संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 31: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत न्यायालय में निक्षेप क्या होता है (धारा 83)

Shadab Salim

18 Aug 2021 2:44 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 31: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत न्यायालय में निक्षेप क्या होता है (धारा 83)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882 के अंतर्गत किसी भी बंधककर्ता को अपनी बंधक संपत्ति को मोचन करने का अधिकार प्राप्त है। यदि किसी बंधककर्ता ने अपनी कोई संपत्ति बंधक की संविदा के अंतर्गत बंधकदार को अंतरण की है तो उस संपत्ति की ऋण की अदायगी के समय विमोचन के अधिकार का प्रयोग कर पुनः प्राप्त कर सकता है।

    इस अधिनियम की धारा-83 इसी प्रकार मोचन के अधिकार का एक प्रारूप है। यदि कोई व्यक्ति अपने मोचन के अधिकार का प्रयोग करना चाहता है तथा अपने लिए गए ऋण की अदायगी करना चाहता है तब उसके पास में यह विकल्प उपलब्ध होगा कि ऋण की राशि को न्यायालय में निक्षेप के रूप में जमा कर दें तथा अपने मोचन के अधिकार को प्रयोग करें और अपनी संपत्ति को बंधक मुक्त कर ले।

    इस आलेख के अंतर्गत इस धारा 83 से संबंधित समस्त प्रावधानों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे पूर्व के आलेख के अंतर्गत संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 81, 82 की विवेचना प्रस्तुत की गई थी जिसके अंतर्गत क्रमबंधन अभिदाय का उल्लेख किया गया है।

    न्यायालय में निक्षेप-

    सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 60 उपबन्धित करती है कि बन्धककर्ता को मोचन का अधिकार है और इस अधिकार के अन्तर्गत वह बन्धक ऋण की धनराशि जमा कर अपनी सम्पत्ति को प्रतिभूति के दायित्व से मुक्त करा सकेगा। इस प्रकार यह प्रक्रिया पूर्ण होगी, उसी के सम्बन्ध में यह धारा प्रावधान प्रस्तुत करती है। यह धारा मोचन हेतु त्वरित एवं संक्षिप्त प्रक्रिया का उल्लेख करती है।

    यह प्रावधान बंगाल रेग्यूलेशन,1798 से इस अधिनियम में समाहित किया गया है। यह प्रावधान एक बन्धक के अन्तर्गत शोध्य धनराशि के सम्बन्ध में लागू होता है न कि किसी साधारण मनी बाण्ड के अन्तर्गत शोध्य रकम के सम्बन्ध में।

    एक बन्धककर्ता, बन्धक रकम के शोध्य हो जाने के पश्चात् तथा मोचनाधिकार के कालबाधित होने से पूर्व, निम्नलिखित में से किसी भी एक अधिकार का प्रयोग कर सकेगा-

    1)- धारा 60 के अन्तर्गत उचित काल एवं स्थान पर बन्धकदार को बन्धक पर शोध्य रकम का भुगतान कर सकेगा या उसके लिए निविदा (प्रस्थापना) कर सकेगा।

    2)- वह इस धारा के अन्तर्गत बन्धक पर शोध्य रकम को न्यायालय में जमा कर सकेगा।

    3)- वह इस अधिनियम की धारा 191 के अन्तर्गत मोचन हेतु बाद संस्थित कर सकेगा।

    धारा 83 उपरोक्त तीन अधिकारों में से द्वितीय अधिकार के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। इसका उद्देश्य बन्धककर्ता को एक सुविधा उपलब्ध करना है जिससे बन्धकदार मोचन की प्रक्रिया में बहाना न कर सके तथा बन्धककर्ता अपनी सम्पत्ति पुनः प्राप्त कर सकें।

    यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि अचल सम्पत्ति का बन्धक कोई भी व्यक्ति मुश्किल या कठिनाई की स्थिति में हो करता है अतः विधि का यह परम कर्तव्य बनता है कि वह ऐसे व्यक्ति की सहायता करे तथा बन्धक सम्पत्ति की पुनः प्राप्ति में उसकी सहायता करे।

    धारा 83 बन्धककर्ता को एक विशेषाधिकार प्रदान करती है जिससे वह बन्धकदार के चातुर्यपूर्ण रवैये से छुटकारा पा सके और अपनी सम्पत्ति भी वापस पा सके। यह विशेषाधिकार केवल बन्धककर्ता को ही उपलब्ध है। अन्य प्रकार के कर्ज़दारों को नहीं।

    इस धारा के प्रथम पैरा के निम्नलिखित तत्व हैं-

    1)- मुख्य बन्धक रकम (मूलधन) के शोध्य होने के पश्चात् किसी भी समय

    2)- मोचन हेतु वाद के कालवाधित या वर्जित होने से पूर्व।

    3)- बन्धक रकम ऐसे किसी भी न्यायालय में जिसमें बन्धक रकम की वसूली हेतु वाद संस्थित किया जा सकता था, शोध्य अवशिष्ट राशि बन्धकदार के नाम निक्षेप (deposit) की गयी हो।

    बन्धक रकम का निक्षेप-

    इस नियम के प्रवर्तन हेतु यह आवश्यक है कि बन्धक पर शोध्य अवशिष्ट बन्धक रकम न्यायालय में निक्षेप (जमा) कर दी गयी हो। जमा की गयी रकम सम्पूर्ण धनराशि होनी चाहिए। बन्धककर्ता के पक्ष पर मात्र तैयार रहना रकम के भुगतान हेतु पर्याप्त नहीं है।

    निक्षेप सशर्त नहीं होना चाहिए। न ही किसी दस्तावेज के प्रस्तुतीकरण के अध्यधीन जहां कि एक बन्धककर्ता कर या शुल्क जमा करने के लिए दायी है वहां निक्षेपित रकम में ऐसे करों या शुल्क को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए।

    आनन्द राव बनाम दुर्गा बाई के मामले में बन्धककर्ता ने बन्धक धन न्यायालय में जमा किया, परन्तु उसने यह स्वीकार नहीं किया कि बन्धकदार बन्धक धन का अधिकारी था। फलस्वरूप उसने न्यायालय से यह अनुरोध किया कि जमा रकम का भुगतान बन्धकदार को तभी किया जाना चाहिए यदि वह यह प्रमाणित कर दे कि वह बन्धक ऋण प्राप्त करने का अधिकारी था। यह अभिनिर्णीत हुआ कि यह एक सशर्त निविदा थी और इस धारा के अन्तर्गत नहीं थी।

    इसी प्रकार रकम न्यायालय में जमा करते समय यदि यह लिखा गया था कि बन्धकदार कोई अधिकार उक्त रकम पर नहीं था एवं यह भी लिखा गया था कि यदि वह न्यायालय से रकम प्राप्त करने का प्रयास करेगा तो उसके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जाएगी। ऐसी स्थिति में जमा रकम सशर्त मानी जाएगी और वह अवैध होगी। धारा 83 के अन्तर्गत प्रवर्तनीय नहीं।

    वैध निक्षेप का प्रभाव-

    जैसे ही शोध्य रकम निक्षेपित की जाती है बन्धककर्ता एवं बन्धकग्रहीता के सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। यद्यपि कुछ मामलों में यह भी अभिनिर्णीत किया गया है कि रकम निक्षेप स्वयं ही बन्धक का उन्मोचन नहीं करेगा तथा बन्धककर्ता एवं बन्धकग्रहीता का सम्बन्ध समाप्त नहीं होगा।

    जब रकम न्यायालय में निक्षेपित (जमा) कर दी जाती है तो न्यायालय का यह कर्तव्य होता है कि वह बन्धकदाता को इस तथ्य की सूचना दे और बन्धकदार को इस आशय को नोटिस दी जानी चाहिए। नोटिस प्राप्त होने की तिथि से बन्धकदार के हित सम्पत्ति में से समाप्त हो जाते हैं। बन्धक रकम में से अपना हित प्राप्त करने के लिए वह बन्धककर्ता के प्रति दायी हो जाता है।

    नगथल बनाम अरुमुगम के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि बन्धकदार एक वैध निक्षेप लेने (ग्रहण करने से मना करता है तो इससे न केवल वैध ब्याज का चालू रहना समाप्त हो जाएगा अपितु धारा 76 (1) के अन्तर्गत बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति, जो कि उसके कब्जे में या अध्यधीन है उस समय से जब उसने निक्षेप से प्राप्त किया होता प्राप्तियों का हिसाब देने के भी दायित्वाधीन होगा।

    प्रक्रिया जब रकम न्यायालय में विक्षेषित कर दी जाती है, तो न्यायालय निक्षेप के तथ्य से अवगत कराते हुए बन्धकदार को नोटिस देता है। जब नोटिस बन्धकदार को प्राप्त हो जाती है तो उसका कर्तव्य बनता है कि वह न्यायालय के समक्ष अपने बन्धक पर शोध्य रकम का उल्लेख करते हुए एक पिटीशन प्रस्तुत करे।

    उसका यह भी दायित्व होगा कि वह बन्धक विलेख एवं अन्य सभी दस्तावेज, जो बन्धक सम्पत्ति से सम्बन्ध हैं और जो उसकी शक्ति एवं कब्जे के अन्तर्गत हैं, न्यायालय में निक्षेपित (जमा) कर दें। सभी प्रकार से सन्तुष्ट होने पर न्यायालय उसे रकम निकालने की अनुमति प्रदान करेगा।

    बन्धक पर शोध्य रकम को न्यायालय में निक्षेपित करने की शक्ति न्यायालय में बन्धक रकम तभी निक्षेपित की जा सकेगी जब वह शोध्य हो चुकी हो। इस विशेषाधिकार का प्रयोग बन्धककर्ता तभी कर सकेगा जब बन्धक रकम के भुगतान हेतु कोई निर्धारित समय पूर्ण हो चुका हो या बन्धक संविदा को शर्तों के अनुरूप रकम देय हो चुकी हो।

    इस धारा के अन्तर्गत रकम का न्यायालय में निक्षेप (जमा होना) तभी वैध होगा जब समुचित न्यायालय में जमा की गयी हो, समुचित रकम व्यक्ति के खाते में जमा की गयी हो एवं समुचित रकम ढंग से जमा को गयी हो।

    भोग बन्धक की स्थिति -

    यदि बन्धक भोग बन्धक की प्रकृति का है और सम्पत्ति बन्धकदार के कब्ज़े में है जिससे वह मूलधन या ब्याज या दोनों का भुगतान कर रहा था तथा बन्धककर्ता अवशिष्ट बन्धक रकम का भुगतान कर बन्धक का मोचन कराने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है वहां यदि बन्धककर्ता ने इस धारा में वर्णित शर्तों का पालन कर दिया है तो बन्धकदार का यह दायित्व होगा कि वह बन्धक सम्पत्ति बन्धककर्ता को या उसके द्वारा निर्देशित किसी अन्य व्यक्ति को सौंप दे।

    बन्धक रकम का न्यायालय में निक्षेप या निविदा मोचन हेतु वाद की पूर्व शर्त नहीं -

    धारा 83 यह अपेक्षा नहीं करती है कि मोचन हेतु वाद संस्थित करने से पूर्व बन्धककर्ता बन्धक रकम का निक्षेप करे या निविदा करे न्यायालय में एवं इसके पश्चात् ही मोचन हेतु वाद संस्थित करे। यदि रकम का निक्षेप या निविदा करने से पूर्व मोचन हेतु वाद संस्थित किया जाता है तो न्यायालय मोचन वाद को निरस्त नहीं कर सकेगा। इस आधार पर कि बन्धक रकम का निक्षेप या निविदा नहीं हुआ था या निविदा की नोटिस तामील नहीं हुई थी।

    बन्धककर्ता न्यायालय में बन्धक रकम का निक्षेप निरन्तर निविदा के रूप में कार्य करता है तथा बन्धकदार को यह उन्मुक्ति होती है कि वह उसे किसी भी समय बन्धककर्ता द्वारा निविदा का विखण्डन करने से पूर्व न्यायालय से रकम निकालकर स्वीकार कर ले। यदि बन्धकदार प्रमाणित स्टेटमेण्ट निक्षेप को स्वीकारते हुए दाखिल करता है तो यह कार्य इस धारा के प्रावधान का पर्याप्त अनुपालन माना जाएगा।

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