संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग:5 क्या संपत्ति अंतरित की जा सकती है

Shadab Salim

31 July 2021 5:58 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग:5 क्या संपत्ति अंतरित की जा सकती है

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 6 जिन संपत्तियों को अंतरित किया जा सकता है उनके संबंध में उल्लेख कर रही है। इस आलेख के अंतर्गत ऐसी कुछ संपत्तियों का उल्लेख किया जाएगा जिन्हें अंतरित नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत सभी संपत्तियों को अंतरित किए जाने का उल्लेख कर दिया गया है तथा कुछ ही संपत्तियां ऐसी हैं जिन्हें अंतरित नहीं किए जाने का उल्लेख किया गया है।

    कौन सी संपत्ति अंतरित की जा सकती है-

    संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882 की धारा 6 सभी प्रकार की संपत्तियों को अंतरित करने का वर्णन कर रही है तथा इस धारा के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है कि सभी प्रकार की संपत्तियां अंतरित की जा सकती हैं परंतु इस धारा के अंतर्गत कुछ अपवाद दिए गए हैं जिन्हें अंतरित नहीं किया जा सकता।

    यह महत्वपूर्ण धारा है तथा समय-समय पर इस धारा के अंतर्गत अनेक बार संशोधन किए गए हैं। जिस अवस्था में आज यह धारा है सदा से इस प्रकार से यह धारा कभी नहीं थी तथा इस में अनेकों बार संशोधन हुए।

    आज जो इसका रूप हम देख रहे हैं ऐसा रूप इसका सदा से नहीं था। 1885 में इस में पहला संशोधन किया गया, 1900 में दूसरा संशोधन किया गया, 1927 में तीसरा संशोधन किया गया, 1934 में चौथा संशोधन किया गया, 1950 के इसमें छठी बार फिर संशोधन किया गया तथा कुछ शब्द जोड़े गए।

    धारा 6 के अनुसार सदेव संपत्ति की अंतरण पर बल देती है न कि उसके संग्रह पर। अंतरण एक विधिक उपधारणा है यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि संपत्ति अंतरणीय नहीं है तो उसे सिद्ध करना होगा कि वह संपत्ति अंतरणीय नहीं है।

    बैजनाथ सिंह बनाम चंद्रपाल सिंह के वाद में प्रतिवादी के पूर्वजों ने एक जमीदार की अनुमति से उसे नजराना देकर उस संपत्ति पर बगीचा लगाया था जिसका वह पट्टाधारी था। पट्टाधारी ने अपनी संपत्ति चंद्रपाल सिंह के पक्ष में अंतरित कर दी। वादी का तर्क था कि बगीचे का अंतरण अवैध है।

    यह अभिनिर्णीत हुआ कि किसी भी विपरीत रूढ़ि या करार के अभाव में पट्टाधारी जिसने जमीदार की अनुमति से बगीचा लगाया था संपत्ति को अंतरित करने में सक्षम होगा। यह धारा यह सामान्य नियम है कि प्रत्येक प्रकार की संपत्ति अंतरणीय है।

    प्रतिपादित करने के साथ ही साथ कतिपय अपवादों को भी उल्लेख करती है। इस धारा में खंड क से लेकर खंड झ तक अनेक अपराध का उल्लेख किया गया है तथा इसके अतिरिक्त हिंदू विधि, मुस्लिम विधि, भू विधियों तथा रूढ़ियों एवं प्रथाओं द्वारा भी अनेक अपवाद स्वीकार किए गए हैं।

    हिंदू विधि के अंतर्गत धार्मिक पद तथा धार्मिक प्रयोजनों के निमित्त दी गई संपत्ति अंतरण नहीं होती है जैसे माहिती अधिकार, देबोत्तर संपत्तियां तथा समांसिता। इसी प्रकार मुस्लिम विधि के अंतर्गत धार्मिक पद तथा वक्त संपत्ति के अंतरण पर प्रतिबंध लगाया गया है।

    कुछ इस प्रकार समझा जाए कि जिन संपत्तियों का अंतरण नहीं हो सकता उनका उल्लेख इस अधिनियम के अंतर्गत कर दिया गया है तथा धारा 6 के अंतर्गत जिन भी अपराधो का उल्लेख किया गया है केवल उन्हीं का अंतर नहीं हो सकता है बाकी सभी का अंतरण किया जा सकता है और इसके अलावा कुछ पर्सनल लॉ भी हैं तथा कुछ भू विधियां भी हैं जिनके अंतर्गत भी अंतरणीय नहीं हो सकता है। इस आलेख के अंतर्गत अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत दिए गए अपवादों में कुछ अपवादों का उल्लेख किया जा रहा है।

    संपत्ति अंतरण अधिनियम में मान्य अपवाद- इस अधिनियम की धारा 6 में कुल 10 खंडों में अपवादों का उल्लेख किया गया है।

    खंड 'क' में कुल 3 प्रकार के अपवादों का उल्लेख किया गया है उन तीनों प्रकारों का वर्णन यहां इस आलेख में न्याय निर्णयों के साथ किया जा रहा है।

    1)- किसी प्रत्यक्ष वारिस की विरासत की संभावना-

    प्रत्यक्ष वारिस उस व्यक्ति को कहते हैं जो संपत्ति धारक की मृत्यु पर जीवित रहेगा उसी से संपत्ति पाने का अधिकार होगा यदि वह (सम्पत्ति धारक) वसीयत के बगैर मर जाता है।

    सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि कोई भी व्यक्ति किसी जीवित व्यक्ति का उत्तराधाकिारी नहीं होता है। आंग्ल विधि के अन्तर्गत समांशिता हित लगभग अनुपलब्ध है। अतः कोई भी पुत्र अपने पिता के जीवनकाल में यह नहीं कह सकेगा कि वह पिता के उपरान्त उसको सम्पत्ति का वारिस होगा।

    वह केवल इतना ही कह सकेगा कि वह पिता की सम्पत्ति का प्रत्यक्ष वारिस है और यदि पिता की मृत्यु वसीयत रहित होती है तथा पिता की मृत्यु के समय वह जीवित रहेगा तो उसे सम्पत्ति प्राप्त होगी। किसी प्रत्यक्ष वारिस का अपने पूर्वज की सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार केवल एक सम्भावना या उम्मीद मात्र होती है जो किसी भी समय विफल हो सकेगा।

    स्टाकले बनाम पारसन्स' के बाद में यह अभिनित हुआ था कि "यह एक निर्विवादित सिद्धान्त है कि कोई भी व्यक्ति किसी जीवित व्यक्ति की सम्पत्ति में जिसे वह जीवित व्यक्ति के विधिक उत्तराधिकारी के रूप में या सम्बन्धी के रूप में प्राप्त करने की उम्मीद रखता है, न तो विधि के अन्तर्गत और न ही साम्या के अधीन किसी प्रकार का हित, चाहे वह समाश्रित हो या भिन्न, पाने का अधिकारी होगा।

    उस व्यक्ति के जीवनकाल में कोई भी व्यक्ति उसकी सम्पत्ति में एक सम्भावना या उम्मीद से बेहतर अधिकार नहीं प्राप्त करता है।' यह सिद्धान्त लोक नीति पर आधारित प्रतीत होता है। यदि ऐसे अन्तरणों को स्वीकृति प्रदान कर दी जाए तो ऐसे लोगों की बाढ़ आ जाएगी जो सम्भावित उत्तराधिकारियों से केवल सम्भावनाओं की खरीद-फरोख्त करेंगे जिससे प्रकल्पित विवादों को बढ़ावा मिलेगा।

    एक हिन्दू उत्तरभोगी द्वारा अन्तरण-

    किसी हिन्दू विधवा की मृत्यु पर उसको सम्पत्ति को प्राप्त करने का उसके जीवनकाल में अधिकार मात्र एक सम्भावना है और यदि कोई उत्तरभोगी इस अधिकार का अन्तरण करता है तो यह अन्तरण अवैध होगा। हिन्दू उत्तरभोगी वह व्यक्ति होता है जो एक हिन्दू विधवा को मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति पाने के लिए प्राधिकृत होता है।

    अमृत नारायन बनाम गया सिंह के वाद में प्रिवी कॉसिल ने यह मत व्यक्त किया था "किसी हिन्दू उत्तरभोगी का विधवा द्वारा अपने जीवनकाल के लिए धारण की गयी सम्पत्ति में वर्तमान में न तो कोई हित होता है और न हो कोई अधिकार यह अधिकार तब उत्पन्न होगा जब विधवा की मृत्यु हो जाए और वह व्यक्ति तत्समय जीवित रहे। तब तक यह न तो कोई वस्तु दे सकेगा और न हो समनुदेशित कर सकेगा।

    उसका अधिकार तब तक केवल एक सम्भावना मात्र होता है जो विधवा की मृत्यु पर हो उसके पक्ष में सृष्ट हो सकेगा।" चूँकि हिन्दू उत्तरभोगी का अधिकार केवल एक सम्भावना या उम्मीद मात्र होता है अतः न तो उसे अन्तरित कर सकेंगा और न ही उसका त्याग कर सकेगा।

    यदि वह अपने इस अधिकार का त्याग उस विधवा के हो पक्ष में करे जिससे सम्पत्ति प्राप्त होने की सम्भावना है तो इस अभित्याग से अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह उस सम्पत्ति की आत्यन्तिक स्वामी नहीं बन जाएगी यद्यपि यह कार्य इस बात का साक्ष्य होगा कि विधवा के अधिकार को मान्यता प्रदान की गयी है।

    हरनाथ कुंवर बनाम इन्दर बहादुर सिंह के वाद में ठाकुर नेपाल सिंह की मृत्यु के समय उनकी दो विधवाएं जीवित थी जिनके नाम क्रमश: इक्लास बीबी तथा उराइन छोटी था। नेपाल सिंह को मृत्यु के पश्चात् दो गाँव पक्का तथा लिलार इन दोनों विधवाओं को दे दिये गए। विधवाओं ने एक पुत्र 'अ' को गोद ले लिया जिसका उद्देश्य उत्तरभागी, इन्दर बहादुर सिंह के अधिकारों को निष्प्रभावी बनाना था।

    इन्दर बहादुर सिंह ने इस प्रक्रिया को चुनौती दी, किन्तु चुनौती देने के लिए उन्होंने रहपाल सिंह नामक एक व्यक्ति से इस शर्त पर धन उधार लिया कि दत्तक प्रक्रिया के निरस्त हो जाने पर विधवाओं के कब्जे वाली सम्पत्ति उसे अन्तरित कर दी जाएगी।

    दत्तक प्रक्रिया को शून्य घोषित कर दिया गया तथा विधवाओं की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति इन्दर बहादुर सिंह को प्राप्त हो गयी. किन्तु उन्होंने सम्पत्ति करार के अनुसार रछपाल सिंह के पक्ष में अन्तरित नहीं किया।

    रछपाल सिंह को मृत्यु के उपरान्त उनकी विधवा हरनाथ ने सम्पत्ति प्राप्त के लिए वाद चलाया। यह अभिनित हुआ कि हरनाथ कुँवर सम्पत्ति प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकेंगी क्योंकि इन्दर बहादुर ने जो कुछ भी अन्तरित करने के लिए कहा था वह अन्तरणीय सम्पत्ति नहीं थी। उसका उस सम्पत्ति में अधिकार केवल एक सम्भावना मात्र थी और सम्भावना का अन्तरण अवैध है

    उत्तरभोगी द्वारा करार-

    यह खण्ड न केवल सम्भावना के अन्तरण पर प्रतिबन्ध लगाता है, अपितु सम्भावना के अन्तरण के लिए होने वाले करार पर भी प्रतिबन्ध लगाता है।

    अन्नदा बनाम गौड़ मोहन के वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह अभिप्रेक्षित किया था कि 'उनके लिए यह स्वीकार करना असम्भव है कि यह विज्ञान जो संविदा के प्रयोजन को प्रतिबन्धित करता है स्वयं संविदा के रूप में बरकरार रहेगा।'

    इस खण्ड के अन्तर्गत न केवल वास्तविक अन्तरण प्रतिबन्धित है अपितु अन्तरण करने के लिए किया गया करार भी प्रतिबन्धित है परन्तु वैकल्पिक वचन विधिमान्य होगी। उदाहरणार्थ ' अ ब तथा 'स' के बीच एक संविदा हुई जिसके अनुसार 'स' इस बात के लिए सहमत हो गया कि वह बन्धक पर देय धन शिव की विधवा के जीवनकाल में नहीं लेगा तथा उसको मृत्यु के उपरान्त वह या तो बन्धककर्ता के उत्तरभोगी अधिकार जो विधय द्वारा धारण किये जा रहे तीन गाँवों में उसे प्राप्त है से भुगतान करायेगा या बन्धककर्ता के स्वामित्व में विद्यमान एक अन्य सम्पत्ति से प्राप्त करेगा।

    इस संविदा में, जहाँ तक उत्तरभोगी अधिकार से बन्धक धन प्राप्त करने की बात है, अवैध है, किन्तु उस सम्पत्ति से जो बन्धककर्ता के स्वयं के आधिपत्य में है, यह वैध होगा। अन्नदा बनाम मोहन' के वाद में तथ्य इस प्रकार थे-'ब' जो विधवा 'स' का निकटतम उत्तरभोगी था, ने विधवा के आधिपत्य वाली सम्पत्ति उसके जीवनकाल में ही इस उम्मीद से अ के पक्ष में अन्तरित कर दिया कि विधवा की सम्पत्ति उसे मिल जायेगी।

    बाद में विधवा तथा 'अ' ने संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु वाद मृत्यु के पश्चात् लगाया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि किया गया अन्तरण शून्य था क्योंकि उसे अन्तरित की गयी सम्पत्ति में अन्तरण के समय विशिष्ट अधिकार नहीं प्राप्त था, अधिकार उसे प्राप्त था वह मात्र एक सम्भावना थी।

    अपवाद (1) उत्तरभोगी अधिकार का अन्तरण या ऐसे अधिकार के सम्बन्ध में की जाने वाली संविदा शून्य होती है, किंतु उत्तरभोगी द्वारा किसी समझौते हेतु दी गयी सम्पत्ति या विधवा द्वारा किये गए अन्तरण के लिए दी गयी सम्मति उसके विरुद्ध विबन्धन के रूप में प्रभावी होगी और ऐसा समझौता या अन्तरण वैध होगा। (2) एक उत्तरभोगी द्वारा दूसरे उत्तरभोगी के पक्ष में अपने अधिकार का त्याग भले ही प्रतिफल के बदले हो, शून्य नहीं होगा (3) पारिवारिक समझौता इसके क्षेत्राधिकार से परे है।

    मुस्लिम उत्तराधिकारी द्वारा अन्तरण-

    मुस्लिम विधि में प्रचलित सामान्य सिद्धान्त, इस सिद्धान्त के अनुरूप है। किसी व्यक्ति को सम्पत्ति को प्राप्त करने का अधिकार विशिष्ट सम्पत्ति नहीं है। अतः कोई भी उत्तराधिकारी ऐसी सम्पत्ति को वैधतः अन्तरित नहीं कर सकेगा। अब्दुल गफूर बनाम अब्दुल रजा के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत किसी सम्भावित उत्तराधिकारी द्वारा सम्भावना का अन्तरण शून्य होगा।

    अतः ऐसे अन्तरक के विरुद्ध विबन्धन के सिद्धान्त के लागू होने का कोई औचित्य ही नहीं है यदि ऐसा उत्तराधिकारी सम्पत्ति का वितरण होने के पूर्व अपने अधिकार का त्याग करता है। 'अ' एक मुस्लिम सम्पत्ति धारक की पत्नी 'ब' तथा पुत्री स थी। 'स' ने 1000 रुपये प्रतिफल के बदले एक निर्मोचन विलेख निष्पादित किया।

    यह प्रतिफल उसे अपने पिता 'अ' से प्राप्त हुआ था निर्मोचन विलेख में उसने यह स्पष्ट किया था कि अ को मृत्यु के उपरान्त उसको सम्पत्ति में वह अपने हिस्से की माँग नहीं करेगी सम्पूर्ण सम्पत्ति उसकी माँ को दे दी जाएगी।

    पिता अ' को मृत्यु के पश्चात् उसने अपने विधिक हिस्से की माँग की प्रश्न यह था कि क्या पिता जीवनकाल में प्रतिफल के बदले लिखा गया निर्मोचन विलेख उसे ऐसा करने से प्रतिबन्धित कर सकेगा? यह अभिनित हुआ है कि वह निर्मोचन विलेख से बाध्य नहीं है। वह अपने हिस्से की माँग कर सकेगी, किन्तु वह पिता से प्राप्त 1000 रुपयों को लौटाने की दायित्वाहीन होगी।

    सम्भावित हित तथा समाश्रित हित सम्भावित हित' या सम्भावना की परिभाषा इस अधिनियम में नहीं प्रदान की गयी है। सामान्य रूप से इसका आशय है एक अवसर या उम्मीद या सम्भाव्यता यह अवसर या सम्भावना केवल उत्तराधिकार में सम्पत्ति पाने के सम्बन्ध में होती है।

    ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई व्यक्ति अंश पाने की उम्मीद रखता है. उसका उसमें कोई विशिष्ट अधिकार नहीं होता है। अतः ऐसी सम्पत्ति अन्तरणीय होती है। इसके विपरीत समाश्रित हित की परिभाषा इस अधिनियम की धारा 21 में दी गयी है जो इस प्रकार है- जहाँ सम्पत्ति अन्तरण से उस सम्पत्ति में किसी व्यक्ति के पक्ष में हित किसी विनिर्दिट अनिश्चित घटना के घटित होने पर हो अथवा किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित न होने पर ही प्रभावी होने के लिए सृष्ट किया किया गया हो वहाँ ऐसे व्यक्ति द्वारा उस सम्पत्ति में समाश्रित हित अर्जित करता है। ऐसा हित पूर्व कथित दशा में उस घटना के घटित होने पर पश्चात् कथित दशा में घटना का घटित होना असम्भव हो जाने पर निहित हो जाता है।

    समाश्रित हित एक सुनिश्चित किस्म को सम्पत्ति होती है और यह अन्तरणीय है। समाश्रित हित केवल सम्भावना पर आधारित नहीं रहता है अपितु यह वर्तमान में विद्यमान अपूर्ण हित होता है। अ अपनी पत्नी पर तथा भतीजे ब को छोड़कर मर जाता है। ब' का 'अ' की सम्पत्ति में हित केवल एक सम्भावना मात्र है क्योंकि उसका हित इस तथ्य पर निर्भर है कि 'प' को समय सम्पत्ति यथास्थिति में रहे।

    किन्तु यदि 'अ' अपनी सम्पत्ति का अपने जीवनकाल में ही बन्दोबस्त कर देता है जिसके अनुसार अ की मृत्यु के पश्चात् 'प' को जोवनकाल के लिए सम्पत्ति मिलेगी, तत्पश्चात् दत्तक पुत्र को यदि वह कोई पुत्र गोद लेती है, और यदि वह गोद नहीं लेती है तो भतीजे 'ब' को मिलेगी। इस स्थिति में ब' का हित समाश्रित है। यदि 'प' की मृत्यु बिना गोद लिए होती है तो यह समाश्रित हित निहित हित में परिवर्तित हो जाएगा।

    (2) किसी सकुल्य की मृत्यु पर वसीयत सम्पदा प्राप्त करने की सम्भावना- किसी सम्बन्धी के वादे पर निर्भर हित कि वह अपनी मृत्यु के समय अपनी सम्पत्ति वसीयत द्वारा अपने किसी सम्बन्धी के पक्ष में अन्तरित कर देगा सम्भावना की कोटि में आता है और यह भी अनिश्चित तथा असंभव प्रकृति का होता है। इस प्रकार के हित का अन्तरण भी इस धारा के अन्तर्गत प्रतिसिद्ध है। ऐसा करार यदि भंग होता है तो दूसरा पक्षकार प्रतिकर की माँग कर सकेगा यद्यपि सम्पत्ति अन्तरणीय नहीं होती है।

    (3) इसी प्रकार की अन्य सम्भावनाएँ– सम्भावित अधिकार तथा वसीयत सम्पदा की प्रकृति वाली अन्य सम्भावनाओं का भी अन्तरण इस खण्ड के अन्तर्गत वैध नहीं होगा, क्योंकि इसकी मात्रा इतनी अनिश्चित परिवर्तनीय तथा सीमित होती है कि यह विधि की अवधारणा से परे हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति भविष्य में सफाई का कार्य कर अर्जित आय को अन्तरित करने का प्रयास करता है जबकि उस कार्य को करने का उसे कोई अधिकार नहीं है केवल एक सम्भावना है कि वह कार्य उसे मिल जाएगा, अन्तरणीय नहीं होगा।

    इसी प्रकार अगली बार मछुआरे के जाल में फंसने वाली मछलियां, प्रतिदिन कमाने वाले व्यक्ति को भावी मजदूरी सौदे से पूर्व विक्रेता का राशि में हित, भावी पट्टे से मिलने वाला किराया, लाटरी का इनाम इत्यादि ऐसे हित हैं जो अन्तरणीय नहीं किन्तु जहाँ तक मन्दिर में भविष्य में आने वाले चढ़ावे का प्रश्न है, यह विवादास्पद है।

    इलाहाबाद' बम्बई तथा लाहौर उच्च न्यायालयों के मतानुसार मन्दिरों में आने वाले भावी चढ़ावे केवल सम्भावना की कोटि में नहीं आते हैं। अतः अन्तरणीय है। मन्दिर में आने वाला चढ़ावा यद्यपि भक्तों या श्रद्धालुओं की संख्या, उनकी उदारता तथा धार्मिक मनोभावों पर निर्भर करता है, फिर भी इसमें एक प्रकार को निश्चितता रहती है।

    अतः भावी चढ़ावे, अन्तरणीय हैं यद्यपि इनकी मात्रा बढ़ या घट सकती है। इसके विपरीत कलकत्ता तथा पटना उच्च न्यायालयों के मतानुसार इस प्रकार अधिकार केवल सम्भावना की कोटि में आते हैं। अतः इनका अन्तरण वैध नहीं होगा। उपरोक्त दोनों प्रकार के मत वस्तुतः दो अतिवादी विचारधाराओं के द्योतक हैं।

    मंदिर में आने वाला चढ़ावा वस्तुतः मंदिर में स्थापित प्रतिमा में लोगों के विश्वास तथा आस्था, मंदिर की भौगोलिक स्थिति और लोगों की धार्मिक अभिरुचि पर भी निर्भर करता है। अतः मंदिर के स्वरूप को ध्यान में रखकर ही यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि मंदिर में आने वाला चढ़ावा निश्चित सम्पत्ति होगी या केवल सम्भावना मात्र और इसी आधार पर उसको अन्तरणीयता तथा अनन्तरणीयता के प्रश्न का निर्धारण होना चाहिए।

    इस समस्या पर विचारण जम्मू तथा कश्मीर उच्च न्यायलय ने बद्रीनाथ बनाम पूनम के वाद में भी यह अभिनिर्णीत हुआ था कि श्री वैष्णव देवी के पवित्र धाम में आने वाला चड़ावा अन्तरणीय है। न्यायालय ने यह भी अभिप्रेक्षित किया कि "यद्यपि मंदिर में दर्शनार्थियों से आने वाले चढ़ावे को प्राप्त करने का अधिकार इस सम्भावना पर निर्भर करता है कि भावी दर्शनार्थी प्रतिमा पर चढ़ावा चढ़ायेंगे या नहीं, किन्तु चढ़ाये गये चढ़ावे को प्राप्त करने का अधिकार एक मूल्यवान, निश्चित तथा भौतिक अधिकार है। यह केवल एक सम्भावना मात्र है जिसका उल्लेख खण्ड 6 में हुआ है।

    धारा 6 - (क) उपबन्धित करती है कि किसी प्रत्यक्ष वारिस की सम्पदा का उत्तराधिकारी होने की सम्भावना की मृत्यु पर किसी नातेदार की वसीयत द्वारा सम्पदा अभिप्राप्त करने की सम्भावना या इसी प्रकृति की कोई अन्य संभावना मात्र अन्तरित नहीं की जा सकेगी।

    धारा 43 उपबन्धित करती है कि जहाँ कि कोई व्यक्ति कपटपूर्वक या भूल वश यह व्यपदेश करता है कि वह अमुक स्थावर सम्पत्ति को अन्तरित करने के लिए अधिकृत है और ऐसी सम्पत्ति को प्रतिफलार्थ अन्तरित करने की व्यवस्था करता है तो ऐसा अन्तरण अन्तरितों के विकल्प पर किसी भी हित पर प्रवृत्त होगा, जिसे अन्तरक ऐसी सम्पत्ति में उतने समय के दौरान कभी भी अर्जित करे जितने समय तक उस अन्तरण की संविदा अस्तित्व में रहती है।

    यदि अन्तरक को अन्तरण के समय सम्पत्ति में केवल उत्तराधिकार की सम्भावना जैसा अधिकार प्राप्त था, किन्तु वह सम्पत्ति में वर्तमान हित अन्तरित करने की प्रवंचना करता है और अन्तरिती को इस तथ्य सेे की सूचना नहीं थी तो ऐसी दशा में यह प्रश्न विवादित होगा कि अन्तरिती धारा 43 का लाभ प्राप्त करने में सक्षम होगा अथवा उसके पक्ष में किया गया अन्तरण धारा 6 (क) के अन्तर्गत शुन्य होगा।

    कलकत्ता तथा अवध उच्च न्यायालयों के मतानुसार ऐसा अन्तरण धारा 6 (7) के अन्तर्गत शून्य होगा चाहे अन्तरिती को अन्तरक के अधिकार की सूचना रही हो या न रही हो। किन्तु इलाहाबाद, बम्बई, तथा पटना उच्च न्यायालयों के मतानुसार धारा 6 केवल तब लागू होगी जबकि अन्तरण सारवान रूप में सम्भावना का अन्तरण था और इसका ज्ञान दोनों पक्षों को था।

    यदि अन्तरण द्वारा किसी अन्तरितों को सम्पत्ति में वर्तमान हित अन्तरित जाना था और अन्तरिती को अन्तरक के अधिकार की सूचना नहीं थी तो अन्तरितो को धारा 3 का लाभ मिलेगा।

    इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने जुम्मा मस्जिद बनाम कादी मनियन्द्रदेवियों के वाद में निर्धारण किया और यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि धारा 43 में वर्णित सिद्धान्त यहाँ लागू होगा जहाँ कि कोई उत्तरभोगी ऐसी सम्पत्ति अन्तरित करने की प्रवंचना करता है जिसे पाने की उसके पास केवल एक सम्भावना मात्र है किन्तु यदि वह यह प्रदर्शित करता है कि वह उसकी अपनी सम्पत्ति है और उसे अन्तरित के लिए यह प्राधिकृत है और सम्पत्ति यदि बाद में उसे प्राप्त हो जाती है तो अन्तरितों धारा 43 के अन्तर्गत उसे प्राप्त करने में सक्षम होगा।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि धारा 6(क) तथा धारा 43 के क्षेत्राधिकार पृथक्-पृथक् हैं। दोनों में अनिवार्य संघर्ष नहीं है। धारा 6 (क) सारवान विधि का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है, जबकि धारा 43 विबन्धन का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। इनका प्रभाव एक दूसरे को सीमित करना नहीं उत्तराधिकार की सम्भावना के मामलों में धारा 43 का संरक्षण न देने से उक्त सिद्धान्त लगभग समाप्त हो जाएगा।

    इस मामले के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार थे। अन्तरिती जुम्मा मस्जिद का मुतलवी था। अन्तरक ने जो संयुक्त हिन्दू परिवार का एक उत्तरभोगी था संयुक्त सम्पत्ति के अपने अंश को जुम्मा मस्जिद को 3000 रुपये में बेच दिया।

    मुतवली ने सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के लिए दावा प्रस्तुत किया और अन्तरक ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि बेचो गयी सम्पत्ति केवल उत्तराधिकार की सम्भावना मात्र थी। अतएव अन्तरण शून्य था। मुतवाली का कथन था कि उत्तरभोगी ने पूर्ण स्वामित्व का व्यपदेशन किया। न्यायालय ने मुतवाली के पक्ष में निर्णय दिया।

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