कि उसकी राय में वह जीवित नहीं रह सकता। इस आघात के परिणामस्वरूप उस रोगी की मृत्यु हो जाती है।'क' ने कोई अपराध नहीं किया है, हालांकि यह जानता था कि उस संसूचना से उस रोगी की मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है।

    धारा 93 की प्रयोज्यता के लिए निम्नांकित दो बातों का होना आवश्यक है-

    (i) संसूचना का सद्भावपूर्वक दिया जाना तथा

    (ii) जिस व्यक्ति को संसूचना दी गई है, उसका उसके लाभ के लिए होना।

    6 धमकी के अन्तर्गत किया गया कार्य

    कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है कि व्यक्ति को 'धमकी' के अधीन कोई कार्य करन पड़ जाता है। ऐसे कार्य को भारतीय दंड संहिता की धारा 94 के अन्तर्गत आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है।

    धारा 94 का मूल रूप इस प्रकार है-

    धारा 94

    वह कार्य जिसको करने के लिए कोई व्यक्ति धमकियों द्वारा विवश किया गया है हत्या और मृत्यु से दण्डनीय उन अपराधों को, जो राज्य के विरुद्ध है, छोड़कर कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए, जो उसे करने के लिए ऐसी धमकियों से विवश किया गया हो जिनसे उस बात को करते समय उसको युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो गई हो कि अन्यथा परिणाम होगा कि उस व्यक्ति को तत्काल मृत्यु हो जाए, परन्तु यह तब जबकि उस कार्य को करने वाले व्यक्ति ने अपनी ही इच्छा से या तत्काल मृत्यु से कम अपनी अपहानि की युक्तियुक्त आशंका से अपने को उस स्थिति में न डाला हो, जिसमें कि वह ऐसी मजबूरी के अधीन पड़ गया है।

    स्पष्टीकरण 1- वह व्यक्ति, जो स्वयं अपनी इच्छा से, या पीटे जाने की धमकी के कारण, 'डाकुओं की टोली में उनके शील को जानते हुए सम्मिलित हो जाता है, इस आधार पर ही इस अपवाद का फायदा उठाने का हकदार नहीं कि वह अपने साथियों द्वारा ऐसी बात करने के लिए विवश किया गया था जो विधिना अपराध है।

    स्पष्टीकरण 2 - डाकुओं की एक टोली द्वारा अभिगृहीत और तत्काल मृत्यु को धमकी द्वारा किसी बात के करने के लिए, जो विधिना अपराध है, विवश किया गया व्यक्ति, उदाहरणार्थ एक लोहार, जो अपने औजार लेकर एक गृह का द्वार तोड़ने को विवश किया जाता है, जिससे डाकू उसमें प्रवेश कर सकें और उसे लूट सकें, इस अपवाद का फायदा उठाने के लिए हकदार है।

    धारा 94 की प्रयोज्यता के लिए निम्नांकित बातें आवश्यक हैं-

    (i) कार्य का धमकी के अधीन किया जाना;

    (ii) ऐसा कार्य हत्या या मृत्यु दण्ड से दण्डनीय राज्य के विरुद्ध अपराध के लिए नहीं किया जाना;

    (ii) कर्ता द्वारा स्वयं को स्वेच्छापूर्वक परेशानी में न डाला जाना; तथा

    (iv) भय जिसके अन्तर्गत कार्य किया गया; उसका तत्काल मृत्यु के भय से कम न होना।

    7 तुच्छ अपहानि कारित करने वाले कार्य

    कई कार्य ऐसे हैं जो दैनिक जीवन में अनायास होते रहते हैं जो दिखने में हालांकि आपराधिक प्रकृति के लगते हैं लेकिन वे वस्तुतः अपराध होते नहीं हैं,

    जैसे

    (i) किसी व्यक्ति के पेड़ से थोड़ी पत्तियां तोड़ लेना;

    (ii) किसी की कलम मांगकर वापस न लौटाना

    (iii) किसी वाहन या मेले इत्यादि हल्की फुल्की धक्कामुक्की हो जाना आदि।

    इसका मुख्य कारण यह है कि- विधि तुच्छ कार्यों पर ध्यान नहीं देती है। इसलिए ही इन छोटे कार्यो को कहीं अपराध भी नहीं बनाया गया है।

    संहिता की धारा 95 में इसी में सम्बन्ध प्रावधान किया गया है। इसमें यह कहा गया है कि कोई बात इस कारण से अपराध नहीं है कि उससे कोई अपहानि कारित होती है या कारित की जानी आशयित है या कारित होने की सम्भाव्यता ज्ञात है, यदि यह इतनी तुच्छ है कि मामूली समझ और स्वभाव वाला कोई व्यक्ति उसकी शिकायत न करेगा।

    सदानन्द बनाम शिवकली हजारा के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- सभ्य समाज में सभी कार्य ठप्प हो जायेंगे यदि तुच्छ शब्दों के पीछे व्यक्ति को आपराधिक अभियोजन का भय लगने लगे।

    शब्द अपहानि में शारीरिक, मानसिक एवं सम्पत्ति विषयक हानि सम्मिलित है।

    तुच्छ कार्य ऐसा होना चाहिये जिसकी सामान्य प्रज्ञा वाला व्यक्ति शिकायत न करे। लेकिन बहुत से कार्य ऐसे है कि तुच्छ लगते हुए तुच्छ होते नहीं है जैसे किसी स्त्री के कूल्हे पर मारना तुच्छ कार्य नहीं है, इस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के प्रावधान है जो एक संज्ञेय अपराध की श्रेणी का अपराध है। जहां अभियुक्त को दोषसिद्ध होने पर कम से कम एक वर्ष तक का कारावास दिया जा सकता है और साथ ही जुर्माना भी।

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