संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 46: किसी दान को कैसे निरस्त किया जा सकता है जानिए क्या कहते हैं प्रावधान (धारा 126)

Shadab Salim

31 Aug 2021 5:00 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 46: किसी दान को कैसे निरस्त किया जा सकता है जानिए क्या कहते हैं प्रावधान (धारा 126)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत दान एक महत्वपूर्ण अंतरण का माध्यम है। यह प्रश्न सदा देखने को मिलता है कि दान को निरस्त किए जाने संबंधित क्या प्रावधान है। संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 126 दान को निरस्त किए जाने संबंधित प्रावधानों को उल्लेखित करती है।

    इस आलेख के अंतर्गत इस प्रकार दान को निरस्त किए जाने संबंधित धारा 126 पर व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है।

    धारा 126-

    दान एक प्रतिफल रहित संव्यवहार है जिसमें सम्पत्ति का स्वामी बिना प्रतिफल के सम्पत्ति का स्वामित्व अन्तरित करता है। साधारणतया दान के सम्बन्ध में यह मानकर चला जाता है कि दान अविखण्डनीय एवं अप्रतिसंहरणीय होगा, क्योंकि स्वामित्व का अन्तरण स्वयं स्वामी की इच्छा से होता है तथा आदाता मात्र उसे स्वीकार करता है, परन्तु यह भी शून्य है कि दाता दान की विषयवस्तु निलम्बित होने या निरस्त किए जाने की शर्त के अध्यधीन भी अन्तरित कर सकता है।

    परन्तु यह आवश्यक है कि इस निमित्त जो शर्त लगायी जाए वह वैधता तथा अधिनियम के उपबन्धों के अन्तर्गत प्रयोज्य हो । धारा 126 इन परिस्थितियों का उल्लेख करती है जिनमें दान निलम्बित या निरस्त किया जा सकता है। इसके अनुसार इस धारा के प्रथम पैरा में उल्लिखित प्रावधान से ध्यान आकर्षित होता है।

    जब निम्नलिखित शर्तें पूर्ण हो जाती है-

    1)- दाता तथा आदाता के बीच सहमति हो कि दान किसी विनिर्दिष्ट घटना होने पर निलम्बित या प्रतिसंहृत हो सकेगा।

    2)- ऐसी घटना दाता की इच्छा पर निर्भर न हो के घटित।

    3)- दाता तथा आदाता ने दान स्वीकार करते समय ही शर्त पर अपनी सहमति व्यक्त किया हो।

    4)- अधिरोपित शर्त अवैध या अनैतिक न हो एवं दान के द्वारा सृजित संपदा के प्रतिकूल न हो।

    यह ध्यान रखना अति आवश्यक है कि धारा 126 धारा 10 द्वारा विनियमित होती है। अतः दान विलेख में अन्तर्विष्ट कोई खण्ड दान की विषयवस्तु के अन्तरण पर पूर्णरूपेण प्रतिबन्ध लगाता हो तो अन्तरण धारा 10 में उल्लिखित उपबन्ध के आलोक में शून्य होगा।

    दान मात्र दाता की इच्छा पर प्रतिसंहरणीय नहीं है, क्योंकि ऐसी स्थिति में दान देने वाला व्यक्ति कभी भी उसे वापस ले सकेगा फलतः वैध एवं स्थायी दान का सृजन नहीं हो सकेगा। यदि शर्त या घटना का घटित होना दाता की इच्छा पर निर्भर नहीं है तो उसका निलम्बन या प्रतिसंहरण हो सकेगा।

    यह भी आवश्यक है कि दान खण्डित करने की शर्त अभिव्यक्त हो, केवल इच्छा के रूप में न हो। शर्त, दान विलेख में स्पष्टतः अभिव्यक्त होनी चाहिए जिससे आदाता को भी उसका ज्ञान रहे। मूल राज बनाम जमनादेवी के वाद में दाता ने अपनी एक सम्पत्ति का दान आदाता के पक्ष में उसके द्वारा की गयी विगत एवं भावी सेवाओं को ध्यान में रखकर किया।

    दान विलेख के खण्डन के लिए कोई शर्त दान विलेख में उल्लिखित नहीं थी। कालान्तर में जब दाता ने दान का प्रतिसंहरण करना चाहा तो प्रश्न उठा कि क्या वह प्रतिसंहरण कर सकेगा। न्यायालय ने यह मत अभिव्यक्त किया कि चूँकि प्रतिसंहरण की शर्त दान विलेख में उल्लिखित नहीं थी। अतः यह शर्तरहित दान था अतः दाता इसे खण्डित नहीं कर सकेगा।

    यदि शर्त दान विलेख में स्पष्ट रूप में उल्लिखित नहीं है तो इसे दाता की इच्छा के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस दान को शर्त पर आधारित नहीं माना जा सकता है जिसके भंग होने पर दाता द्वारा दान विखण्डित किया जा सके।

    यदि दाता ने प्रतिसंहरण की शर्त आरक्षित कर रखी थी तथा विधितः दान का प्रतिसंहरण कर लेता है, तो वह उस सम्पत्ति का आत्यंतिक स्वामी बन जाएगा जिसका उसने अन्तरण किया था। यदि प्रतिसंहरण की शक्ति उसके पास नहीं थी तो दान की विषयवस्तु से उसका हित समाप्त हो जाएगा वह उस सम्पत्ति का धारा 41 के अन्तर्गत दृश्यमान स्वामी भी नहीं रह जाएगा।

    यदि दान इस शर्त के साथ किया गया था कि आदाता दाता की मृत्यु तक उसकी देखभाल करेगा, किन्तु वह ऐसा करने में विफल रहता है तो दाता, दान का प्रतिसंहरण कर सकेगा। एक वृद्ध स्त्री अपनी समस्त सम्पत्ति का दान एक अन्य व्यक्ति के पक्ष में जो उसके परिवार का सदस्य नहीं है इस शर्त के साथ करती है कि वह दाता की मृत्यु तक उसकी देख-भाल करेगा।

    आदात उसी दिन एक अन्य विलेख निष्पादित करता है दान स्वीकार करते हुए एवं यह वचन देते कि वह दाता की इच्छानुसार कार्य करेगा। यदि आदाता, दाता की देखभाल करने में उपेक्षा करता है तो दाता दान का प्रतिसंहरण कर सकेगा।

    ठाकुर रघुनाथ जी महाराज बनाम रमेश चन्द्र के वाद में भूमि का एक शर्त रहित दान, दान विलेख द्वारा किया गया, पर दान विलेख पर ही दाता एवं आदाता के बीच लिखित संविदा हुई जिसके अनुसार यह प्रसंविदा की गयी थी कि यदि आदाता भूमि का कब्जा प्राप्त करने के उपरान्त छः मास की विनिर्दिष्ट अवधि के अन्दर उस पर कालेज के निर्माण की कार्यवाही नहीं करता है तो दाता उक्त सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु उपयुक्त कार्यवाही कर सकेगा।

    इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि दान आत्यन्तिक नहीं था अथवा/या शर्त रहित दान विलेख एवं करार जो ही संव्यवहार के घटक हैं, एक साथ पढ़ा जाना चाहिए एवं तद्नुसार उन्हें प्रभावी बनाया जाना चाहिए। दान शर्त के अध्यधीन था। अतः शर्त के अनुसार कार्यवाही न होने की दशा में दान का प्रतिसंहरण दाता कर सकेगा।

    यह ध्यान देने की बात है कि दान के निरसन की शर्त एक पश्चात्वर्ती शर्त है। अतः इसे सशर्त अन्तरणों के लिए दिए गये उपबंधों के अन्तर्गत वैध होना चाहिए। यदि दान ऐसी शर्त के साथ सृजित किया गया है जो अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत शून्य है, तो शर्त के शून्य होने के फलस्वरूप दान का निरसन नहीं हो सकेगा।

    यह भी आवश्यक है कि शर्त जिस पर दान का खण्डित होने के लिए करार किया गया है, पश्चातूवर्ती शर्त होनी चाहिए। यह शर्तों को पूर्ति दाता की इच्छा पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। शर्त दाता के नियंत्रण से परे एवं भावी घटना की प्रकृति को होनी चाहिए।

    उदाहरण स्वरूप 'क' अपना मकान 'ख' को दान करता है तथा 'ख' की सम्मति से उक्त मकान को वापस लेने की शक्ति अपने पास रखता है यदि 'ख' को सन्तानें क से पूर्व मृत हो जाती हैं। यहाँ लगायी गयी शर्त एवं भावी शर्त है जो एक अनिश्चित घटना पर निर्भर है। यह शर्त 'क' की इच्छा पर निर्भर नहीं है। अतः यदि 'ख' की सन्ताने 'क' के जीवनकाल में मृत हो जाती हैं तो क सम्पत्ति वापस पाने के लिए प्राधिकृत होगा शर्त के अनुसार।

    यदि दान विलेख एवं करार पृथक्-पृथक् हैं, एक संव्यवहार के अंश नहीं हैं तो उन्हें एक साथ न तो पढ़ा जा सकेगा और न ही उन्हें एक साथ प्रभावी बनाया जा सकेगा। उनके प्रभाव पृथक् पृथक होंगे।

    अनेकों न्यायिक निर्णयों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि दान सशर्त नहीं है, तो दान की स्वीकृति प्रतिसंहरण की शक्ति के अभाव में अन्तिम होगी तथा उसका (दान का) प्रतिसंहरण नहीं हो सकेगा, यदि दाता ने प्रतिसंहरण की शक्ति अपने पास आरक्षित नहीं रखा न्यायालय के लिए यह उचित है कि पक्षकारों के आचरण एवं तथ्यों की वास्तविकता से दान की स्वीकृति का निष्कर्ष निकाल ले।

    केवल इस आधार पर कि औपचारिक अलगाव नहीं हुआ था, यह नहीं कहा जाता है कि इस तथ्य को स्वीकारोक्ति विरुद्ध मान्यता दी जाए, विशेषकर तब जब पक्षकार निकट सम्बन्धी हों और एक ही छत के नीचे रह रहे हों। दान में दी गयी सम्पत्ति के भौतिक कब्जे का परिदान प्रकल्पित नहीं है, जो कुछ प्रकल्पित है वह भाग यह है कि दान, आदाता द्वारा या उसके एवज में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्वीकार किया गया हो।

    अप्रतिसंहरणीय दान का प्रतिसंहरण क्या सम्भव है! -

    इस अधिनियम की धारा 123 एवं धारा 127 को एक साथ पढ़ने से यह सुस्पष्ट है कि सम्पत्ति यदि एक बार आदाता को दे दी गयी है और वह भी इस लिखत के साथ कि यह अप्रतिसंहरणीय है, तो दाता उसका प्रतिसंहरण नहीं कर सकेगा।

    दान का प्रतिसंहरण कौन कर सकेगा?-

    प्रतिसंहरण का अधिकार दाता का व्यक्तिगत अधिकार है। अतः इस अधिकार का प्रयोग केवल वह ही कर सकेगा। वह इस अधिकार का अन्तरण नहीं कर सकेगा क्योंकि इस अधिकार की प्रकृति, वाद संस्थित करने का अधिकार को प्रकृति जैसी हो तथा वाद संस्थित करने का अधिकार इसी अधिनियम की धारा 6 (ङ) के अन्तर्गत अनन्तरणीय घोषित किया गया है।

    फलतः यह भी एक अनन्तरणीय अधिकार है, पर यह अधिकार दाता की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार में प्राप्त हो सकेगा कपट अथवा अनुचित प्रभाव के आधार पर दान को रद्द कराने का अधिकार दाता को मृत्यु कारण समाप्त नहीं होता है। यह अधिकार उसके विधिक प्रतिनिधियों एवं निष्पादकों में निहित हो जाता है।

    करार द्वारा प्रतिसंहरण- इस धारा के प्रथम पैरा में उल्लिखित करार, दान के समय ही अस्तित्व में आ जाना चाहिए क्योंकि यदि दान जब दान की कार्यवाही हुई थी पूर्ण एवं आत्यन्तिक हो चुका है, तो बाद में कोई शर्त जोड़कर उसमें संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा उदाहरण के लिए दाता 'क' ने आदाता 'ख' कि पक्ष में एक रजिस्ट्रीकृत करार दाता के पक्ष में निष्पादित किया जिसमें यह उल्लिखित था कि आदाता दाता को, उसकी मृत्युपर्यन्त सेवा करता रहेगा और यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है तो दाता दान विलेख का प्रतिसंहरण कर सकेगा अथवा वैकल्पिक रूप में भरण-पोषण हेतु भत्ता प्राप्त कर सकेगा।

    यह अभिनिगाँत हुआ कि दोनों दस्तावेज एक ही संव्यवहार के घटक हैं और एक साथ पढ़ने पर वे धारा 131 एवं 126 की परिधि में आते हैं। आदाता द्वारा रकम का भुगतान करने में हुई विफलता, विनिर्दिष्ट घटना, जिसका उल्लेख धारा 126 एवं 31 में हुआ है, को गठित करती हुई मानी जाएगी। शर्त के सम्बन्ध में की गयी। व्यवस्था, जिस पर दाता दान का प्रतिसंहरण कर सकेगा का रजिस्ट्रीकरण अपेक्षित नहीं है।

    दाता, ऐसी स्थिति में आदाता द्वारा दाता का भरण-पोषण न करने के कारण, दान का प्रतिसंहरण करने के लिए प्राधिकृत हैं। किन्तु यदि केवल यह शर्त लगी है कि "आदाता" को दाता का भरण-पोषण करना चाहिए" और आदाता ऐसा करने में विफल रहता है तो दाता दान का प्रतिसंहरण नहीं कर सकेगा जब तक कि भरण-पोषण में विफलता के कारण दान के प्रतिसंहरण के आशय का उपबन्ध न हो।

    निष्काषन जो दाता की इच्छा पर आश्रित न हों- दानदाता मात्र की इच्छा पर प्रतिसंहरणीय नहीं है। अतः यदि पक्षकार इस बात पर सहमत हैं कि दानदाता की इच्छा पर प्रतिसंहरणीय होगा, तो ऐसा दान इस धारा के अन्तर्गत वैध दान नहीं होगा। ऐसा दान शून्य होगा।

    यदि दान विलेख विधितः निष्पादित किया गया था दाता द्वारा आदाता के पक्ष में तथा कालान्तर में दाता का यह अभिकथन करता है कि उसने दान करने के साथ ही साथ दान का स्वयं प्रतिसंहरण भी कर लिया था तो ऐसा कथन एवं इसके आलोक में किया गया प्रतिसंहरण वैध नहीं होगा।

    धारा 126 सुस्पष्ट करती है कि दान, केवल दोनों पक्षकारों की इच्छा से ही प्रतिसंहत हो सकेगा दान का ऐसा प्रतिसंहरण जो केवल दाता की इच्छा पर निर्भर है वैध नहीं है। दान का केवल वह प्रतिसंहरण वैध है जो दान के दोनों पक्षकारों की इच्छा से हो।

    यदि एक भूखण्ड अनुदान के रूप में इस शर्त पर दिया गया है कि आदाता, दाता को अपनी सेवायें समर्पित करेगा, आदाता उक्त सम्पत्ति को तभी प्राप्त कर सकेगा जब वह दाता को अपनी सेवायें समर्पित करें। किन्तु आदाता जब तक सेवा देने के लिए इच्छुक होगा एवं सेवा देने के लिए सक्षम होगा तब तक दाता उस संव्यवहार को समाप्त नहीं करा सकेगा।

    रजिस्ट्रीकरण से पूर्व प्रतिसंहरण दान विलेख निष्पादित होने एवं आदाता को परिदत्त होने पर, जहाँ तक दाता का प्रश्न है, दान पूर्ण हो जाता है। अतः दाता उक्त दान को रजिस्ट्रीकरण से पूर्व भी प्रतिसंहरित नहीं कर सकेगा इस आधार पर कि दान का अभी रजिस्ट्रीकरण नहीं हुआ है और जब तक रजिस्ट्रीकरण नहीं हो जाता है दान अपूर्ण है।

    रजिस्ट्रीकरण का प्रभाव केवल दान की प्रक्रिया को स्थायित्व देना मात्र है। जहाँ तक आदाता में सम्पत्ति निहित होने का प्रश्न है सम्पत्ति उसी समय निहित हो जाती है जब आदाता उसे स्वीकार करता है।

    दान कब प्रतिसंहरित हो सकेगा-

    इस धारा का पैराग्राफ 2 इस प्रकार उपबन्धित करता है-

    "उन दशाओं में से प्रतिफल के अभाव या असफलता की दशा को छोड़कर किसी भी दशा में प्रतिसंहरित किया जा सकेगा जिनमें कि यदि वह संविदा होता तो विखण्डित किया जा सकता है।"

    उपरोक्त पैराग्राफ से यह निष्कर्ष निकलता है कि जिन आधारों पर संविदा, संविदा अधिनियम, 1872 के अन्तर्गत विखण्डनीय हैं, उन्हीं आधारों पर दान भी विखण्डनीय होगा। संविदाएं संविदा अधिनियम, 1872 के अन्तर्गत प्रपीड़न, असम्यक् प्रभाव, कपट, भूल एवं मिथ्या व्यपदेशन आदि के आधार पर विखण्डनीय है अतः इस धारा अर्थात् धारा 126 पैराग्राफ 2, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम का अनुगमन करते हुए यह कहा जा सकेगा कि दान भी प्रपीड़न, असम्यक् प्रभाव, मिथ्याव्यपदेशन, कपट या भूल के आधार पर प्रतिसंहरित हो सकेगा।

    यह साबित करने का भार कि दान उपरोक्त में से किसी भी एक आधार पर प्रतिसंहरणीय है उस व्यक्ति पर होता है जो उस दान को रद्द कराना चाहता है। यदि मात्र विधि की भूल है तो यह आधार दान के प्रतिसंहरण हेतु पर्याप्त आधार नहीं होगा।

    यदि दाता एवं आदाता के बीच यजमान एवं पुरोहित का सम्बन्ध था तथा दाता अपने खराब स्वास्थ्य के कारण अपनी समस्त सम्पत्ति अपने पुरोहित के पक्ष में दान कर देता है जो एक प्रभावशाली व्यक्ति था जिसका प्रभाव दाता पर भी था इस स्थिति में यह साबित करने का भार कि दाता संव्यवहार के विधिक प्रभाव को समझता था प्रभावशाली आदाता पर होगा और यदि वह अपने इस दायित्व का निर्वहन करने में विफल रहता है तो दान रद्द कर दिया जाएगा।

    इस मामले में दान न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था। यदि एक मुवक्किल अपनी सम्पत्ति त्वरित आवेग में आकर अपने वकील की पत्नी के पक्ष में अन्तरित करता है तो यह अन्तरण रद्द किए जाने योगय नहीं होगा।

    राम चन्दर बनाम शीतल प्रसाद के वाद में एक विभिन्न स्थिति उत्पन्न हुई थी। एक पिता ने अपनी समस्त सम्पत्ति एक ऐसे व्यक्ति के पक्ष में दान द्वारा अन्तरित किया जो उसको पुत्री का प्रेमी था। प्रेमी भी उसी घर में निवास कर रहा था जिसमें पिता एवं पुत्री निवास कर रहे थे। इस परिस्थिति में न्यायालय को यह विचार करना था कि पिता द्वारा किया गया दान क्या वैध था?

    न्यायालय ने समस्त परिस्थिति के अवलोकन कर मामले को इस प्रकार अभिव्यक्त किया-

    1. पुत्री तथा उसका प्रेमी जो आदाता था, दाता पिता की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में थे।

    2. दाता द्वारा अपनी समस्त सम्पत्ति पुत्री के हित की उपेक्षा कर आदाता को देना संव्यवहार को अन्तःकरण के विरुद्ध बनाता है।

    3. उपरोक्त वर्णित दोनों स्थितियाँ संयुक्त रूप में इस उपधारणा को जन्म देती हैं कि दान विलेख असम्यक् प्रभाव के अन्तर्गत अस्तित्व में आया। अतः यह अभिनिर्णत हुआ कि दाता संव्यवहार को रद्द करा सकेगा। जब तक दाता को अपने अधिकार का ज्ञान नहीं होता है तथा दान असम्यक् प्रभाव से मुक्त है तब तक दान के प्रति अपनी मंशा अभिव्यक्त करना या उसे अनुमोदित करना दाता के लिए सम्भव नहीं होगा।

    पैराग्राफ दो यह प्रकल्पित करता है कि अस्तित्व में आया दान शून्यकरणीय हो शून्य। परन्तु यथार्थ यह है कि दान प्रारम्भ से ही शून्य होता है, उपरोक्त उल्लिखित कारकों की कि प्रारम्भ से उपस्थिति में अतः वाद पत्र द्वारा कथित दान के संव्यवहार को शून्य कराये जाने की आवश्यकता नहीं होती है।

    यह धारा इसी अधिनियम की धारा 10 से नियंत्रित है। अतः दान विलेख में इस आशय का उपबन्ध कि आदाता या उसके उत्तराधिकारी दान सम्पत्ति का अन्तरण नहीं कर सकेंगे शून्य होगा। यदि अन्तरितों के अन्तरण करने के अधिकार पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है तो दान का संव्यवहार शून्य होगा।

    असम्यक् प्रभाव या कपट के आधार पर दान का प्रतिसंहरण-

    असम्यक् प्रभाव या कपट का दो जीवित व्यक्तियों के बीच हुए दान के संव्यवहार पर वही प्रभाव पड़ता है जो इसका प्रमुख संविदा के मामले में होता है। अतः इस आधार पर दान को रद्द कराने वाले व्यक्ति को संविदा अधिनियम की धारा 16 (1) में उल्लिखित परिस्थितियों को अभिवाचित करना होगा एवं उसे साबित भी करना होगा सबूत का भार आदाता पर टालने के लिए, उसमें उल्लिखित दोनों ही शर्तों को सन्तुष्ट करना होगा। इस सन्दर्भ में तीन बिन्दुओं पर विचार करना होगा।

    (1) यह कि क्या वादी या असम्यक् प्रभाव के आधार पर उपचार माँगने वाला व्यक्ति साबित कर चुका है कि दोनों के बीच इस प्रकार सम्बन्ध थे कि उनमें से एक दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में था।

    (2) यह कि क्या प्रभाव, असम्यक् प्रभाव के तुल्य हैं, जिसके कारण संव्यवहार अन्तःकरण के विरुद्ध था।

    (3) यह कि असम्यक् प्रभाव डालने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसने असम्यक् प्रभाव नहीं डाला था।

    इन तीनों अवयवों का पूर्ण होना दान के प्रतिसंहरण के लिए आवश्यक हैं।

    अजमेर सिंह बनाम आत्मा सिंह के वाद में एक वृद्ध व्यक्ति ने जिसकी दृष्टि भी क्षीण हो गयी थी अपने द्वारा अपने पुत्र के पक्ष में सृजित दान विलेख के निरस्तीकरण हेतु इस आधार पर वाद संस्थित किया कि उसने स्वेच्छया वह सम्पत्ति दान में अन्तरित नहीं किया था। परिस्थितियों से यह प्रकट था कि वादी ने स्वेच्छया दान नहीं किया था।

    प्रतिवादी आदाता ने उसकी मंशा को प्रभावित किया क्योंकि वह ऐसा करने की स्थिति में था। ऐसी स्थिति में यह साबित करने का मात्र आदाता पर था कि दान स्वेच्छया किया गया था ऐसा साबित न होने पर दान शून्य घोषित कर दिया गया।

    एक अन्य प्रकरण में यह आरोप लगाया गया था कि दान एक पर्दानशीन स्त्री से कपट का सहारा लेकर प्राप्त किया गया था। वादी जो एक पर्दानशीन स्त्री थी, उससे उस संव्यवहार का ज्ञान नहीं था तथा उसके साथ कपट कर उससे दान कराया गया। यदि वह स्त्री कपट साबित करने में असमर्थ रहती है तो भी आदाता को साबित करना होगा कि उस स्त्री के साथ कपट नहीं किया गया।

    कब दान का प्रतिसंहरण नहीं हो सकेगा-

    दान का कब प्रतिसंहरण हो सकेगा, उन परिस्थितियों का उल्लेख धारा 126 के पैरा 1 एवं 2 में किया गया है। पैरा तीन सुस्पष्ट करता है कि दान अन्यथा प्रतिसंहरणीय नहीं है। अतः यदि इस धारा के पैरा 1 एवं 2 में वर्णित परिस्थितियों के अतिरिक्त किसी अन्य परिस्थिति में दान का प्रतिसंहरण करने का प्रयास किया जा रहा है तो दान का प्रतिसंहरण नहीं हो सकेगा।

    अतः एक दान का प्रतिसंहरण, जो पूर्णरूपेण दाता की मंशा पर निर्भर हो, प्रतिसंहृत कर ले, ऐसा नहीं हो सकेगा क्योंकि दान द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण जैसे ही संव्यवहार पूर्ण होता है अन्तिम एवं बाध्यकारी हो जाता है। एक बार दान का संव्यवहार पूर्ण होने के बाद, दाता इस आधार पर उसका प्रतिसंहरण नहीं कर सकेगा कि उसने त्रुटिवश अन्तरण किया था अथवा उसने सोचा था कि आदाता उसका अन्तिम संस्कार या मृत्यु संस्कार पूर्ण करेगा।

    यदि दान का संव्यवहार पूर्ण होने के उपरान्त दाता का विचार आदाता के प्रति बदल जाता है अथवा दाता का नजरिया आदाता के प्रति बदल जाता है तो भी वह दान का प्रतिसंहरण नहीं कर सकेगा।

    यदि दावा ने असम्यक् प्रभाव के अन्तर्गत दान दिया था इसके बावजूद उसने बाद में दान हेतु अपनो सम्मति व्यक्त कर दी तो सम्मति देने के बाद वह दान को चुनौती नहीं दे सकेगा। दान का प्रतिसंहरण तब भी नहीं हो सकेगा जब दाता यह अभिकथन कर रहा हो कि बिना सम्यक् विचार किए और अपनी मूर्खतावश उसने अचल सम्पत्ति का अन्तरण कर दिया था।

    हिन्दू एवं मुस्लिम वैयक्तिक विधि के अन्तर्गत दान का प्रतिसंहरण- दान के प्रतिसंहरण के सम्बन्ध में हिन्दू वैयक्तिक विधि सुस्पष्ट है। एक बार वैध दान का सृजन होने के उपरान्त उसका प्रतिसंहरण केवल तभी हो सकेगा जब यह साबित हो जाए दान स्वेच्छया नहीं निष्पादित किया गया थाः अपितु असम्यक् प्रभाव अथवा कपट के कारण यह अस्तित्व में आया था। यदि दान के संव्यवहार पर असम्यक् प्रभाव के कारण प्रश्नचिह्न लगाया गया है तो पक्षकारों के वैयक्तिक सम्बन्धों पर सर्वप्रथम विचार होना चाहिए।

    मुस्लिम विधि में स्थिति भिन्न है, अतः धारा 126 में उल्लिखित उपबन्ध मुस्लिम विधि पर लागू नहीं होगा।

    दावा मुस्लिम विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा परिदत्त करने के बाद भी उसका प्रतिसंहरण सिवाय निम्नलिखित स्थितियों को छोड़कर कर सकेगा-

    1. जब दान एक पति द्वारा पत्नी को किया गया हो अथवा पत्नी द्वारा जारी किया गया हो।

    2. जब आदाता, दाता से प्रतिषिद्ध सम्बन्धों द्वारा जुड़ा हो।

    3. जब दान सदका हो, (अर्थात् खैरात हेतु अथवा किसी धार्मिक प्रयोजन के लिए दान किया गया हो।

    4. जब आदाता मृत हो।

    5. जब दान को विषयवस्तु आदाता के कब्जा से परे विक्रय, दान अथवा अन्यथा द्वारा चली गयी हो।

    6. जब दान में दी गयी वस्तु खो गयी हो अथवा नष्ट हो गयी है।

    7. जब दान में दी गयी वस्तु के मूल्य में वृद्धि हो गयी हो, वृद्धि का कारण कुछ भी क्यों न हो।

    8. जब दान में दी गयी वस्तु के स्वरूप में इस प्रकार परिवर्तन हो गया हो कि उसकी पहचान (शिनाख्त) न हो सके जैसे गेंहू का आटे में परिवर्तित हो जाना।

    9. जबकि दाता ने दान के एवज में आदाता से कुछ प्राप्त किया हो उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों को छोड़कर मुस्लिम विधि में दान का प्रतिसंहरण हो सकेगा। दान, दाता की इच्छा मात्र से ही प्रतिसंहृत हो सकेगा, पर उसके लिए न्यायालय की डिक्री आवश्यक होगी।

    दान का निरस्तीकरण- दान यदि कपट, प्रपीड़न, असम्यक् प्रभाव या मिथ्या व्यपदेशन पर आधारित नहीं था और न ही सभार था तो उसका एकपक्षीय निरस्तीकरण नहीं हो सकेगा। ऐसे दान का निरस्तीकरण केवल विधिक प्रक्रिया के माध्यम से सक्षम न्यायालय द्वारा ही हो सकेगा।

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