संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 45: दान का अंतरण कैसे किया जाता है! इससे संबंधित प्रक्रिया (धारा 123)

Shadab Salim

31 Aug 2021 4:00 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 45: दान का अंतरण कैसे किया जाता है! इससे संबंधित प्रक्रिया (धारा 123)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 123 के अंतर्गत दान के माध्यम से संपत्ति के अंतरण से संबंधित प्रक्रिया को प्रस्तुत किया गया है। विदित रहे कि इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत दान के संबंध में उल्लेख किया गया था जहां दान की परिभाषा प्रस्तुत की गई थी।

    दान भी संपत्ति के अंतरण का एक माध्यम है। धारा 123 दान से होने वाले संपत्ति के अंतरण से संबंधित विस्तृत प्रक्रिया का उल्लेख कर रही है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 123 से संबंधित प्रक्रिया को उल्लेखित किया जा रहा है।

    धारा 123, दान किस प्रकार किया जाए के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। धारा 123 का प्रथम पैरा यह उपबन्धित करता है कि अचल सम्पत्ति का दान करने के लिए आवश्यक है कि अन्तरण दाता द्वारा या उसकी ओर से हस्ताक्षरित और कम से कम दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा हो।

    दूसरे शब्दों में अचल सम्पत्ति का दान प्रभावी हो सकेगा यदि-

    (क) दान एक रजिस्ट्रोकृत लिखत द्वारा किया गया हो, (दान की सम्पत्ति का मूल्य महत्वहीन है)

    (ख) दाता द्वारा या उसकी ओर से लिखत हस्ताक्षरित हो।

    (ग) लिखत दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित हो।

    पैरा 2, धारा 123 उपबन्धित करता है कि यदि दान की विषयवस्तु चल सम्पत्ति है तो अन्तरण या तो दाता या उसकी ओर से हस्ताक्षरित एवं कम से कम दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा अथवा वस्तु के परिदान द्वारा किया जा सकेगा।

    दूसरे शब्दों में चल वस्तु का दान-

    (क) या तो अचल वस्तु के दान से सम्बन्धित प्रक्रिया का अनुसरण करके किया जा सकेगा, या

    (ख) सम्पत्ति के परिदान द्वारा जैसा कि माल विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 33 में उपबन्धित हैं, किया जा सकेगा।

    इन औपचारिकताओं के उचित पालन के बिना दान की गयी सम्पत्ति आदाता को अन्तरित नहीं हो सकेगी। भागिक पालन का सिद्धान्त दान के प्रकरणों में प्रवर्तनीय है। गोमती बाई बनाम मुट्ठलाला के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि दाता द्वारा निष्पादित लेखबद्ध लिखत दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणन एवं रजिस्ट्रीकरण एवं आदाता द्वारा उसकी स्वीकृति के अभाव में अचल सम्पत्ति का दान पूर्ण नहीं होगा, पर लिखत उसका अनुप्रमाणन एवं रजिस्ट्रीकरण चल सम्पत्ति के दान के सम्बन्ध में आवश्यक प्रक्रिया नहीं है। यह एक गौड़ प्रक्रिया है।

    दान विलेख की प्रस्तुति मात्र तथा दो में से एक साक्षी का परीक्षण यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है कि दान प्रभावी हो गया है विशेषकर जबकि दाता एक वृद्ध व्यक्ति हो तथा दाता एवं आदाता दोनों साथ-साथ रह रहे हों।

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मन्नूलाल बनाम राधा किशन जी के वाद में यह अभिनिर्णीत किया हैं कि इस धारा में उल्लिखित उपबन्ध धार्मिक दान के मामलों में भी प्रवर्तनीय है। उसी प्रकार पटना उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया है कि हिन्दू विधि के अन्तर्गत दान से सम्बन्धित विधि इस अधिनियम की धारा 129 द्वारा पूर्णतः निरस्त कर दी गयी है तथा हिन्दू विधि के अन्तर्गत भी एक वैध दान का सृजन केवल धारा 123 के अनुपालन द्वारा ही हो सकेगा।

    अतः अचल सम्पत्ति का दान दाता द्वारा या उसकी ओर से हस्ताक्षरित और कम से कम दो व्यक्तियों द्वारा अनुप्रमाणित रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा ही हो सकेगा। इसके विपरीत मद्रास उच्च न्यायालय का यह अभिमत है कि धार्मिक प्रयोजन हेतु किया समर्पण इन नियमों से विनियमित नहीं होता है, क्योंकि एक प्रतिमा या मूर्ति के पक्ष में किया गया समर्पण एक जीवधारी के पक्ष में किया गया अन्तरण नहीं है अतः यह दान की कोटि में नहीं आयेगा।

    यह ईश्वर के पक्ष में किया गया समर्पण है अतः किसी मन्दिर पर मूर्ति के पक्ष में किसी विशिष्ट अवसर पर जैसे विवाह या श्राद्ध सम्पत्ति के एक तुच्छ अंश का अंतरण लिखित एवं पंजीकृत रूप में होना आवश्यक नहीं है। अन्तरण मौखिक रूप में हो सकेगा एवं वैध होगा, पर यदि अन्तरण लिखत के द्वारा किया जा रहा है तो उसका रजिस्ट्रीकरण आवश्यक होगा।

    यदि सम्पत्ति का समर्पण मंदिर के न्यासों के पक्ष में किया जा रहा है तो उसका लिखित एवं रजिस्ट्रीकृत होना आवश्यक है। अतः यह कहना समीचीन होगा कि सम्पूर्ण स्थिति इस पर निर्भर करती है कि विन्यास किस प्रकार किया जा रहा है।

    प्रिवी कौंसिल ने गांगी रेड्डी बनाम तम्मी रेड्ड के वाद में यह अभिनिर्णीत किया है कि पारिवारिक सम्पत्ति के एक भाग (जिसमें अचल सम्पत्ति भी सम्मिलित हो) का समर्पण धार्मिक प्रयोजनों के लिए खैरात के रूप में जैसे ब्राह्मणों के लिए एक खैरात गृह का निर्माण बिना किसी लिखत एवं रजिस्ट्रीकरण के किया जा सकेगा। इस निर्णय के सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि बिना धारा 123 की चर्चा किए यह निर्णय दिया गया था।

    उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकेगा कि इस विषय पर विधि सुनिश्चित नहीं है। चूँकि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम एक जीवित व्यक्ति से दूसरे जीवित व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति अन्तरण हेतु प्रावधान प्रस्तुत करता है अतः एक मूर्ति या प्रतिमा के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण, इस अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत अन्तरण नहीं है। इस अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत अन्तरण नहीं है।

    अतः मूर्ति या प्रतिमा के पक्ष में किया जाने वाले अन्तरण का लिखित एवं पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है। प्रतिमा या मूर्ति यद्यपि एक विधिक व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त है, किन्तु वह निष्ठतः एक जीवित व्यक्ति नहीं है।

    यदि सम्पत्ति के सह स्वामी सम्पत्ति का आपस में विभाजन या बँटवारा करते हैं तथा बंटवारे के दौरान उक्त सम्पत्ति का एकमात्र एक अन्य व्यक्ति, जो उक्त सम्पत्ति का सह स्वामी नहीं था, के पक्ष में अन्तरित किया जाता है तो अन्तरण दान की कोटि में आयेगा एवं इस संव्यवहार की वैधता के लिए यह आवश्यक होगा कि इस धारा में उल्लिखित औपचारिकताएं पूर्ण हों अन्तरण के पक्षकार इस अधिनियम में उल्लिखित औपचारिकताओं को पूर्ण करने से केवल इस कारण से नहीं बेच सकेंगे कि वे अन्तरण को दान न मानकर किसी अन्य संव्यवहार के रूप में उसे देखते हैं। एक निमुक्ति विलेख कतिपय परिस्थिति में दान विलेख के रूप में प्रवर्तित हो सकेगी।

    गोमती बाई बनाम मुट्ठलाल के प्रकरण में वाद के पक्षकारों ने एक रजिस्ट्रीकृत विभाजन विलेख के द्वारा अपनी चचेरी बहन के पक्ष में कतिपय सम्पत्ति का दान किया तथा चचेरी बहन के पक्ष में कतिपय सम्पत्ति का दान किया तथा चचेरी बहन ने उक्त सम्पत्ति स्वीकार कर लिया दान के रूप में। पर न तो लिखित दस्तावेज का निष्पादन किया गया और न ही उसका धारा 123 के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकरण किया गया।

    उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि दान विलेख के अरजिस्ट्रीकृत लिखत के अभाव में तथा आदाता द्वारा स्वीकृत न होने के कारण, यह नहीं कहा जा सकेगा कि चचेरी बहन के पक्ष में सम्पत्ति का विधित अन्तरण हुआ है। दूसरे शब्दों में विधि को दृष्टि में दान का संव्यवहार पूर्ण नहीं हुआ है।

    दान के प्रत्येक मामले में रजिस्ट्रीकरण के अतिरिक्त यह भी साबित होना चाहिए कि दाता ने अपने आप को दान सम्पत्ति से पूर्णरूपेण विरत कर लिया है अर्थात् दाता ने सम्पत्ति का स्वेच्छया एवं बिना प्रतिफल के आदाता के पक्ष में अन्तरण कर दिया है तथा आदाता ने उसे स्वीकार कर लिया है। अतः रजिस्ट्रीकरण के बावजूद भी दान पूर्ण हुआ नहीं समझा जाएगा यदि दावा दान की सम्पत्ति को निरन्तर धारण किए रहता है।

    यदि दान लिखत के रजिस्ट्रीकरण एवं लिखत के परिदान के बावजूद भी यह प्रतीत होता है कि दाता कभी भी विलेख को प्रभावी बनाने हेतु इच्छुक नहीं था तथा दान को पूर्ण करने हेतु जो कुछ भी वह कर सकता था नहीं किया, अपितु दान सम्पत्ति का कब्जा निरन्तर धारण किए रहा एवं आदाता ने इस पर कभी भी आपत्ति नहीं दर्ज की एवं कालान्तर में दाता ने सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में हस्तान्तरित कर दिया। इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिणात हुआ कि दान विलेख के रजिस्ट्रीकृत होने के बावजूद भी दान की कार्यवाही कभी भी पूर्ण नहीं हुई।

    यदि एक पिता एक संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति बिना किसी कारण या प्रयोजन के तथा पैतृक अचल सम्पत्ति का दान करने हेतु विधि द्वारा अपेक्षित परिस्थितियों के न होते हुए भी पैतृक सम्पत्ति के सम्बन्ध में दान विलेख का निष्पादन करता है तो ऐसा दान वैध नहीं होगा इस संव्यवहार के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जहाँ तक पिता दाता का पैतृक सम्पत्ति में अंश है उसका दान वह विधित कर सकेगा एवं आदाता उसे प्राप्त कर सकेगा बशर्ते कि दाता को पैतृक सम्पत्ति में अपना अंश अन्तरित करने का अधिकार हो। यदि इस अधिकार का प्रयोग करते हुए पिता दाता अपना अंश अन्तरित करता है तथा आदाता उसे स्वीकार करता है तो अन्तरण दान के रूप में वैध होगा।

    यदि एक पिता कतिपय सम्पत्ति का दान अपने अवयस्क पुत्रों के पक्ष में करता है तो इस दान को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि दान की स्वीकृति अवयस्क के संरक्षक द्वारा नहीं की गयी और उन्हें सम्पत्ति का कब्जा भी परिदत्त नहीं किया गया।

    पेनूचामी बनाम बाला सुब्रमनियम के वाद में पिता अपने अवयस्क पुत्र का एक मात्र संरक्षक था अवयस्क को शरीर एवं उसको सम्पत्ति दोनों का, जहाँ था पिता ने स्वयं दान विलेख अवयस्क के पक्ष में निष्पादित किया था तथा दान के पश्चात् भी दाता एवं आदाता एक साथ रह रहे थे तो दान की स्वीकृति की परिकल्पना की जा सकेगी, क्योंकि दान की स्वीकृति केवल पिता द्वारा संरक्षक के रूप में की जा सकेगी। दान वैध माना गया।

    एस० पी० सैगल बनाम सुनौल' के वाद में एक विधवा ने अपनी पैतृक सम्पत्ति जो पाकिस्तान में थी, के एवज में प्राप्त प्रतिकर की रकम से एक सम्पत्ति क्रय किया तथा कालान्तर में उसने उक्त सम्पत्ति दान में अपने पुत्र को हस्तान्तरित कर दिया। पुत्र को सम्पत्ति का आत्यन्तिक स्वामी माना गया यद्यपि माता एवं पुत्र दोनों साथ-साथ रह रहे थे।

    एक रजिस्ट्रीकृत दान विलेख जो सम्यक् रूप में निष्पादित, अनुप्रमाणित स्वीकृत तथा आदाता द्वारा कृत किया गया हो, का प्रभाव यह होता है कि उक्त द्वारा दाता से आदाता के पक्ष में विधिक स्वत्व हस्तान्तरित हो जाता है। दाता के मन में विद्यमान कोई गुप्त मंशा या विचार या भावना, जो इस संव्यवहार के प्रतिकूल है, प्रभावहीन होगी। गोलक जेना बनाम वंशीधर के वाद में दो व्यक्ति एक मकान को संयुक्त रूप में धारण कर रहे थे।

    उनमें से एक ने मकान के एक भाग का एक अन्य व्यक्ति जो अवयस्क था, के पक्ष में रजिस्ट्रीकृत दान विलेख द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण कर दिया। दान विलेख अवयस्क की माँ को हस्तगत कर दिया गया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि माँ द्वारा दान की स्वीकृति वैध है।

    रजिस्ट्रीकरण-

    यदि दान की विषयवस्तु अचल सम्पत्ति है तो उसका रजिस्ट्रीकरण आवश्यक होगा तथा इस धारा के अन्तर्गत एक वैध दान का सृजन होगा। पर एक मुसलमान द्वारा किया गया दान मौखिक हो सकेगा तथा एक रजिस्ट्रीकृत विलेख की आवश्यकता नहीं होगी दान की वैधता के लिए यदि पक्षकारों के अशिक्षित होने के कारण दान-विलेख रजिस्ट्रीकृत नहीं हुआ है तो इस दान के फलस्वरूप आदाता में किसी प्रकार का हित सृजित नहीं होगा।

    कालान्तर में यदि इस दान-विलेख को रजिस्ट्रीकृत किया जाता है जिससे कि दान सम्पत्ति का भविष्य में संव्यवहार न हो सके तो रजिस्ट्रीकरण की यह प्रक्रिया प्रभावहीन होगी, आदाता सम्पत्ति का स्वामी नहीं बन सकेगा तथा दाता उक्त सम्पत्ति का विक्रय कर सकेगा

    यदि किसी सम्पत्ति का अन्तरण रजिस्ट्रीकृत दान-विलेख द्वारा किया जाता है तथा आदाता उसे स्वीकार कर लेता है और दानविलेख में यह स्पष्ट वर्णित है कि दाता सम्पत्ति में अपना आत्यन्तिक हित आदाता को अन्तरित करता है तथा अपने जीवनकाल तक सम्पत्ति के उपभोग का मात्र अधिकार अपने पास रोके रखता है तो इन परिस्थितियों में दाता दान का प्रतिसंहरण कर दान को विषयवस्तु का अन्तरण विक्रय विलेख निष्पादित कर किसी अन्य के पक्ष में नहीं कर सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो दान का संव्यवहार शून्य होगा।

    पर्दा नशीन स्त्री द्वारा दान कपट, उत्पीड़न एवं वास्तविक असम्यक् प्रभाव से सम्बन्धित प्रारम्भिक विधि यह है कि जो व्यक्ति इन तत्वों का आरोप लगाता है उसे हो इन्हें साबित करना पड़ता है। परन्तु भारत में, अपवाद स्वरूप पर्दानशीन महिलाओं को विशेष संरक्षण दिया गया है तथा यह साबित करने का दायित्व उस व्यक्ति पर होता है जो उस दस्तावेज को वैध घोषित कराना चाहता है।

    उसे यह साबित करना होता है कि पदानशीन स्त्री ने सभी बातों को भली-भांति समझते हुए संव्यवहार किया था तथा दस्तावेज निष्पादित किया था। इस भार का उन्मोचन तभी होगा जब यह साबित हो जाए कि दस्तावेज के तथ्यों को पर्दा नशीन स्त्री को स्पष्ट कर दिया गया था तथा उसने उन्हें भलीभांति समझ लिया था। इसके अतिरिक्त अन्य साक्ष्य भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रस्तुत किए जा सकेंगे।

    वृद्ध स्त्री द्वारा जो अशक्त या पर्दा नशीन न हो के द्वारा दान-पर्दा नशीन स्त्री द्वारा किए जाने वाले दान के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त लागू होते हैं वहीं सिद्धान्त वस्तुतः एक वृद्ध स्त्री द्वारा किए जाने वाले दान के सम्बन्ध में भी लागू होते हैं। यदि स्त्री अशक्त नहीं है तो भी कृष्ण प्रसाद बनाम गोपाल प्रसाद के वाद में एक 90 वर्ष की महिला ने जो कि न तो आशक्त थी और न ही पर्दानशीन, अपने पौत्र के पक्ष में एक सम्पत्ति का दान किया।

    वह एक विवेकशील महिला थी इन तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यह साबित करने का कि महिला ने कपट के प्रभाव में आकर सम्पत्ति का दान किया था, उस व्यक्ति पर होगा जो यह अभिकथन करता है कि दान का संव्यवहार स्वैच्छिक नहीं है, अपितु कपट प्रपोड़न या असम्यक प्रभाव से ग्रसित है। दाता ने कपट के प्रभाव में आकर सम्पत्ति को दान किया था, यह साबित करने का दायित्व उस व्यक्ति पर होता है जो इस आशय का आरोप लगाता है। यह भार आदाता पर विस्थापित नहीं हो जाएगा।

    जब एक वृद्ध स्त्री अपनी सम्पत्ति का दान करती है तो यह सुनिश्चित करना उपयुक्त होगा कि उसने सम्पत्ति का दान स्वविवेक से किया था अथवा प्रपीड़न, असम्यक् प्रभाव, मिथ्या व्यपदेशन, कपट अथवा भूल के कारण किया था। सम्पत्ति का दान करने वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति एवं सुसंगत परिस्थितियाँ इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

    इस सन्दर्भ में केरल उच्च न्यायालय द्वारा निर्णोद वाद, मणिराजन पिल्लई एवं अन्य बनाम के० के० करुणाकरन नायर एवं अन्य महत्वपूर्ण दिशानिर्देश प्रस्तुत करता है। इस वाद में तथ्य इस प्रकार थे। प्रतिउत्तरदाता करुणाकरन एवं अन्य का यह अभिकथन था कि उनके माम ने एक दान विलेख का निष्पादन उनके पक्ष में किया था जिसका विरोध अपीलार्थियों एवं निष्पादक की दो अन्य बहनों के पुत्रों एवं उनके भाई के पुत्रों ने किया।

    अपीलार्थियों का कथन था कि दान विलेख का निष्पादन कपट एवं मिथ्या व्यपदेशन के फलस्वरूप किया गया था। मूलदान विलेख सदैव निष्पादक के कब्जे में था, जिसने कालान्तर में यह एहसास होने पर कि दान विलेख का निष्पादन कपट एवं मिथ्या व्यपदेशन से प्रभावित है दान विलेख को निरस्त कर दिया तथा एक दूसरा दान विलेख अपनी बहनों एवं भाई के पक्ष में निष्पादित कर दिया, दान की सम्पत्ति में अपना आजीवन हित आरक्षित करते हुए निष्पादक की मृत्यु के उपरान्त आदाताओं ने पाश्चिक दान विलेख के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर लिया जिसे वर्तमान प्रतिउत्तरदाता ने चुनौती दी।

    विचारण के दौरान न्यायालय ने यह पाया कि निष्पादक एक विधि स्नातक थी एवं तत्समय अपनी देख-भाल करने के लिए चिकित्सीय मानकों के अनुसार, स्वस्थ थी, यद्यपि वह पर्याप्त रूप में वृद्ध (बुजुर्ग) थी एवं बहुधा उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाता था चिकित्सीय लाभ हेतु विशेष कर तब जब उन्होंने दान विलेख का निष्पादन किया था।

    न्यायालय ने सभी सुसंगत तथ्यों एवं परिस्थितियों का अवलोकन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि केवल इस आधार पर कि जिस समय दान विलेख का निष्पादन किया गया था निष्पादक पर्याप्त रूप में वृद्ध थी एवं उन्हें बार बार अस्पताल में भर्ती कराया जाता था चिकित्सीय उपचार हेतु अपने आप में यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त आधार प्रस्तुत नहीं करता है कि उन्होंने कपट या मिथ्या व्यपदेशन के फलस्वरूप दान विलेख का निष्पादन किया था।

    वह विधि स्नातक थी एवं अपनी देख-भाल करने में समर्थ थी, इस बात का प्रतीक है कि वह मानसिक रूप में स्वस्थ थी, अतः दान विलेख निष्पादित करते समय वह कपट, मिथ्या व्यपदेशन अथवा असम्यक् प्रभाव से पीड़ित थीं यह निष्कर्ष निकालना उपयुक्त नहीं है। न्यायालय ने यह भी अभिप्रेक्षित किया कि इस प्रकार के मामलों में सबूत का भार आदाता पर हस्तान्तरित नहीं होता है कि वह साबित करे कि दान इसे प्रदूषित करने वाले कारकों से मुक्त था।

    निरक्षर स्त्री द्वारा दान-

    एक पर्दानशीन स्त्री द्वारा किए जाने वाले दान से सम्बन्धित सिद्धान्त एक निरक्षर स्त्री द्वारा किए जाने वाले दान के सम्बन्ध में भी लागू होता है। विधि ऐसी स्त्री के इर्द गिर्द एक विशिष्ट संरक्षण व्यवस्था स्थापित करती है। ऐसी स्त्री द्वारा किये जाने वाले दान का उसे पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। वह उसे भलीभांति समझती हो।

    दान का संव्यवहार उसके अपने मन को उपज हो जिस प्रकार निष्पादन निष्पादित करने वाले व्यक्ति का एक मौलिक कृत्य होता है। न्यायालय का इस बात से सन्तुष्ट होना आवश्यक है कि स्त्री की अपनी स्वतंत्र इच्छा थी दान विलेख निष्पादित करने की; वह पर्याप्त रूप में बुद्धिमान थी संव्यवहार की स्थिति को समझने में यह भी साबित होना आवश्यक है कि लिखत की बातें जिस रूप में उसके समक्ष प्रकट की गयी थीं उसने उन्हें उसी रूप में समझा था एवं इस पूरी प्रक्रिया में किसी प्रकार के असम्यक् प्रभाव या मिथ्या अभिकथन का उपयोग हुआ था न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि के निरक्षर स्त्री जो दान विलेख निष्पादित कर रही है वह स्त्री थी जिसे सम्यक् रूप में सूचना दी गयी थी कि वह क्या कर रही है पर क्या करने जा रही है।

    दाता की मृत्योपरान्त दान विलेख का रजिस्ट्रीकरण-

    दान की वैधता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दान का रजिस्ट्रीकरण स्वयं दाता द्वारा ही हो । दाता की मृत्यु के पश्चात् भी दान विलेख का रजिस्ट्रीकरण हो सकेगा एवं दान वैध होगा। इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण नहीं होगा कि आदाता दाता का एक निकटवर्ती सम्बन्धी है अथवा एक अजनबी।

    भवतोष बनाम सुलेमान के वाद में एक पति ने अपनी पत्नी के पक्ष में एक सम्पत्ति दान द्वारा अन्तरित किया। इससे पूर्व कि दान का रजिस्ट्रीकरण हो, पति दाता की मृत्यु हो गयी। पति की मृत्योपरान्त विधवा ने दान विलेख का रजिस्ट्रीकरण स्वयं कराया। न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि यह एक वैध दान विलेख हैं तथा धारा 123 द्वारा पूर्णतया आच्छादित है।

    दान की वैधता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दान विलेख का रजिस्ट्रीकरण दाता के जीवनकाल में ही हो। दाता की मृत्योरान्त उसके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा दान विलेख के रजिस्ट्रीकरण का वही प्रभाव होता है जो प्रभाव दान विलेख का होता यदि उसका रजिस्ट्रीकरण स्वयं दाता द्वारा अपने जीवनकाल में कराया गया होता।

    यदि दान विलेख के निष्पादन के पश्चात् दाता की मृत्यु हो जाती है तथा आदाता उक्त विलेख की रजिस्ट्री कराने हेतु कई प्रभावी कदम नहीं उठाता है, तो यह दान विफल हो जाएगा।

    यदि दान विलेख का रजिस्ट्रीकरण दाता की इच्छा के विरुद्ध होता है तो भी दान विलेख वैध होगा। इसी प्रकार यदि दाता ने दान विलेख निष्पादित कर विलेख आदाता को परिदत्त कर दिया तथा आदाता ने बाद में उसकी रजिस्ट्री कर लिया तो भी संव्यवहार एवं दस्तावेज वैध होंगे।

    दाता आदाता को दान विलेख की रजिस्ट्री कराने से रोकने हेतु व्यादेश नहीं ला सकेगा दान विलेख के निष्पादित एवं आदाता को परिदत्त होते ही दान पूर्ण हो जाता है। अतः बाद की किसी कार्यवाही का संव्यवहार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।

    सम्यक् रूप में किया गया दान एवं आदाता द्वारा उसकी स्वीकृति केवल इसलिए अवैध नहीं होगी क्योंकि बाद में दाता की इच्छा के विरुद्ध उसका रजिस्ट्रीकरण कराया गया। दाता की मृत्यु के पश्चात् दान विलेख का रजिस्ट्रोकरण आदाता द्वारा मृत दाता के विधिक प्रतिनिधियों की सम्मति के बिना भी कराया जा सकेगा तथा यह रजिस्ट्री वैध होगी।

    जहाँ दान विलेख आदाता को संदत्त कर दिया गया है तथा दाता ने, दान को प्रभावी बनाने हेतु, कुछ भी उसकी सामर्थ्य में था, वह समस्त कार्य कर दिया है, तो दाता की मृत्यु अथवा उसके जो द्वारा प्रति विखण्डन या प्रत्संहरण का कोई प्रतिकूल प्रभाव रजिस्ट्रीकरण पर नहीं पड़ेगा तथा रजिस्ट्रीकरण अधिकारी इनमें से किसी भी आधार पर रजिस्ट्रीकरण करने से मना नहीं कर सकेगा।

    अचल सम्पत्ति के दान से सम्बन्धित विलेख जो धारा 123 के उपबन्धों के अनुसार सम्यक् रूप में निष्पादित है, पर जिसके विषय में आशयित आदाता को कभी कोई सूचना नहीं दो गयी तथा वह विलेख सदैव दाता के कब्जे में रहा, ऐसे विलेख से वैध दान का सृजन नहीं होगा और न ही वह विलेख आदाता के अनुरोध पर अनिवार्यतः रजिस्ट्रीकृत होगा।

    यदि दान की विषयवस्तु में अचल एवं चल दोनों ही प्रकार की सम्पत्तियाँ सम्मिलित हैं पर अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में दान विफल हो जाता है तो सम्पूर्ण दान को अवैध घोषित नहीं किया जाएगा यदि चल सम्पत्ति का दान इस शर्त पर नहीं किया गया था कि चल सम्पत्ति का दान अचल सम्पत्ति के दान की वैधता अथवा उसको सफलता पर निर्भर करेगा।

    दूसरे शब्दों में एक हो विलेख द्वारा अचल एवं चल सम्पत्ति का दान किया गया है तो एक के सन्दर्भ में दान को विफलता से दूसरे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि चल सम्पत्ति का दान अचल सम्पत्ति के दान की वैधता पर आश्रित न हो।

    मौखिक दान या अरजिस्ट्रीकृत दान विलेख-

    धारा 123 यह पूर्णतया सुस्पष्ट करती है यदि दान की विषयवस्तु अचल सम्पत्ति है तो उसका अन्तरण केवल तभी वैध होगा जब दान के सम्बन्ध में एक अन्तरण विलेख तैयार किया गया हो, जिसे कम से कम दो व्यक्तियों ने अनुप्रमाणित किया हो तथा जिसका रजिस्ट्रीकरण हुआ हो।

    अचल सम्प का मौखिक दान अथवा बिना रजिस्ट्री के दान बंध नहीं होगा। केवल सम्पत्ति के परिदान मात्र से आदाता को अन्तरित सम्पत्ति में कोई भी हित या स्वत्व प्राप्त नहीं होगा। केवल चल सम्पत्ति का ही वैध दान सम्पत्ति के परिदान द्वारा हो सकेगा।

    चल सम्पत्ति के सम्बन्ध में किसी लिखित अथवा रजिस्ट्रीकृत दस्तावेज की आवश्यकता नहीं होती है। दाता द्वारा आदाता को सम्पत्ति का कब्जा प्रदान करना तथा आदाता द्वारा उसे स्वीकार करना चल सम्पत्ति के वैध दान के लिए पर्याप्त है। यदि दान को विषयवस्तु अचल एवं चल दोनों है तो लिखित, अनुप्रमाणित एवं रजिस्ट्रीकृत दान विलेख द्वारा ही वैध दान का सृजन हो सकेगा।

    यदि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत दान का सृजन किया जा रहा हो तो मौखिक दान एवं वस्तु का परिदान दाता से आदाता को एक वैध दान के सृजन के लिए पर्याप्त होगा, परन्तु यह आवश्यक होगा कि दाता अपना स्वामित्व एवं अधिकार दान की विषयवस्तु से हटा ले, समाप्त कर दे।

    आदाता के लिए यह साबित करना अनिवार्य होगा कि न केवल दाता ने दान की विषयवस्तु से अपना स्वामित्व हटा लिया है अपितु उसे यह भी साबित करना होगा कि उसने आदाता के रूप में उक्त सम्पत्ति को स्वीकार कर लिया है। सम्पत्ति का कब्जा उसे प्राप्त हो गया है।

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मतानुसार धारा 123 में उल्लिखित सिद्धान्त आज्ञापक एवं अनिवार्य है। एक अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में वैध दान का सृजन केवल इसके अनुसरण में हो हो सकेगा।

    अचल सम्पत्ति का मौखिक दान केवल संकल्प द्वारा नहीं हो सकेगा। केवल संकल्प, न तो दाता को उसके अधिकारों से वंचित कर सकेगा और न ही आदाता को उक्त सम्पत्ति में स्वामित्व प्रदान कर सकेगा। विधि की दृष्टि में दाता सम्पत्ति का स्वामी बना रहेगा।

    कुँवरजी बनाम म्यूनिसपिलिटी ऑफ लोनावाला के वाद में वादी ने प्रतिवादी के पक्ष में जमीन का एक खण्ड दान के रूप में देने का वचन दिया, किन्तु प्रतिवादी के पक्ष में धारा 123 के अनुसार कार्यवाही नहीं सम्पन्न हुई। किन्तु म्यूनिसपिलिटी ने उक्त जमीन को अपने कब्जे में लेकर उस पर सड़क का निर्माण कर दिया।

    वादी ने जब प्रतिवादी के इस कार्य को चुनौती दी तो प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वादी ने उक्त भूमि म्यूनिसपिलिटी को दान के रूप में देने का वचन दिया था तदनुसार म्यूनिसपिलिटी ने उपरोक्त कार्यवाही की बम्बई उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस मामले में दान का सृजन हुआ ही नहीं था, क्योंकि धारा 123 में उल्लिखित उपबन्धों का अनुपालन ही नहीं हुआ था। फलतः म्यूनिसपिलिटी द्वारा वादी की भूमि पर सड़क का निर्माण अवैध है।

    मात्र सड़क के निर्माण से म्यूनिसपिलिटी को उक्त भूमि पर अधिकार नहीं प्राप्त होगा एवं संव्यवहार वैध नहीं हो जाएगा। अचल सम्पत्ति का मौखिक दान वहाँ भी वैध नहीं होगा जहाँ आदाता, दाता के पक्ष में मौखिक दान स्वीकार करते हुए एक विलेख निष्पादित करता है।

    यदि दाता अपनी अचल सम्पत्ति का मौखिक दान सृजित करते हुए आदाता को परिदत्त कर देता है, तत्पश्चात् यह दान विलेख निष्पादित करता है, किन्तु विलेख को रजिस्ट्री से पूर्व ही दाता की मृत्यु हो जाती है। इन तथ्यों पर यह अभिनिर्णीत कि वैध दान का सृजन नहीं हुआ था।

    वरदा पिल्लई बनाम जोवरम्मत के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष एक विचित्र स्थिति थी। एक व्यक्ति ने कोई विलेख सम्पत्ति के अन्तरण के सम्बन्ध में निष्पादित नहीं किया था, परन्तु अपने आप को दाता घोषित करते हुए जिलाधिकारी के समक्ष एक पिटीशन प्रस्तुत किया यह उल्लेख करते हुए कि उसने कतिपय गाँवों को दान के रूप में आदाता के पक्ष में अन्तरित कर दिया है, अतः प्रार्थना है कि उन गाँवों को आदाता के नाम से अभिलिखित करने हेतु आदेश पारित कर दिया जाए।

    उसी तिथि को आदाता ने भी इसी आशय का एक पिटीशन जिलाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया। इस संव्यवहार को चुनौती दी गयी। प्रिवी कौंसिल ने अभिनिर्णीत किया कि चूँकि लिखित एवं रजिस्ट्रीकृत दान विलेख निष्पादित नहीं किया गया था अतः वैध दान का सृजन हुआ नहीं समझा जाएगा।

    धारा 123 में वर्णित शर्तों का अनुपालन होना आवश्यक है। पिटीशन में लिखित तथ्यों को दान के साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकेगा। संव्यवहार को दान के संव्यवहार के रूप में न्यायालय ने मान्यता नहीं दी।

    यदि मौखिक दान के अन्तर्गत आदाता 12 वर्ष या इससे अधिक अवधि तक सम्पत्ति का कब्जा धारण किए रहता है तो उसके स्वत्व को प्रतिकूल कब्जा या अनधिकृत कब्जा के आधार पर संरक्षण प्राप्त होगा। परिणामस्वरूप दाता अपनी सम्पत्ति वापस नहीं ले सकेगा।

    पंजाब में जाट समुदाय में यह परम्परा है कि यदि कोई विधवा करेवा प्रकार का विवाह अपने मृत पति के भाई से करती है तो वह मृत पति से प्राप्त सम्पत्ति में अपना अधिकार खो देती है। ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण यदि दाता द्वारा किया जा रहा है तो धारा 123 में उल्लिखित उपबन्ध का अनुपालन होना आवश्यक होगा। मौखिक अन्तरण नहीं हो सकेगा।

    दान विलेख का प्रमाण-

    दान विलेख का प्रमाण साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 या 69 के अन्तर्गत किया जाता है। यदि दान विलेख घारा 68 या 69 में उल्लिखित प्रावधानों के अनुरूप नहीं है तो दान विलेख साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं होगा।

    यदि उपरोक्त प्रावधानों में उल्लिखित शर्तें पूर्ण हो रही हैं तो दान विलेख को सम्यक् रूप में साबित हुआ कहा जा सकेगा भले ही एक अनुप्रमाणक साक्षी को दस्तावेज के निष्पादन को साबित करने हेतु आमंत्रित न किया गया रहा हो।

    यदि दाता दान विलेख के निष्पादन को स्वीकार कर रहा हो तथा एक अनुप्रमाणन साक्षी का परीक्षण भी हुआ हो तो दान विलेख को साबित करने हेतु इसे पर्याप्त साक्ष्य माना जाएगा।

    यदि किसी तथ्य की अभिकथन में स्वीकृति की गयी है तो उसे सबित करने की आवश्यकता नहीं होती है। दान विलेख का अनुप्रमाणन अपेक्षित होता है। अतः यदि स्वीकारोक्ति निष्पादन एवं अनुप्रमाणन दोनों से सम्बद्ध नहीं है तो दाता द्वारा निष्पादन की स्वीकारोक्ति मात्र पर्याप्त नहीं होगी दान विलेख के अनुप्रमाणन को साबित करने के लिए।

    यदि प्रतिवादी ने दाता द्वारा दान विलेख के निष्पादन को स्वीकार किया है तथा लिखित अभिकथन में निष्पादन को नकारा भी नहीं गया है तो ऐसी स्थिति में दान विलेख को साबित करने की आवश्यकता नहीं होगी। दस्तावेज को साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को नकारा नहीं जाएगा।

    Next Story