संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 44: दान क्या है दान की परिभाषा (धारा 122)

Shadab Salim

30 Aug 2021 1:30 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 44: दान क्या है दान की परिभाषा (धारा 122)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत जिस प्रकार विक्रय, पट्टा, विनिमय संपत्ति का अंतरण के माध्यम है इसी प्रकार संपत्ति के अंतरण का एक माध्यम दान भी होता है। दान के माध्यम से भी किसी संपत्ति का अंतरण किया जा सकता है। दान से संबंधित प्रावधान संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत यथेष्ठ रूप से दिए गए हैं।

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 122 दान संबंधित प्रावधानों को प्रस्तुत करती है। इस आलेख के अंतर्गत इसी धारा पर व्याख्या प्रस्तुत की जा रही तथा दान की परिभाषा पर प्रकाश डाला जा रहा है।

    दान- किसी वर्तमान जंगम या स्थावर सम्पत्ति का वह अन्तरण है जो एक व्यक्ति द्वारा, जो दाता कहलाता है, दूसरे व्यक्ति को जो आदाता कहलाता है स्वेच्छया और बिना प्रतिफल के किया गया हो और आदाता द्वारा या उसकी ओर से प्रतिगृहीत किया गया हो। यह एक स्वैच्छिक एवं प्रतिफल रहित संव्यवहार है जो तत्समय जीवित दो व्यक्तियों के बीच पूर्ण होता है तथा आत्यन्तिक प्रकृति का होता है।

    इसके अतिरिक्त दो अन्य प्रकार के भी दान होते हैं-

    1)- आसन्न मरण दान-

    आसन्न मरण दान वह दान है जब दाता अपने आप को मरणासन्न जानकर अपनी सम्पत्ति का दान किसी अन्य जीवित व्यक्ति के पक्ष में कर देता है तथा जैसा कि अपेक्षित था, दाता की दान के पश्चात् मृत्यु हो जाए।

    मरणासन्न दान की निम्नलिखित शर्तें हैं-

    (1) दाता इस प्रकार की स्थिति में हो कि उसे मृत्यु आसन्न प्रतीत हो रही हो।

    (2) दाता की मृत्यु हो जाए उस स्थिति के फलस्वरूप।

    (3) दान तभी प्रभावी हो जब दाता की मृत्यु हो जाए।

    (4) आदाता को दान सम्पत्ति का वास्तविक परिदान हो।

    आसन्न मरण दान का उल्लेख धारा 129 में किया गया है।

    2. वसीयत द्वारा दान-

    इस प्रकार के दान के सम्बन्ध में प्रावधान भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 में वर्णित है। एक जीवित व्यक्ति द्वारा दूसरे जीवित व्यक्ति के पक्ष में किया गया दान आत्यन्तिक प्रकृति का होता है तथा दाता के जीवनकाल में ही प्रभावी हो जाता है। इसके विपरीत दान दाता की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होता है उसके जीवनकाल में नहीं। वसीयत की वैधता दाता की मृत्यु के समय उसको विधिक अन्तरणीय शक्ति पर निर्भर करता है। यदि वह तत्समय अन्तरित करने के लिए विधित प्राधिकृत था तो उसके द्वारा सृजित वसीयत वैध होगी।

    वसीयत तथा दान में अन्तर- वसीयत को एक आवश्यक विशेषता है कि यह एक इच्छा या मंशा की मात्र उद्घोषणा मात्र होती है। जब तक कि वसीयतकर्ता जीवित रहता है। एक ऐसी उद्घीषणा जो प्रतिसंहृत की जा सकती है, वसीयतकर्ता को इच्छानुसार परिवर्तित को जा सकती है।

    यह एक ऐसा संव्यवहार है जो प्रवर्तनीय होने के लिए या परिपूर्ण होने के लिए या प्रभावी होने के लिए वसीयतकर्ता की मृत्यु की अपेक्षा करता है। अतः जब तक मृत्यु नहीं होती तब तक यह बिना किसी प्रभाव के होती है। इसके विपरीत दान सम्पत्ति में एक ऐसा अन्तरण है जो स्वैच्छिक होता है प्रतिफल रहित होता है तथा पर अदाता के पक्ष में सम्पत्ति में आत्यन्तिक हित अन्तरित करता है।

    यदि वसीयतकर्ता ने प्रथम निष्पादक को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की थी सम्पत्ति को वसीयतकर्ता के जीवन काल में व्ययनित करने हेतु तत्पश्चात् वसीयतकर्ता की मृत्यु के उपरान्त अन्य व्यक्तियों के पक्ष में अधिकार का सृजन होगा तो ऐसा संव्यहार वसीयत होगा कि दान।

    जी० जी० वर्धीस एवं अन्य बनाम इस्साक जार्ज एवं अन्य के बाद में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने अभिप्रेक्षित किया था कि सीमान्त सन्देह के प्रकरणों में वैधता विधि की माँग होती है।

    उन्होंने अभिलिखित किया कि :-

    "यदि, जैसा कि मैंने संकोचवश कहा था कि, अन्तरण के प्रभावी शब्द हैं तो विलेख की प्रकृति को लेकर अतिरिक्त प्रश्न उठेगा विचारण न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया था कि यह दान का एक प्रकरण है, किन्तु अपील में अपीलीय न्यायालय ने इसे एक वसीयत माना। सम्पत्ति के व्ययन हेतु पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी, क्योंकि उसने अपने जीवनकाल में सम्पत्ति को प्रथम निष्पादक से संलग्न कर दिया गया था। कोई भी अन्य पक्षकार जिसे सम्पत्ति का लाभ मिलना था उसने दस्तावेज के निष्पादन में भागीदारी नहीं की थी और नहीं हित के निहित होने के सम्बन्ध में कोई शब्द अभिव्यक्त किया था। अतः यह विलेख वसीयत है न कि दान।"

    कोई दस्तावेज दान है या वसीयत, यह केवल दस्तावेज के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता है अपितु दस्तावेज को तैयार करने में प्रयुक्त किए गये शब्दों से निरूपित किए गये आशय पर निर्भर करता है।

    इस सन्दर्भ में साधारण परीक्षण यह है कि-

    (1) दस्तावेज का क्या नाम दिया गया है:

    (2) इसका रजिस्ट्रीकरण हुआ है या नहीं:

    (3) इसे प्रति संहरित करने की स्थिति (काल):

    (4) वर्तमान या भावी प्रवर्तन की स्थिति (काल)।

    इसमें केवल एक या दो परीक्षण स्वयं में पर्याप्त नहीं है। बहुलांश परीक्षणों को ध्यान में रखकर इस प्रश्न का निर्धारम किया जाता है।

    दस्तावेज अंशतः वसीयत एवं अंशतः दान हो सकेगा-

    दान एवं वसीयत के बीच प्रमुख परीक्षण यह है कि अन्तरण विलेख के निष्पादक के जीवनकाल में प्रभावी हो जाता है या उसकी मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होता है। यह भी सम्भव है कि विलेख अंशतः वर्तमान में प्रभावी होता हो अथवा भविष्य में वसीयत के रूप में अतः वसीयतकर्ता की मृत्यु तक यह केवल एक प्रदक्षिणा पथ की तरह है तथा वसीयत प्रतिसंहरणीय प्रकृति की है। वसीयत का किया जाना इसका प्रारम्भ मात्र है तथा वसीयतकर्ता की मृत्यु तक इसका कोई भी प्रभाव नहीं होता है।

    इस प्रकार वसीयत के दो गुण-

    (1) यह वसीयतकर्ता की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होने के लिए आशयित हो।

    (2) यह प्रतिसंहरणीय हो ।

    यदि एक सम्पत्ति का शर्त रहित दान किया गया हो और इसके साथ ही साथ एक अन्य करार हुआ हो तो दोनों ही विलेख एक ही संव्यहार एवं शर्त के अंश माने जाएंगे, यदि कोई हो, जिसका उल्लेख विलेख में किया गया हो। वह पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा। ठाकुर रघुनाथ बनाम रमेश चन्द्र के वाद में दाता ने कालेज के लिए भवन निर्माण हेतु एक भूमि का शर्त रहित रूप में दान किया।

    इसी के साथ-साथ एक पृथक करार किया गया जिसमें यह उपबन्धित था कि यदि कालेज भवन का निर्माण एक निर्धारित कालावधि में पूरा नहीं कर लिया जाता है तो यह समझा जाएगा कि दान विलेख समाप्त हो गया है तथा दाता दान में दी गयी सम्पत्ति का स्वामी समझा जाएगा। करार के आधार पर दाता के दावे को स्वीकार किया गया क्योंकि भवन का निर्माण निर्धारित कालावधि में पूर्ण नहीं हो सका था।

    दान एवं स्वैच्छिक न्यास विभेद-

    इन दोनों संव्यवहारों में मात्र यह विभेद है कि दान के मामले में दान की विषयवस्तु हो आदाता के पास अन्तरित हो जाती है, चली जाती है, जबकि न्यास में वास्तविक लाभकारी हित लाभार्थी को प्राप्त होता है या साम्पिक स्वत्व लाभार्थी में निहित हो जाता है जबकि विधिक स्वत्व या हित एक तीसरे व्यक्ति के पास चला जाता है या स्वयं उस व्यक्ति के पास रह जाता है जो न्यास का सृजन करता है।

    दूसरे शब्दों में न्यास के मामले में तीन व्यक्तियों को आवश्यकता होती है अथवा कम से कम दो व्यक्तियों की जिसमें से एक व्यक्ति एक साथ दो अधिकार से युक्त होता है। इसके विपरीत दान में केवल दो ही व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। दान देने वाला एवं दान सम्पत्ति को ग्रहण करने वाला।

    जीवित व्यक्तियों के बीच दान के आवश्यक तत्व सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 122 केवल दो जीवित व्यक्तियों के बीच ही दान द्वारा सम्पत्ति के अन्तरण के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है।

    इसके अनुसार दान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-

    (1) प्रतिफल की अनुपस्थिति।

    (2) पक्षकारदाता एवं आदाता।

    (3) दान को विषयवस्तु।

    (4) दाता द्वारा आदाता के पक्ष में सम्पत्ति का स्वैच्छिक अन्तरण।

    (5) आदाता द्वारा दान की स्वीकृति।

    (1) प्रतिफल की अनुपस्थिति कोई भी विधिक संविदा प्रतिफल के बगैर अप्रवर्तनीय मानी जाती है। दान का संव्यवहार भी एक प्रकार की संविदा है, किन्तु यह साधारण संविदा से भिन्न है। इसे प्रतिफल से रहित रखा गया है।

    वस्तुतः यह स्वेच्छा से किया गया अन्तरण है जिसमें दूसरे पक्षकार की सम्पत्ति पहले से अभिव्यक्त नहीं होती है, अपितु दान की विषयवस्तु को स्वीकार करने से ही उसकी सम्मति प्राप्त होती है। स्वेच्छा से वस्तु का एक दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरण यह दान की प्रथम शर्त होती है। अतः यह आवश्यक है कि दाता सक्षम हो समर्थ हो दान के रूप में वस्तु का अन्तरण करने के लिए। "स्वेच्छा" से अभिप्राप्त है संविदा को शून्य करने वाले तत्वों जैसे कपट मिथ्याव्यपदेशन, प्रपोड़न इत्यादि का अभाव।

    यह संव्यवहार को वैधता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। दाता या अन्तरणकर्ता अपनी इच्छा, मर्जी से बिना किसी जोर या दबाव के दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित करता है। इस संव्यवहार या संविदा को इसलिए प्रतिफल रहित माना गया है, क्योंकि अन्तरण द्वारा सम्पत्ति या वस्तु प्राप्त करने वाला व्यक्ति कोई प्रस्ताव इस आशय का नहीं करता है और न हो जा सम्पत्ति या वस्तु पाने की अपेक्षा रखता है।

    अन्तरक स्वयं यह निर्णय लेता है कि यह अपनी सम्पति या वस्तु किसे देगा, कब देगा और कैसे देगा। प्रतिफल क्या है? इसका स्वरूप क्या है? इसके न होने का क्या प्रभाव होता है? कब यह वैध या विधिसम्मत होता है और कब नहीं? इन तमाम प्रश्नों का निर्धारण संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (4) 23 एवं 25 के आधार पर किया जाता है।

    दान के माध्यम से सम्पत्ति अन्तरित करने को विधि द्वारा मान्यता देकर दाता अथवा अन्तरक के अधिकार को स्वीकृति प्रदान की गयी है कि वह एक अन्य रूप में भी अपने अधिकार का प्रयोग करने में समर्थ है।

    दान के संव्यवहार में दाता किसी भी प्राप्ति की इच्छा नहीं रखता है। उसका उद्देश्य मात्र आदाता का कुछ देना होता है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना समीचीन है कि दान उपदान सहित हो सकता है और वह वैध होगा, किन्तु यदि सप्रतिफल दान किया गया है, तो ऐसा दान शून्य होगा।

    उपलक्ष्य सहित दान एवं प्रतिफल दान दोनों ही पृथक्-पृथक् अवधारणाएँ हैं, परन्तु साधारण स्थिति में इनमें विभेद करना कठिन होता है। पर दोनों में अन्तर है। किसी करार में प्रतिफल न होने से संविदा शून्य हो जाएगी, परन्तु दान में प्रतिफल होने से दान का संव्यवहार शून्य हो जाएगा। परन्तु उपलक्ष्य का प्रभाव करार पर नहीं पड़ता है।

    उपलक्ष्य कैसा भी रहा हो संव्यहार का विधिक अस्तित्व अप्रभावित रहता है। दान दाता को उदारता का परिचायक होता है। दान के मामले में यहाँ प्रतिफल का अस्तित्व माना जाएगा जहाँ दाता के किसी दायित्व की पूर्ति हो रही हो।

    उदाहरणार्थ दाता के किसी ऋण का भुगतान या उसके किसी हित की सन्तुष्टि या उसे कोई लाभ दान एक ऐसा कृत्य है। या संव्यवहार है जिससे आदाता को लाभ प्राप्त होता है। दाता को केवल तभी लाभ प्राप्त होता है जबकि उसने अपना सब कुछ दान में अन्तरित कर दिया हो। ऐसी स्थिति में आदाता दान कर्ता से उसका सब कुछ प्राप्त कर लेता है एवं सर्वस्व आदाता कहलाता है।

    दान बिना प्रतिफल के सम्पत्ति का अन्तरण है। यदि संव्यवहार में किसी भी प्रकार का प्रतिफल है तो संव्यवहार दान का संव्यवहार नहीं होगा। सम्पत्ति अन्तरण के बदले यदि यह वचन दिया गया हो कि अन्तरिती अन्तरक के ऋणों का भुगतान कर देगा तो यह वचन एक वैध एवं सारवान प्रतिफल होगा तथा संव्यवहार दान का संव्यवहार नहीं होगा।

    परन्तु नैसर्गिक स्नेह आध्यात्मिक या नैतिक लाभ इस धारा के अन्तर्गत प्रतिफल नहीं माना जाता है। क्योंकि प्रतिफल से सदैव आशय है मूल्यवान प्रतिफल, जो धन के रूप में हो या धन के रूप में जिसका मूल्यांकन हो सके।

    अतः आध्यात्मिक लाभ पाने के उद्देश्य से किया गया अतएव प्रतिफल के बदले अन्तरण नहीं होगा। अतः इस प्रकार के अन्तरण को दान माना जाएगा। इसी प्रकार अन्तरिती के पक्ष में भूमि का अन्तरण, इस कारण कि वह अन्तरक की बीमारी की स्थिति में उसकी सेवा करेगा इस उद्देश्य से किया गया अन्तरण दान के रूप में वैध होगा।

    यदि एक माँ अपनी सम्पत्ति अपनी एकलौती पुत्री के पक्ष में दान द्वारा अन्तरित करती है तथा पुत्री यह वचन देती है कि वह आजीवन अपनी माता की सेवा करेगी तो यह वचन प्रवर्तनीय नहीं होगा तथा संव्यवहार दान के रूप में वैध नहीं होगा, क्योंकि दान का अभिप्राय है दाता द्वारा आदाता के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण बिना किसी प्रतिफल के अथवा प्रतिफल की अपेक्षा के दान आत्मशान्ति हेतु नैसर्गिक प्यार स्नेह के कारण होता है।

    आदाता यदि चाहे तो सम्पत्ति प्राप्त करने के उपरान्त दाता के लिए कोई कार्य कर सकेगा। किन्तु यदि एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति का दान नगर महापालिका के पक्ष में कर दिया तो तथा नगर महापालिका ने अन्तरक को 100 रुपये प्रतिमास भरण-पोषण हेतु टोकन के रूप में देने का वचन दिया हो तो इस 100 रुपये प्रतिमास की रकम को प्रतिफल नहीं माना जाएगा तथा संव्यवहार दान के रूप में वैध होगा।

    यदि एक पति अपनी पत्नी के पक्ष में एक सम्पत्ति इसलिए अन्तरित करता है कि पत्नी उसे महर के भुगतान के रूप में स्वीकार करेगी, क्योंकि अदत्त महर एक ऋण के रूप में होता है, तो यह अन्तरण दान के रूप में वैध नहीं होगा यदि अतीत में प्रदत्त की गयी सेवा के एवज में एक दान विलेख निष्पादित किया जाता है, किन्तु वह भविष्य में प्रभावी होने को है तो ऐसे अन्तरण को प्रतिफल के एवज में किया गया नहीं माना जाएगा।

    पक्षकार सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित अन्तरण के अन्य प्रकारों में जिस प्रकार दो पक्षकारों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार दान के मामले में भी दो पक्षकारों की आवश्यकता होती है। यह व्यक्ति जो सम्पत्ति अन्तरित करता है दाता कहलाता है तथा जिस व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित होती है आदाता कहलाता है।

    ऐसा कोई भी व्यक्ति जो विधितः सक्षम हो संविदा करने के लिए अपनी सम्पत्ति दान के रूप में अन्तरित कर सकेगा। एक अवयस्क अर्थात् जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है, संविदा करने हेतु अर्ह नहीं माना जाता है।

    ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया दान वैध नहीं होगा। इसी प्रकार एक न्यासी जब तक कि न्यास की शर्तों के अन्तर्गत दान करने हेतु उसे प्राधिकृत न किया गया हो, न्यास सम्पत्ति, दान के रूप में अन्तरित नहीं कर सकेगा।

    वयस्क होने के साथ-साथ दाता का स्वस्थचित्त का होना भी आवश्यक है। वह किसी विवशता या अक्षमता का शिकार न हो जैसे दिवालिया न हो, दान में दी जाने वाली सम्पत्ति का स्वामी हो या सम्पत्ति के असली स्वामी द्वारा अन्तरण हेतु प्राधिकृत हो दान का दूसरा पक्षकार होता है आदाता अर्थात् वह व्यक्ति जिसके पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है या वह व्यक्ति जिनके पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है तथा जो उसे स्वीकार करता है या स्वीकार नहीं करता है या ज उसे स्वीकार करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं। यह आवश्यक है कि आदाता अभिनिश्चित व्यक्ति होने चाहिए। यदि वह या वे अभिनिश्चित नहीं है तो इस धारा के उपबन्ध ऐसे अन्तरण पर प्रभावी नहीं होंगे।

    दान के द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण नैसर्गिक जीवित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में सम्पति का अन्तरण हो सकेगा या विधिक व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में हो सकेगा। अतः दान द्वारा सम्पति का अन्तरण एक मूर्ति के पक्ष में हो सकेगा, क्योंकि मूर्ति, हिन्दू विधि के अनुसार एक विधिक व्यक्ति है।

    वह सम्पत्ति धारण करने के लिए अर्ह मानी गयी है यद्यपि मूर्ति द्वारा सम्पत्ति का धारण किया जाना केवल एक आदर्श रूप में ही होता है। मूर्ति को भाँति मठ भी एक विधिक व्यक्ति है जो सम्पत्ति धारण करने के लिए अर्ह एवं सक्षम है।

    दान द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप में उत्तर जीवित के अधिकार के साथ किया जा सकेगा तथा अन्तरण वैध होगा। यदि कोई व्यक्ति अपनी ही सम्पत्ति अपने पक्ष में अन्य व्यक्तियों के लाभ हेतु अन्तरित करता है तो ऐसा संव्यवहार दान का संव्यवहार होगा।

    धर्म के पक्ष में दान द्वारा किया गया अन्तरण वैध नहीं होगा क्योंकि 'धर्म' शब्द अपने आप में संदिग्ध एवं अभिनिश्चित प्रकृति का है कि उसके पक्ष में दान को प्रभावी किया जाना न्यायालय के लिए सम्भव नहीं है। अतः 'धर्म' के पक्ष में 'दान' द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण वैध नहीं होगा।

    एक पवित्र हिन्दू साधारणतया अपनी सम्पत्ति किसी एक मूर्ति या प्रतिमा के पक्ष में अन्तरित कर देता है तथा उक्त सम्पत्ति के अपने सभी अधिकारों का परित्याग कर देता है। इसे मौखिक रूप में ही प्रभावी बनाया जा सकता है, किन्तु यदि इस आशय का कोई लिखित दस्तावेज है, तो इसका रजिस्ट्रीकरण आवश्यक होगा।

    एक धर्मदाय एक प्रतिमा, मूर्ति या मंदिर के पक्ष में विधित किया जा सकेगा तथा इसके लिए किसी विशिष्ट औपचारिकता या अनुष्ठान पर कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं होती है, पर यह आवश्यक है कि दाता ने इस निमित्त अपनी मंशा सुस्पष्ट कर दी हो।

    यदि सम्पत्ति का दान किसी प्रतिमा या मूर्ति के पक्ष में किया गया है तो यह साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होती है कि दाता ने दान हेतु संकल्प एवं समर्पण किया था अथवा नहीं यदि एक सत्संगी ने धन, रकम का दान राधास्वामी दयाल, एक अविधिक व्यक्ति के पक्ष में किया था, तो दान सारवान रूप में आगरा सत्संगी, एक पंजीकृत सोसाइटी के लाभ हेतु माना जाएगा और इस आधार पर इसे वैध माना जाएगा क्योंकि यह एक मंदिर, प्रतिमा या मूर्ति के लाभ की प्रकृति का है जिस पर सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम प्रवर्तनीय नहीं है।

    यदि अ अपनी सम्पत्ति दान दिलेख द्वारा ब के पक्ष में, जिसे यह अपने दत्तक पुत्र रूप में प्रस्तुत करता है, निष्पादित करता है पर यह साबित नहीं हो पाता है कि दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया पूर्ण हुई थी तो ऐसा दान प्रभावी नहीं होगा।

    दान द्वारा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए आदाता का वयस्क होना आवश्यक नहीं है। अवयस्क आदाता के एवज में उसके नैसर्गिक संरक्षक दान स्वीकार कर सकेंगे, किन्तु यदि दान दुर्भर प्रकृति का दान है तो दायित्व या प्रभार अवयस्क के विरुद्ध प्रवर्तनीय नहीं होंगे उसको अवयस्कता के दौरान।

    परन्तु वयस्क होने पर आदाता को यह विकल्प होगा कि वह या तो दायित्वों, प्रभारों को स्वीकार करे अथवा दान की विषयवस्तु वापस कर दे। गर्भस्थ शिशु भी आदाता हो सकेगा। जहाँ दान अवयस्क आदाता के संरक्षक द्वारा स्वीकार किया जाता है, संरक्षक दान विलेख पर अपना हस्ताक्षर करके अथवा अँगूठे का निशान लगाकर अपनी स्वीकृति अभिव्यक्त कर सकता है।

    3)- दान की विषयवस्तु-

    सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 122 स्थूल या मूर्त वस्तुओं के अन्तरण के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। अतः चल एवं अचल अथवा जंगम या स्थावर दोनों हो प्रकार की सम्पत्तियाँ दान की विषयवस्तु होती हैं।

    दान द्वारा अन्तरित की जाने वाली सम्पत्ति की निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए-

    (1) वह सम्पत्ति अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत अन्तरणीय हो।

    (2) वह सम्पत्ति वर्तमान में हो, भविष्य में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति का दान शून्य होगा, क्योंकि दान तुरन्त या वर्तमान में प्रभावी होने वाला संव्यवहार है। अत: दान के समय वस्तु का अस्तित्ववान होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ भविष्य में उगने वालो फसलों का दान शून्य होगा। भविष्य में क्रय की जाने वाली भूमि का दान शून्य होगा।

    यदि दान की विषयवस्तु वर्तमान में विद्यमान हैं तो दान किस तिथि से प्रभावी होगा, यह बिन्दु महत्वपूर्ण नहीं होगा। दाता चाहे तो अन्तरण को तुरन्त की तिथि से प्रभावी बनाये या भविष्य को किसी तिथि से प्रभावी बनाये या भविष्य में किसी घटना के घटित होने पर निर्भर रखे।

    यदि दान की विषयवस्तु स्थूल या मूर्त नहीं है तो अन्तरण वैध नहीं होगा। उदाहरणार्थ यदि किसी प्रतिमूर्ति को बिना प्रतिफल के आदाता के पक्ष में निहित कर दिया जाए तो इसे हम साधारणरूप में दान कह सकेंगे, किन्तु विधिक अर्थ में यह दान नहीं होगा क्योंकि दान की विषयवस्तु अमूर्त है, जबकि इस धारा के अन्तर्गत केवल मूर्त वस्तु का ही दान हो सकेगा।

    दान की विषयवस्तु यदि अस्पष्ट प्रकृति की है तो ऐसी वस्तु का भी दान नहीं हो सकेगा। धर्म या पुण्यकार्य हेतु सम्पत्ति का दान वैध नहीं होगा, क्योंकि दान को विषयवस्तु संदिग्ध प्रकृति की है। जबकि गरीबों को खाना खिलाने हेतु सम्पत्ति का दान वैध होगा।

    दान की विषयवस्तु साधारणतया मूर्त वस्तुएँ ही होती हैं किन्तु वासुदेव बनाम प्राणलाल के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि शेयर सॉफिकेट, रजिस्ट्रीकृत शेयर धारक द्वारा हस्ताक्षरित रिक्त अन्तरण प्रपत्र का क्रेता को रजिस्ट्रीकृत शेयर धारक द्वारा सौंपा जाना इस बात का प्रमाण है कि क्रेता शेयरों में पूर्ण हित या स्वत्व प्राप्त नहीं करता है। उसे केवल कम्पनी के रजिस्टर में स्थान पाने का अधिकार मिलता है।

    रजिस्टर में स्थान पाने का अधिकार मात्र वाद संस्थित करने का अधिकार है, फिर भी यह अधिकार मात्र विक्रय अधिनियम के अन्तर्गत एक उत्तम अधिकार है और यह अधिकार अन्तरितों के पक्ष में उस समय पूर्ण हो जाएगा जब वह सम्यक् रूप में प्रमाणित एवं रजिस्ट्रीकृत हो जाएगा।

    विद्यमान सम्पत्ति-

    एक वैध दान का सृजन करने के लिए यह आवश्यक है कि दान को विषयवस्तु तत्समय विद्यमान हो। दूसरे शब्दों में दान की विषयवस्तु निश्चित हो चल या अचल सम्पत्ति के रूप में यथा भूमि, माल, अनुयोज्य दावा इत्यादि। सम्पत्ति, इस अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत अन्तरणीय हो। यदि अन्तरण की विषयवस्तु मुद्रा, रकम या धन है जिसका उल्लेख लेखा पुस्तिका में हुआ है तो दान में दी जाने वाली रकम का अन्तरण की तिथि का खाते में होना आवश्यक होगा तथा अन्तरण क्रेडिट एवं डेबिट के माध्यम से होगा।

    ऐसा अन्तरण समायोजन के मध्यम से भी हो सकेगा, पर यदि अन्तरण एक ऐसे व्यक्ति के द्वारा किया जा रहा है जिसका बैंक में खाता नहीं है तो वैध अन्तरण तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कि कथित रकम तत्समय उपलब्ध न हो। किसी भी ऐसी वस्तु का दान नहीं हो सकेगा जो भविष्य में अस्तित्व में आने वाली हैं, जैसे सम्पत्ति के भावी राजस्व का दान।

    4)- दान की विषयव का दाता द्वारा स्वैच्छिक तरण-

    दान द्वारा अन्तरण को वैध होने के लिए आवश्यक है कि दाता अन्तरण को विषयवस्तु का स्वैच्छिक रूप में या स्वेच्छ या अन्तरण करे। "स्वेच्छया" शब्द को सामान्य रूप में यहाँ प्रयुक्त किया गया है। इससे तात्पर्य है अबाधित स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करते हुए दान की विषयवस्तु का अन्तरण उसे तकनीकी रूप से 'प्रतिफल रहित के रूप में प्रयोग नहीं किया गया है।

    जब दान का सृजन होता है तो सन्तोषजनक रूप में यह प्रकट होना चाहिए कि दाता को ज्ञात था कि वह क्या कर रहा है तथा वह दस्तावेज के तथ्यों को भलीभाँति समझता था एवं उनके प्रभाव के भी तथा उस पक्षकार द्वारा जिसके पक्ष में दान किया गया है, दाता पर किसी प्रकार के अनुचित प्रभाव, बल या उत्पीड़न का प्रयोग नहीं किया गया था कब्जे की अदायगी से, दाता की सम्मति परिलक्षित होती है।

    पर जहाँ दान अन्तःकरण विरुद्ध नहीं हैं, पर उसे चुनौती दी जाती है इस आधार पर कि उक्त दान के सृजन में असम्यक् प्रभाव का प्रयोग हुआ था तो यह साबित करने का दायित्व उस व्यक्ति पर होगा जो दान को चुनौती दे रहा है, कि आदाता ने अपनी स्थिति का प्रयोग किया था दाता से अनुचित लाभ पाने के उद्देश्य से यदि दान असम्यक् प्रभाव एवं दबाव से धूमिल है तो एक निर्दोष तृतीय पक्षकार भी इसका लाभ नहीं उठा सकेगा यदि वह मात्र एक स्वयंसेवक था, पर यदि वह सद्भावयुक्त क्रेता था मूल्यवान प्रतिफल के बदले में, संव्यवहार के उक्त पक्ष की नोटिस के बिना तो ऐसा अन्तरिती उक्त सम्पत्ति को, दाता को वापस लौटाने के दायित्वाधीन नहीं होगा।

    यदि दान के पक्षकार एक दूसरे से गोपनीय सम्बन्धों से जुड़े हुए हैं तो दान को तब तक समर्थन नहीं प्राप्त होगा जब तक कि यह दर्शाया न जा सके कि दाता के पास सक्षम एवं स्वतंत्र सलाह मशविरा थी तथा वह अबाधित निर्णय शक्ति का प्रयोग करने की स्थिति में था संपूर्ण संज्ञान के साथ कि वह क्या कर रहा है, तो ऐसे प्रकार में विधि यह साबित करने का सम्पूर्ण भार आदाता पर छोड़ देती है कि संव्यवहार सद्भाव युक्त था।

    जहाँ कोई व्यक्ति एक रकम दान के रूप में सरकार को देता है एक विशिष्ट प्रयोजन के लिए तथा वह प्रयोजन किन्हीं कारण से विफल हो जाता है तो दाता उक्त रकम को वापस पाने का हकदार होगा।

    यदि दान के संव्यवहार का सृजन एक पर्दानशीन स्त्री के द्वारा किया गया है तो सबसे महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली साक्ष्य उस व्यक्ति द्वारा दिया जाना चाहिए जो दस्तावेज के अध्यधीन दावा प्रस्तुत करता है कि संव्यवहार वास्तविक है एवं सद्भाव में किया गया है तथा पर्दानशीन स्त्री संव्यवहार की प्रकृति, उसके स्वरूप तथा संव्यवहार के लाभ एवं हानि से भलीभाँति परिचित थी।

    उसे इस बात का भी अवसर प्राप्त था कि वह स्वतंत्र सलाह ले सके तथा वह एक स्वतंत्र व्यक्ति थी एवं उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से दान विलेख का निष्पादन किया। यदि दाता एक वृद्ध एवं अशक्त स्त्री है तो यह साबित करने का सशक्त भार आदाता पर होगा कि दान स्वेच्छया निष्पादित किया गया था उस स्त्री द्वारा दस्तावेज के तथ्यों के सम्पूर्ण ज्ञान के साथ तथा उसने ऐसा किसी दबाव के अन्तर्गत नहीं किया न ही किसी प्रभाव के अन्तर्गत ऐसा किया जो अनुचित प्रभाव के दायरे में आये।

    इसी प्रकार यदि दान एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है पढ़ा-लिखा नहीं था साथ ही वृद्ध एवं कमजोर एवं क्षीणकाय था तथा जिसकी दृष्टि कमजोर थी, तो आदाता का यह दायित्व होगा कि वह सन्देह से परे यह साबित करे कि दान के सृजन में किसी असम्यक् प्रभाव, प्रपीड़न इत्यादि का प्रयोग नहीं किया गया था।

    असम्यक् प्रभाव का असर दान एवं संविदा में एक ही प्रकार का होता है जहाँ यह पाया जाता है कि दाता अपने कारोबार को पूर्णरूपेण व्यवस्थित कर रही थी, तथा अपना सारा कारोबार खुद चला रही थी तथा न्यायालय एवं रजिस्ट्री कार्यालय भी स्वयं जाती थी वादों के दौरान एवं दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण हेतु तो मात्र यह तथ्य कि वह एक बहुत बुजुर्ग स्त्री थी एवं उस पर उम्र के प्रभाव परिलक्षित थे, केवल इस आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि उसके द्वारा निष्पादित दान असम्यक् प्रभाव के अन्तर्गत किया गया था।

    दान की मंशा (प्रयोजन) एवं प्रतिफल-

    दान सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 के अन्तर्गत सम्पत्ति का एक अन्तरण है, पर यह उदारता का एक कृत्य है तथा इसमें प्रतिफल का कोई तत्व किसी भी रूप में नहीं होता है। मौद्रिक प्रतिफल का पूर्ण अभाव इस संव्यवहार का प्रमुख लक्षण है जो इसे, अनुदान या अन्य संव्यवहारों से जो मूल्यवान एवं पर्याप्त प्रतिफल के एवज में किए जाते हैं, पृथक् करता है।

    जहाँ कोई समरूप लाभ, जिसे दान के संदर्भ में धन के रूप में आकलित किया जा सके, ऐसा संव्यवहार दान का संव्यवहार नहीं रह जाएगा, अपितु यह एक अलग रंग ले लेगा अतः दान दिए जाने के प्रयोजन या उद्देश्य को प्रतिफल से रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो कि दान की विषयवस्तु है।

    प्यार, स्नेह, आध्यात्मिक लाभ तथा अनेक अन्य तत्व दानकर्ता की मंशा को प्रभावित कर सकते हैं दान करने के लिए, किन्तु इन संतानीय तत्वों का प्रतिफल नहीं कहा जा सकता है या उन्हें विधिक प्रतिफल नहीं माना जा सकता है जैसा कि विधि में प्रतिफल को समझा जाता है। विधिक प्रतिफल वह है जिसे विधि द्वारा एक वैध एवं विधिसम्मत प्रतिफल के रूप में समझा जाता है या मान्यता प्राप्त है।

    इसे कभी-कभी 'अच्छा' या पर्याप्त प्रतिफल के समतुल्य भी प्रयोग में लाया जाता है। प्यार एवं स्नेह तब पर्याप्त प्रतिफल होते हैं, जब दान की परिकल्पना को जाती है, परन्तु इसे मूल्यवान प्रतिफल नहीं माना जाता है जब ऐसा अपेक्षित हो।

    दान के आवश्यक तत्वों में से एक यह है कि दानदाता द्वारा बिना प्रतिफल के किया गया हो। प्रतिफल शब्द को सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है, इसे केवल संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में परिभाषित किया गया है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस अधिनियम के अन्तर्गत 'प्रतिफल' को उसी रूप में देखा जाता है जिस रूप में इसे संविदा अधिनियम में देखा गया है।

    चूँकि संविदा अधिनियम के अन्तर्गत नैसर्गिक प्यार एवं स्नेह को प्रतिफल के दायरे से बाहर रखा गया है अतः इस अधिनियम के अन्तर्गत भी यह बाहर हो रहगा। यदि इसे अन्य रूप में देखा जाएगा तो यह संव्यवहार वस्तुतः सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 54 के अन्तर्गत पर तो विक्रय होगा अथवा धारा 118 के अन्तर्गत विनिमय होगा दान जब दो जीवित व्यक्तियों के पक्ष में होता है, तो इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रतिफल विद्यमान न हो।

    संविदा के मामलों में प्रतिफल वस्तुतः संविदा के सृजन हेतु एक प्रलोभन होता है। कारण, प्रयोजन, मूल्य, या प्रेरित करने वाले प्रभाव जो संविदा के एक पक्षकार को प्रेरित करते हैं कि वह संविदा का पक्षकार बने, प्रतिफल हैं संविदा का मूल आधार है प्रतिफल, यह एक वैध संविदा के लिए आवश्यक है।

    यह उन मामलों में पक्षकारों पर विधितः बाध्यकारी जिनमें कतिपय अधिकारों, हितों, प्रलाभों का सृजन एक व्यक्ति के पक्ष में होता है या दूसरे पक्षकार को कोई दायित्व, हानि, नुकसानी या आबद्धता दी जाती है या उसके द्वारा स्वीकार की जाती है या हानि उठानी पड़ती है।

    (5) दान की स्वीकारोक्ति- एक वैध दान के लिए दान की उद्घोषणा सम्पत्ति का अस्तित्व में होना, दाता एवं आदाता की उपस्थिति प्रतिफल का अभाव ही पर्याप्त नहीं है, यह भी आवश्यक है कि दान द्वारा अन्तरित सम्पत्ति को आदाता स्वीकार भी करे या उसके एवज में कोई अन्य व्यक्ति उस सम्पत्ति को स्वीकार करे दान द्वारा सम्पत्ति अन्तरित करने का प्रस्ताव तब तक पूर्ण नहीं होगा जब तक कि आदाता उसे स्वीकार न कर ले यद्यपि दाता यह विश्वास कर सकता है कि आदाता द्वारा दान में दी गयी सम्पत्ति स्वीकार कर ली गयी है। स्वीकारोक्ति का निष्कर्ष दान विलेख के निष्पादन से पूर्व के कृत्यों के आधार पर निकाला जा सकेगा कई बार मात्र मौन रहना ही स्वीकारोक्ति का प्रतीक होता है, पर यह आवश्यक है कि आदाता को दान के विषय में ज्ञान हो और ऐसी स्थिति में स्वीकारोक्ति का लेशमात्र साक्ष्य भी संव्यवहार को पूर्ण बनाने के लिए पर्याप्त होगा। साधारणतया यह माना जाता है कि दान, यदि दुर्भर प्रकृति का नहीं है, तो आदाता उसे स्वीकार कर लेगा। एक आदाता सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 54 को जागृत करने के लिए दान में प्राप्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपने आप को क्रेता नहीं घोषित कर सकता है।

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